निर्वात नली
इलेक्ट्रॉनिकी में निर्वात नली एक ऐसी युक्ति है जिसका कार्य निर्वात में विद्युत धारा के प्रवाह पर आधारित है। इसे एलेक्ट्रॉन नली (उत्तरी अमेरिका), तापायनिक वॉल्व (यूके में) या केवल 'ट्यूब' या 'वॉल्व' भी कहते हैं। इनमें एक तप्त फिलामेण्ट (कैथोड) से निकलने वाले एलेक्ट्रॉन निर्वात में गति करके एनोड पर पहुंचते हैं जो कैथोड की अपेक्षा अधिक वोल्टता पर रखा गया होता है। निर्वात नलियों के प्रादुर्भाव ने एलेक्ट्रॉनिकी के जन्म और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
द्विध्रुवी (डायोड)
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प्रथम तापायनिक नली को फ्लेमिंग ने सन् 1904 में बनाया था जिसे द्विध्रुवी (Diode) कहते हैं। जैसा पहले ही लिखा जा चुका है, द्विध्रुवी में दो ध्रुव होते हैं। एक ध्रुव इलेक्ट्रान का निस्सारण करता है और दूसरा पहले ध्रुव की अपेक्षा धन विभव पर रखा जाता है, तब विद्युद्धारा प्रवाहित होती है। परंतु यह धारा एकदिश (यूनि-डाइरेक्शनल) होती है।
यदि पट्टिका को ऋणाग्र की अपेक्षा धन विभव पर रखा जाय तो, जैसा ऊपर लिखा जा चुका है, इलेक्ट्रान धारा प्रवाहित हो जाती है। परंतु यदि विभव को दूसरी दिशा में लगाया जाए, अर्थात् यदि पट्टिका ऋणाग्र की अपेक्षा ऋण विभव पर हो, तो इलेक्ट्रान धारा एकदम नहीं प्रवाहित होगी, क्योंकि बिना पट्टिका को गरम किए पट्टिका से इलेक्ट्रान नहीं निकलेंगे। इस कारण नली में इलेक्ट्रान धारा केवल एक ही दिशा में प्रवाहित की जा सकती है। यदि प्रत्यावर्ती (ऑल्टरनेटिंग) धारा के स्रोत को एक द्विध्रुवी ओर विद्युतीय भार (इलेक्ट्रिकल लोड) के, जैसे किसी प्रतिरोधक (रेज़िस्टर) के, श्रेणीसंबंध (कंबिनेशन) के आर पार लगाया जाय तो धारा केवल एक ही दिश में बहेगी और प्रत्यावर्ती के आधे चक्र में कोई धारा नहीं प्रवाहित होगी। इन दिशाओं में नली प्रत्यावर्ती धारा के बदले विद्युत् को भार में केवल एक दिशा में चलने देती हैं।
पट्टिक धारा तथा पट्टिक वोल्टता का संबंध
पहले पट्टिक धारा धीरे-धीरे बढ़ती है, फिर कुछ शीघ्रता से और अंत में स्थिर हो जाती है, जिसे संतृप्त धारा (सैचुरेटेड करेंट) कहते हैं। यह संतृप्ति अंतरण आवेश (स्पेस चार्ज) के कारण हो जाती है, जो भटके हुए इलेक्ट्रानों के कारण ऋणाग्र के निकट प्रकट हो जाता है।
द्विध्रुवी में पट्टिक धारा निम्नलिखित समीकरण द्वारा प्रदर्शित की जा सकती है:
- Ip = K V0.5
इसमें Ip = द्विध्रुवी में पट्टिक धारा;
K = वह नियतांक जो नली की ज्यामिति (आकृति) पर निर्भर रहता है;
V = द्विध्रुवी की पट्टिक वोल्टता
द्विध्रुवी के उपयोग
जैसा ऊपर बताया जा चुका है, द्विध्रुवी में विद्युद्धारा केवल एक ही दिशा में प्रवाहित होती है। इस कारण इस नली का उपयोग प्रत्यावर्ती धारा के ऋजुकरण में किया जाता है। इसमें प्रत्यावर्ती धारा दिष्ट धारा (डाइरेक्ट करेंट) में परिवर्तित हो जाती है। इसको 'अर्ध तरंग ऋजुकरण' (हाफ़वेव रेक्टिफ़िकेशन) कहते हैं। उन द्विध्रुवियों को, जो उच्च विभवप्रत्यावर्ती धारा के ऋजुकरण में प्रयुक्त होते हैं, केनाट्रान कहते हैं।
