निकोलाई गोगोल

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निकोलाई गोगोल
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1845 में 'सेर्गे ल्योविच लेवित्सकी' द्वारा लिया गया गोगोल का चित्र
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मृत्यु स्थान/समाधिसाँचा:br separated entries
व्यवसायनाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार
भाषारूसी भाषा
राष्ट्रीयतारूसी
अवधि/काल1840–51

हस्ताक्षर

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निकोलाई गोगोल (पूरा नाम- निकोलाई वसील्येविच गोगोल, अन्य उच्चारण- निकोलाय गोगल, निकोलाई वसीलिविच गोगल; २० मार्च, १८०९- २१ फरवरी, १८५२ ई०) यूक्रेन मूल के रूसी साहित्यकार थे जिन्होंने कहानी, लघु उपन्यास एवं नाटक आदि विधाओं में युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप प्रभूत लेखन किया है।

गोगोल रूसी साहित्य में प्रगतिशील विचारधारा के आरंभिक प्रयोगकर्ताओं में प्रमुख थे व उनकी साहित्यिक प्राथमिकता जनोन्मुखता का पर्याय थी। आरंभिक लेखन में प्रेम-प्रसंग तत्त्व के आधिक्य होने पर भी बहुत जल्दी गोगोल सामाजिक जीवन का व्यापकता तथा गहराई से बहुआयामी चित्रण की ओर केंद्रित होते गये। मीरगोरोद में संकलित कहानियाँ इस तथ्य का जीवंत साक्ष्य हैं। पीटर्सबर्ग की कहानियाँ में संकलित रचनाओं में भी विसंगतियों एवं विडंबनाओं का मार्मिक चित्रण हास्य एवं सूक्ष्म व्यंग्य के माध्यम से अद्भुत है; और इनकी बड़ी विशेषता सामान्य जन के साथ-साथ साहित्यकारों की एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित करना भी है। कहानियों के साथ-साथ नाटकों के माध्यम से गोगोल का मुख्य प्रकार्य युगीन आवश्यकताओं को इस प्रकार साहित्य में ढालना रहा है जिससे जन-सामान्य की स्थिति में परिवर्तनकारी भूमिका निभाने के साथ-साथ वस्तुतः साहित्य की 'साहित्यिकता' भी सुरक्षित रहे, और इसमें आलोचकों ने उसे सफल माना है।

जीवन-परिचय

निकोलाई गोगोल का जन्म यूक्रेन के एक जमींदार परिवार में २० मार्च, १८०९ ई०[२] (नये कैलेंडर के अनुसार १ अप्रैल, १८०९ ई०)[१] को हुआ था। उनके पिता भी उत्तम शिक्षा प्राप्त व्यक्ति थे तथा कविताएँ एवं हास्य भी लिखते थे। इसके अतिरिक्त वे रंगमंच पर अभिनय भी किया करते थे। अपने पिता के इन गुणों के कारण गोगोल को बचपन से साहित्य के साथ-साथ रंगमंच के प्रति भी अभिरुचि जग गयी। जिमनेजियम में शिक्षा प्राप्त करते हुए गोगोल रंगमंच पर अभिनय भी किया करते थे। गोगोल की शिक्षा के समय गुप्त रूप से अभिजात वर्ग के बीच प्रगतिशील स्वच्छंदतावादी विचारों का उदय एवं प्रसार भी आरंभ हो चुका था। जिमनेजियम में प्रगतिशील शिक्षकों का भी एक दल था जिसका नेतृत्व बेलाऊसोव करते थे। १८२०ई० में ज़ार सरकार के द्वारा इन पर अभियोग लगाया गया तथा इसी सम्बन्ध में विद्यार्थी भी बुलाये गये। इस समय गोगोल ने बेलाऊसोव के पक्ष में बयान दिया था। बेलाऊसोव के व्याख्यानों के अतिरिक्त पुश्किन, रील्येव तथा अन्य प्रगतिवादियों की रचनाओं ने भी गोगोल के प्रगतिशील दृष्टिकोण के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। १८२८ ई० में जिमनेजियम की शिक्षा समाप्त कर गोगोल पीटर्सबर्ग चले गये। पीटर्सबर्ग जाते हुए गोगोल अपना रोमांटिक काव्य मास क्युखेल गार्तन भी छिपा कर ले गये थे। वे अपनी इस रचना पर पुश्किन की सम्मति चाहते थे, परंतु यह संभव नहीं हो सका व इस कृति के छपने पर इसकी कड़ी आलोचना हुई और परिणाम स्वरूप गोगोल ने उसकी सारी प्रतियां जला डालीं। पीटर्सबर्ग में आरंभ में वे असफल ही रहे। अलेक्सांद्र थिएटर में अभिनेता बनने की उनकी अभिलाषा भी पूरी नहीं हुई एवं बड़ी कठिनाई से उन्हें एक विभाग में छोटे कर्मचारी की नौकरी मिली। वहाँ काम करते हुए वह शाम को कला अकादेमी में जाया करते थे और चित्रकला सीखते थे।

