नागर

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नागर ब्रहामण

नागर या नागर ब्राह्मण भारतीय मूल के धर्मो में वर्ण व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मणो की एक जाति है। नागरो को पश्चिम भारत के ब्राह्मणो में सब से श्रेष्ठ माना जाता है। भारत में गुजरात, काश्मीर, मध्यप्रदेश इत्यादि राज्यो में नागर समुदाय की बस्ती ज्यादा है। ज्यादातर नागर समुदाय के लोग कलम, कड़छी (पाक कला) में निपुण होते है और दशोत्तरा(दशोरा) युध्द कौशल में भी। एसा माना जाता है। नागरो के बारे में वेद व्यास द्वारा लिखित स्कन्दपुराण के नागरखंड में प्राचीन उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार भगवान शिव ने उमा से विवाह के लिए नागरों को उत्पन्न किया थाे तथा इसके पश्चात प्रसन्न होकर उत्सव मनाने के लिए इन्हें हाटकेश्वर नाम का स्थान वरदान के रूप में दिया था। वर्तमान में ये नट जाति के नाम से उत्तर प्रदेश में निवास कर रहे हैं। नागर ब्राह्मण के मूल स्थान के आधार पर ही उन्हें जाना जाने लगा जैसे वडनगर के वडनगरा ब्राह्मण विसनगर के विसनगरा, प्रशनिपुर के प्रशनोरा (राजस्थान,) जो अब भावनगर तथा गुजरात के अन्य प्रान्तों में बस गए, क्रशनोर के क्रशनोरा , तथा दशोपुर (मन्दसौर) और शतपद के शठोदरा(साठोत्तरा) आदि सात प्रकार के नामो से नागर ब्राह्मणो को जाना जाता है।

एक कथा के अनुसार एक ब्राह्मण पुत्र क्रथ एक बार घूमते- घूमते नागलोक के नागतीर्थ में पहुँच गया। वहां उसका मुकाबला नाग लोक के राजकुमार रुदाल से हो गया, इसमें नाग कुमार मारा गया। इससे नाग राज को क्रोध आ गया और उसने पुत्र की हत्या करने वाले कुल का समूल नाश करने की प्रतिज्ञा कर ली। उसने गाँव पर चढ़ाई कर दी जो आज वडनगर के नाम से जाना जाता है, वहीँ ब्राह्मण कुमार क्रथ अपने परिवार तथा अन्य कुटुंब के साथ रहता था। इसमें बहुत सारे ब्राह्मण परिवार मारे गए और बचे हुए लोगों ने भाग कर एक संत मुनि त्रिजट के पास शरण ली।त्रिजट ने उन्हें भगवान शिव की आराधना करने को कहा। बाह्मणों ने पूरे मन और भक्ति भाव से भगवान शिव की तपस्या की। भगवान शिव प्रसन्न हो गए पर चूंकि नाग भी शिव के भक्त थे अतः शिव ने नागों का अहित करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की परन्तु ब्राह्मणों को सर्पों के विष से बचने की शक्ति प्रदान कर दी। ब्राह्मण अपने गाँव को लौट गए और तब से इन्हें ना-गर (जिस पर अगर अर्थात विष का प्रभाव ना पड़ता हो) कहा जाने लगा।

दूसरी कथा दशोरा नागर से जुड़ी है।इसमें दशोरा नागर वस्तुतः उसी ओरिजिन के रहे है जिसके द्रोणाचार्य रहे।और द्रुपद के आधे राज्य जिसे अर्जुन ने द्रोण को गुरु दक्षिणा में दिया था , उस राज्य के एक छोटे से हिस्सेका शासन अश्वथामा ने अपने दशोरा या दसोत्तरा ब्राह्मणों को सम्हालने के लिए दिया।दशोरा नगरों ने विद्यादान और दक्षिणा जीविका न चुन शास्त्र और शस्त्र को चुना।और दशोपुर (वर्तमान मन्दसौर) में राज किया। ये राज्य कालांतर में गुप्त सम्राज्य के अधीन हो गया।मध्यकाल में इब्राहिम लोदी से युद्ध में समस्त दशोरा मारे गए।सिर्फ सात दशोरा जो काशी में विद्याध्यन कर रहे थे।उनके विवाहः गुरुकुल कन्याओं जो सनआध्येय(सनाअड्डे) ब्राम्हण कन्याओं से हुए। जो कालांतर में मन्दसौर, उदयपुर, जयपुर में बसे।