गैसयुक्त द्विध्रुवी का उपयोग शक्तिशाली धारा के ऋजुकरण में किया जाता है, उदाहरणत: संचायक बैटरियों (ऐक्युम्युलेटर्स) को आवेष्टित (चार्ज) करने में टंगर ऋजुकारी एक गैसयुक्त ऋजुकारी है।
त्रिध्रुवी (ट्रायोड)
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लीबेन ने जर्मनी में और ली द फ़ॉरेस्ट ने अमरीका में एक महत्वपूर्ण खोज की। उन्होंने द्विध्रुवी के दोनों ध्रुवों के मध्य एक अतिरिक्त ध्रुव लगा दिया और यह पाया कि इस प्रकार की नली, जिसे त्रिध्रुवी कहते हैं, बहुत ही लाभकारी है।
इस तृतीय ध्रुव की अनुपस्थिति में, जैसा पहले बताया जा चुका है, नली में तापायनिक धारा तभी प्रवाहित होती है जब धनाग्र ऋणाग्र की अपेक्षा धन विभव पर होता है। इसको पट्टिक धारा कहते हैं। यह पट्टिक वोल्टता के साथ साथ तब तक बढ़ती है जब तक अंतरण आवेश प्रकट नहीं होता। उसके प्रकट हो जाने पर यह स्थिर हो जाती है, अर्थात् पट्टिक धारा पट्टिक वोल्टता के बढने पर नहीं बढ़ती। जब तीसरे ध्रुव को नली के दो ध्रुवों के बीच में लगा दिया जाता है तो वह इस अंतरण आवेश का नियंत्रण करने लग जाता है। इस कारण ग्रिड को अंतरण-आवेश-नियंत्रक कह सकते हैं। यदि ग्रिड विभव ऋणाग्र विभव से कम रहता है तो ग्रिड इलेक्ट्रानों को पीछे की ओर फेंक देती है और पट्टिक धारा कम हो जाती है। यदि ग्रिड विभव ऋणाग्र विभव से अधिक रहता है तो पट्टिक धारा बढ़ जाती है। फिर, पट्टिक धारा में ग्रिड धारा अथवा ग्रिड वोल्टता के साथ का परिवर्तन एक अन्य लाभकारी गुण है। ग्रिड धारा अथवा ग्रिड वोल्टता में थोड़ा ही परिवर्तन पट्टिक धारा में पर्याप्त परिवर्तन ला सकता है। इस युक्ति का उपयोग प्रवर्धकों में करते हैं।
पट्टिक धारा तीन स्वंतत्र चरों (इंडिपेंडेंट वेरियेबुल्स) पर निर्भर रहती है। वे हैं पट्टिक वोल्टता, ग्रिड वोल्टता तथा ऋणाग्र को गरम करने के लिए प्रयुक्त वोल्टता। जब उष्मा वोल्टता को इतना अधिक बढ़ा दिया जाता है कि पर्याप्त उत्सर्जन होने लगे, तो धारा केवल अंतरण आवेश के नियंत्रित होती है। तब पट्टिक वोल्टता केवल दो स्वतंत्र चरों का फलन (फ़ंकशन) रह जाती है। वे हैं प्लेट वोल्टता और ग्रिड वोल्टता। इस फलन को एक समतल में किसी वक्र से प्रदर्शित नहीं कर सकते। यह त्रि-आयमिक (थ्री-डाइमेंशनल) सतह में ही प्रदर्शित किया जा सकता है। यद्यपि इस प्रकार की वक्र रेखा से विशेष सूचना प्राप्त की जा सकती है, तो भी इसको प्रदर्शित करने में बहुत असुविधा है। इस कारण इसको तीन प्रकार की वक्र रेखाओं द्वारा प्रदर्शित किया जाता है जिन्हें स्थिर लाक्षणिक (स्टैटिककैरेक्टरिस्टिक्स) कहते हैं। क) हैं।
त्रिध्रुवी के उपयोग
जैसा बताया जा चुका है, त्रिध्रुवी का मुख्य उपयोग प्रवर्धकों में होता है। इसका प्रयोग दोलक, ऋजुकारी, परिचायक तथा मूर्छक (माडयुलेटर) के रूपों में भी किया जाता है।