रचनात्मक परिचय

१८३० ई० में गोगोल की पहली कहानी इवान कुपाल से पहले की शाम बिना लेखकीय नाम के ही छपी। कुछ समय उपरांत उन्होंने नौकरी छोड़कर पूरा ध्यान साहित्यिक क्रियाकलापों में ही लगाना आरंभ किया। २० मई १८३१ को गोगोल का परिचय पुश्किन से हो पाया।[३]

दिकान्का के पास ग्रामीण संध्याएँ

१८३१ ई० में गोगोल के कहानी संग्रह दिकान्का के पास ग्रामीण संध्याएँ का पहला भाग प्रकाशित हुआ तथा १८३२ ई० में इसका दूसरा भाग निकला। इस रचना का पाठकों के साथ-साथ आलोचकों ने भी हार्दिक स्वागत किया। इस संग्रह में मई की रात, भयानक बदला जैसी कहानियाँ भी संकलित थीं, जो काफी प्रसिद्ध हुईं। इस संग्रह में संकलित कहानियों में गोगोल ने हास्यपूर्ण सूक्ष्म व्यंग्य के माध्यम से यूक्रेन की युवा पीढ़ी के विभिन्न पक्षों को रूपांकित किया है। गोगोल का मुख्य ध्येय व्यंग्य के माध्यम से युवा पीढ़ी की दुर्बलताओं एवं विसंगतियों को उजागर करते हुए उन्हें दूर करने का संदेश देना रहा है। इन कहानियों में यथार्थ एवं कल्पना का मणिकांचन योग है, तथा इसकी सबसे बड़ी विशेषता जनोन्मुखता है। इन रचनाओं में जनता की आत्मा, उसका मानसिक पक्ष, उसका चरित्र तथा उसके जीवन का काव्यत्व सब कुछ सुरक्षित है।[४]

मीरगोरोद (मीर गोरद)

१८३५ ई० में गोगोल का नया कहानी संग्रह मीरगोरोद प्रकाशित हुआ। इसमें अगले वक्तों के जमींदार, तारास बुल्बा, इवान इवानोविच का इवान निकीफरोविच से झगड़ा जैसी प्रसिद्ध लंबी कहानियाँ भी संकलित थीं। इन कहानियों में जीवन का चित्रण अधिक व्यापक तथा गहरा है और इनमें प्रेमभाव लोककथात्मकता कम है। गोगोल ने इन रचनाओं में जमींदारों के मानवीय एवं पारस्परिक प्रेमपूर्ण चरित्र तथा अंदरूनी जीवन की विडंबनाओं एवं खोखलेपन -- दोनों पक्षों का सशक्त चित्रण किया है। तारास बुल्बा नामक लंबी कहानी में जमींदारों के संकीर्ण जीवन के प्रतिपक्ष में जनजीवन का चित्रण करते हुए स्वतंत्र कज्जाकों के साहसपूर्ण अतीत का दृश्य सामने रखा गया है। कथा के केंद्र में अपने देश के लिए लड़ने वाला तारास बुल्बा है जो अपने देशद्रोही पुत्र को भी मृत्युदंड देने में संकोच नहीं करता है। यह कथा जनजीवन का लोकप्रबंध है।[५] इन रचनाओं के लिए रूसी समालोचक बेलिंस्की ने गोगोल को साहित्य के नेता, कवियों के नेता का अभिधान दिया था।[६]

पीटर्सबर्ग की कहानियाँ

१८३५ ई० में गोगोल का नवीन कहानी संग्रह अरावेस्की (पच्चीकारी) प्रकाशित हुआ, जिसमें नेवस्की प्रास्पेक्त (नेवस्की सड़क), तस्वीर, पागल की टिप्पणियाँ जैसी कहानियाँ संकलित थीं। बाद में लिखी गयी नाक तथा ओवरकोट जैसी कहानियों को मिलाकर इन सब कहानियों को पीटर्सबर्ग की कहानियाँ के नाम से अभिहित किया गया। इन कहानियों में गोगोल की लोकदृष्टि काफी व्यापक रही है। राजधानी का जीवन, स्वप्नदर्शी कलाकार का जीवन, गरीब कर्मचारी का जीवन आदि के रूप में गोगोल ने जनजीवन का बहुआयामी तथा मार्मिक चित्रण किया। इन रचनाओं में हास्य एवं सूक्ष्म व्यंग्य के माध्यम से जीवन की विसंगतियों एवं विडंबनाओं का मार्मिक चित्रण अद्भुत है। हँसी के वातावरण में मारक चोट के माध्यम से स्वतः उद्भूत समाधान के संकेत गोगोल की कला को विशिष्ट बनाते हैं। इन्हीं कारणों से बेलिंस्की ने गोगोल के व्यंग्य को 'आँसुओं के बीच हँसी' कहा है।[७]