चतुर्ध्रुवी (टेट्रोड)
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उच्च आवृत्ति-प्रवर्धन-क्रिया में त्रिध्रुवी के प्रयोग से यह हानि होती है कि पट्टिक और ग्रिड के बीच के मध्यध्रुवी (इंटर इलेक्ट्रोड) धारित्र (कपैसिटेंस) के कारण दोनों के परिपथ युग्मित हो जाते हैं। इस कारण उच्च आवृत्ति पर त्रिध्रुवी का कार्य अस्थिर हो जाता है। इस युग्मन के कारण वाल्व दोलन उत्पन्न करने लगता है, जिससे बेसुरी ध्वनि आने लगती हैं। इस विघ्नकारी अंश को चतुर्ध्रुवी में धनाग्र और ग्रिड के बीच में एक और ग्रिड लगाकर दूर किया जाता है। इस ग्रिड को धन विभव पर रखते हैं। यह विभव पट्टिक के विभव से कम होता है। इस ग्रिड की उपस्थिति में धनाग्र परिपथ तथा ग्रिड परिपथ युग्मित नहीं होते और दोलन नहीं उत्पन्न होता। इस ग्रिड को आवरण ग्रिड (स्क्रीन ग्रिड) कहते हैं।
आवरण ग्रिड की उपस्थिति से एक और लाभ होता है। त्रिध्रुवी की अपेक्षा धनाग्र इलेक्ट्रान बहाव के नियत्रंण में कम सुचेतन होता है, क्योंकि आवरण ग्रिड धनाग्र की अपेक्षा ऋणाग्र के अधिक पास होने के कारण अधिक प्रभावशाली होता है। इससे प्रवर्धन बढ़ जाता है।
चतुर्ध्रुवी में त्रिधुवी के समान ही नियंत्रण ग्रिड (कंट्रोल ग्रिड) और ऋणाग्र स्थापित होते हैं। इसलिए दोनों ही नलियों में ग्रिड-पट्टिक चालकता प्राय: समान होती हैं परंतु चतुर्ध्रुवी में पट्टिक प्रतिरोध र्त्रिध्रुवी की अपेक्षा पर्याप्त अधिक होता है। इसका कारण, जैसा ऊपर लिखा जा चुका है, पट्टिक वोल्टता पर पट्टिक धारा का न्यूनतम प्रभाव है।
पंचध्रुवी (पेंटोड)
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चतुर्ध्रुवी के उपयोग में एक दोष है। यह है पट्टिक का गौण उत्सर्जन। पट्टिक से जब अत्यंत वेगगामी तापायनिक इलेक्ट्रान टकराते हैं तो पट्टिक से गौण उत्सर्जन होने लगता है।
पट्टिक से गौण इलेक्ट्रानों के उत्सर्जन द्वारा और उनके आवरण की ओर आकर्षित हो जाने के कारण धनाग्र लाक्षणिक में एक ऐंठन आ जाती है। इस ऐंठन के कारण नली में विकृति तथा अस्थिरता आ जाती है। इसको दूर करने के लिए एक तृतीय ग्रिड, आवरण ग्रिड तथा धनाग्र के बीच में, लगा देते हैं। इस ग्रिड को दमनकारी ग्रिड (सप्रेसर ग्रिड) कहते हैं तथा इस नली को, जिसमें पाँच ध्रव होते हैं, पंचध्रुवी कहते हैं। दमनकारी ग्रिड ऋणाग्र से प्राय: अंत:संबंधित रहता है। इसका कार्य गौण उत्सर्जन इलेक्ट्रान को दबाना है। मुख्य इलेक्ट्रान धारा पर दमनकारी ग्रिड की उपस्थिति का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। यह केवल गौण उत्सर्जन का अवरोध करता है।
पंचध्रुवी का उपयोग अधिकतर उच्च आवृत्ति पर विकृतिरहित प्रवर्धन में होता है। इस नली ने प्राय: रेडियो-आवृत्ति-विभव-प्रवर्धक में चतुर्ध्रुवी के उपयोग को विस्थापित कर दिया है। इसका कारण यह है कि पंचध्रुवी के उपयोग से मध्यम-पट्टिक-विभव पर उच्च विभवप्रवर्धन होता है।
पंचध्रुवी तथा चतुर्ध्रुवी में कभी-कभी नियंत्रक ग्रिड को एक विशेष अभिप्राय से एक समान नहीं बनाते। दोनों सिरों पर ग्रिड तारों के अंतराल को कम कर देते हैं। इस प्रकार की नली बहुत सी नलियों के समांतर समूह के रूप में कार्य करती है और इन नलियों के भिन्न भिन्न प्रवर्धन-गुणनखंड होते हैं। जैसे ही ग्रिड वोल्टता को ऋणात्मक कर देते हैं, वैसे ही ग्रिड के उच्च प्रवर्धनगुणन-खंड के भाग कट जाते हैं और उनमें इलेक्ट्रान धारा नहीं वाहित होती, किंतु अन्य भागों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यदि ग्रिड ऋणात्मक है तो इस भाग से भी इलेकट्रान धारा बह सकती है। इसलिए इलेक्ट्रान धारा प्राय: स्थिर रहती है और प्रवर्धन गुणन खंड में परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार की नली को चर-प्र-नली (वेरियेबुल म्यू ट्यूब) कहते हैं। इसका उपयोग अधिकतर स्वत: चालित उद्घोषतानियंत्रक (आटोमैटिक वॉल्यूम कंट्रोल) के परिपथों में होता है।
पुजंशक्ति नली
चतुर्ध्रुवी तथा पंचध्रुवी बनाने के उपरांत यह बोध हुआ कि आवरण ग्रिड तथा पट्टिक के बीच के अंतरण आवेश (स्पेस चार्ज) का उपयोग गौण उत्सर्जन के बाधक के रूप में किया जा सकता है। पुजंशक्ति नली में अंतरण आवेश का उपयोग इसीलिए करते हैं।
हेलिकल नियंत्रक ग्रिड तथा आवरण ग्रिड के तारत्व को समान रखा जाता है और उनके तारों को इस प्रकार लगाया जाता है कि उन इलक्ट्रानों को एक बेलनाकार सतह में एकत्र कर दें जो पट्टिक तथा आवरण ग्रिड के बीच में हों। इस कारण यह बेलनाकार सतह ऋणाग्र के विभव पर होती है और पट्टिक से उत्सर्जित इलेक्ट्रानों को पीछे की ओर फेंक देती है। इस प्रकार यह गौण उत्सर्जन को रोकने में सफल होती है। कभी कभी कुछ विशेष पुंजशक्ति नलियों में एक ओर दमनकारी ग्रिड लगा देते हैं, परंतु अतंरण आवेश द्वारा बनाई गई बेलनाकार सतह गौण उत्सर्जन को रोकने में विशेष प्रभावशाली होती है।
पुंजशक्ति नली का पट्टिक लाक्षणिक में यह विशेषता है कि वह अधिक तीक्ष्णता से मुड़ती है। इस कारण पुंजशक्ति नली एक पंचध्रुवी से उत्तम है। वक्ररेखा का मोड़ बहुत ही तीक्ष्ण हैं और इसके पश्चात् वह प्राय: सीधी है। वक्ररेखा का क्षैतिज भाग पट्टिक वोल्टता के परिवर्तन के यथेष्ट भाग के साथ है। इस कारण इस नली का उपयोग करने से अधिक शक्ति मिलती है। तारों को इस विशेष प्रकार से लगाने के कारण पुंजशक्ति नलियों में पंचध्रुवी की अपेक्षा आवरण-ग्रिड-धारा पट्टिक धारा से कम होती है।
अन्य बहुध्रुवी इलेक्ट्रान-नलियाँ
द्विध्रुवी, त्रिध्रुवी, चतुर्ध्रुवी तथा पंचध्रुवी के विभिन्न मेल जब एकही कक्ष में बनाए जाते हैं तो उन्हें बहु-इकाई-नली कहते हैं। इस प्रकार की बहुध्रुवी अथवा बहुइकाई-नलियों के लाक्षणिक उन लाक्षणिकों से बहुत भिन्न नहीं हैं जिनका अध्ययन अभी किया गया है। तथापि ऐसी भी बहुध्रुवी नलियाँ हैं जिनमें केवल एक ही ऋणाग्र तथा केवल एक ही धनाग्र रहता है, परंतु ग्रिड तीन से अधिक रहते हैं। ऐसी