गोगोल का ओवरकोट कितना लोकप्रिय हुआ था तथा बाद के साहित्यकारों पर उसका कैसा प्रभाव पड़ा था यह जानने के लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा कि रूस में तुर्गनेब के दौर के तमाम कथाकार कहते थे कि हम गोगोल के ओवरकोट से निकले हैं।[८]

सन् 1835-36 में गोगोल और पुश्किन के बीच घनिष्ठता बढ़ी। पुश्किन द्वारा प्रकाशित पत्र 'समकालीन' में गोगोल सहयोग देने लगा। अपनी सुप्रसिद्ध रचनाओं 'द गवर्नमेंट इंस्पेक्टर' (आला अफ़सर) तथा 'द डेड सोल्स' (मृत आत्माएँ) की विषयवस्तु गोगोल को पुश्किन से ही प्राप्त हुई थी।

द गवर्नमेंट इंस्पेक्टर (आला अफ़सर)

'इंस्पेक्टर' के बारे में गोगोल ने स्वयं स्वीकार किया है कि उसमें मैंने रूस की सारी बुराइयों को, जिनसे कि मैं अवगत हूं, एक जगह एकत्रित करने का निश्चय किया है, तथा उन सारे अन्यायों को, जो कि उन जगहों और स्थितियों में कये जाते हैं, जहाँ मनुष्य से सबसे अधिक न्याय की मांग की जाती है, और इन सब पर एक साथ हँसने का निश्चय किया है।[९]

इस कॉमेडी के अभिनय से प्रगतिशील विचारधारा के लोग तो बड़े प्रसन्न हुए, परंतु प्रतिक्रियावादी काफी नाराज हुए और इसे कर्मचारियों पर अनर्गल आक्षेप बताकर इस नाटक को जब्त करने की मांग करने लगे। इन बातों से गोगोल काफी परेशान हुआ तथा उसका स्वास्थ्य भी खराब हो गया। ऐसे में कुछ चैन पाने एवं 'मृत आत्माएँ' के लेखन में ध्यान दे पाने के लिए गोगोल 1836 ई० में विदेश-यात्रा पर चला गया। कुछ समय तक पेरिस में रहने के बाद वह रोम में बस गया था और प्रकाशन-कार्य हेतु ही कभी-कभी रूस आता था।

मृत आत्माएँ

सन् 1841 में मृत आत्माएँ का प्रथम भाग पूर्ण हुआ। काफी कठिनाई के बाद इसका प्रकाशन हो पाया। इस रचना ने गोगोल को अमर कर दिया। व्यंग्य के पुट के बावजूद इस गंभीर उपन्यास में गोगोल ने समग्रता में रूस का जीवन चित्रित किया तथा तत्कालीन युग की समस्त त्रुटियों एवं बुराइयों का अत्यंत व्यापक एवं गंभीर चित्रण किया। तत्कालीन युग के रूसी जीवन का नग्न चित्र प्रस्तुत करने के कारण गेरन्सन ने मृत आत्माएँ को त्रास और शर्म की चीख कहा[१०] तथा बेलिंस्की ने उसे उस युग का सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक कृति माना।[११]

अन्य रचनाएँ

पूर्ववर्णित रचनाओं के अतिरिक्त मानिलोय, करोवोचका (डिबिया), 'नज्द्रेव', 'सवाकेविच' (कुत्ते का पिल्ला), 'प्ल्यूश्किन', चिचिकोव' आदि के रूप में भी गोगोल ने अपनी रचनात्मक सामर्थ्य का परिचय दिया है। अपनी रचनाओं के माध्यम से गोगोल ने रूसी साहित्य में आलोचनात्मक यथार्थवाद' की नींव डाली।[११] गोगोल की रचनाएँ विश्व की अनेक भाषाओं में, जिनमें हिन्दी भी सम्मिलित है, अनूदित हुई हैं।

सन्दर्भ

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  2. हिंदी विश्वकोश, भाग-4, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण-2003, पृ०-17.
  3. रूसी साहित्य का इतिहास; केसरी नारायण शुक्ल; हिंदी समिति, सूचना विभाग, लखनऊ, उत्तर प्रदेश; संस्करण-1963, पृष्ठ-60.
  4. रूसी साहित्य का इतिहास, पूर्ववत्, पृ०-60.
  5. रूसी साहित्य का इतिहास, पूर्ववत्, पृ०-61.
  6. हिंदी विश्वकोश, भाग-4, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण-2003, पृ०-17.
  7. रूसी साहित्य का इतिहास, पूर्ववत्, पृ०-62.
  8. पाखी, अक्टूबर,2010 (नामवर सिंह पर केंद्रित), संपादक- प्रेम भारद्वाज, पृ०-30.
  9. रूसी साहित्य का इतिहास, पूर्ववत्, पृ०-63.
  10. रूसी साहित्य का इतिहास, पूर्ववत्, पृ०-65.
  11. हिंदी विश्वकोश, पूर्ववत्, पृ०-17.

बाहरी कड़ियाँ

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