नलियों में दो नियंत्रक ग्रिड होते हैं और पट्टिक धारा का नियंत्रण दोनों ही वोल्टता के मेल से होता है। दूसरे ग्रिडों का कार्य या तो आवरण का होता है या पट्टिक से गौण उत्सर्जन को दबाने का होता है, जैसा चतुर्ध्रुवी तथा पंचध्रुवी में होता है। कभी कभी एक ग्रिड का कार्य, जो धन विभव पर रहता है, सहायक पट्टिक के रूप में होता है। इस पट्टिक की धारा किसी एक नियंत्रक ग्रिड की वोल्टता पर निर्भर रहती है।
यदि इस प्रकार की नली में दो नियंत्रक ग्रिड हों और दोनों की ही वोल्टताएँ बदलती हों तो पट्टिक धारा का परिवर्तन दोनों ग्रिडों की वोल्टता के परिवर्तन के उभयनिष्ठ गुणनखंड के समानुपात में होता है। इस गुणनक्रिया ने इस प्रकार की नलियों को उन परिपथों में उपयोगी बना दिया है जहाँ विशेष प्रकार के मूर्छक की आवश्यकता होती है।
बहुध्रुवी इलेक्ट्रान नलियों का मुख्य उपयोग आवृत्तिपरिवर्तन में होता है, अर्थात एक आवृत्ति की वोल्टता को दूसरी आवृत्ति की वोल्टता में परिवर्तन करने में। इसका उदाहरण एक पंचग्रिड मिश्रक (पेंटा-ग्रिड मिक्सर) है।
इसके अतिरिक्त बहुध्रुवी नलियों का उपयोग विशेषतया स्वत: चालित उद्घोषतानियंत्रण तथा उद्दघोषताप्रसारक (वॉल्यूम एक्सपैंडर) में किया जा रहा है जिसमें एक नियंत्रक ग्रिड में लगाई वोल्टता का नियंत्रण दूसरे नियंत्रक ग्रिड में लगाई गई वोल्टता के द्वारा होता है।
इन्हें भी देखें
- गैस नली
- तापायनिक उत्सर्जन
- निर्वात नली डायोड (वैक्युम ट्यूब डायोड)
- मैग्नेट्रॉन
- क्लाइस्ट्रॉन
- प्रगामी तरंग नलिका
बाहरी कड़ियाँ
- https://web.archive.org/web/20101007201649/http://pentalabs.com/tubeworks.html – The history of vacuum tubes
- https://web.archive.org/web/20120222125934/http://www.cfp-radio.com/realisations/rea03/rea03.html – (FR) How to build a vacuum tube tester.
- The Thermionic Detector – HJ van der Bijl (October 1919)
- How vacuum tubes really work – Thermionic emission and vacuum tube theory, using introductory college-level mathematics.
- The Vacuum Tube FAQ – FAQ from rec.audio
- The invention of the thermionic valve. Fleming discovers the thermionic (or oscillation) valve, or 'diode'.
- Tubes Vs. Transistors : Is There An Audible Difference? – 1972 AES paper on audible differences in sound quality between vacuum tubes and transistors.
- The Virtual Valve Museum
- The cathode ray tube site
- O'Neill's Electronic museum – vacuum tube museum
- Vacuum tubes for beginners – Japanese Version
- NJ7P Tube Database – Data manual for tubes used in North America.
- Vacuum tube data sheet locator
- Characteristics and datasheets
- Video of amateur radio operator making his own vacuum tube triodes
- Tuning eye tubes.
- Archive film of Mullard factory Blackburn