नागर समुदाय सारे ब्राह्मणों में सबसे अधिक श्रद्धेय तथा पवित्र भी माने जाते हैं क्योकि वे अपने ह्रदय में कोई बुराई (विष) उत्पन्न नहीं होने देते हैं।

हाटकेश्वर मन्दिर - .......गुजरात के पुरा ग्रंथो में उल्लेख मिलता है कि वडनगर (चमत्कारपूर) की भूमि राजा द्वारा आभार -चिह्न के रूप में नागरो को भेंट किया था। राजा को एक हिरन को मारकर स्वयम व् अपने पुत्रो को खिलने कर्ण गल्य्त्व मुनि द्वारा एक अभिशाप के कारण जो श्वेत कुश्त हो गया राजा ने नागर सभा से करुना की याचना की, कृनाव्र्ट धरी नागर ने राजा के कष्टों का जड़ी बूटियों और प्राकृतिक दवाओं ...के अपने ज्ञान की मदद से इलाज किया गया। राजा चमत्कारपूर (देश जहाँ वडनगर स्थित है) देश नागरो को दान में देना चाह, परन्तु अपनी करुना का मूल्य न लगाने के कारण राजा का इनाम स्वीकार नहीं किया ! नागर ब्राह्मण के 72 परिवार उच्च सिद्धांतों, के थे जिन्होंने दान स्वीकार नहीं किया राजा चमत्कार की रानी से अनुनय के बाद छह परिवारों ने उपहार स्वीकार कर लिया, परन्तु 66 परिवार जिन्होंने रजा का उपहार स्वीकार नहीं किया अपना देश त्याग चले गए और उनके वंशज साठ गाडियों में अपना कुनबा लेकर चले थे इसीसे सठोत्रा गोत्र के कहलाये ! आज भी वे अपने त्याग ओर आदर्शो के कारण श्रद्धेय हैं। ! एक अन्य किवदन्...ती जो की नागर समाज के तीर्थ पुरोहितो की पोथी के अनुसार यह है कि गुजरात के तत्कालीन नवाब नासिर-उद-दीन (महमूद शाह) ई.स. 1537- 1554 के लगभग धर्म परिवर्तन, मुस्लिम वंश में कन्या देना एवं जागीर और सरकारी कामकाज में गैर मुस्लिमों की बेदखली से क्षुब्ध हो गुजरात छोड़ कर मालवा और राजस्थान की और पलायन किया,

साठ बैलगाड़ी में अपना सब कुछ वही छोड़ रात ही रात एकसाथ पलायन करने से साठोत्रा कहलाये ! कहते है यात्रा में एक दिन जिस स्थान से मालवा और राजस्थान के दोराहे पर कन्थाल और कालीसिंध के तट पर जिस बैलगाड़ी में अपने साथ अपने इष्ट व् कुलदेव भगवान हाटकेश्वर का चलायमान शिवलिंग स्वरूप (जिसे वडनगर के प्राचीन व् स्वयम्भू हाटकेश्वर मंदिर में उत्सव एवं शोभायात्राओ में नगर में निकला जाता था) को रात्रि विश्राम के बाद प्रात: सभी चलने को उद्यत हुए तो जिस बैलगाड़ी में भगवान हाटकेश्वर मुर्तिस्वरूप विराजमान थे बहुत कोशिश के बाद भी आगे नहीं चला पाए, प्रभु की इच्छा जान सभी नागर जन वही अपने इष्ट देव की पूजन करने लगे! संयोगवश उसी रात महाराणा उदयसिंग को स्वप्न में भगवान हाटकेश्वर के दर्शन हुए और आज्ञा दी की तुम्हारे राज्य की सीमा पर मेरे प्रिय जन भूखे है जाकर उन ब्रहामणों को अन्न आदि दो, महाराणा ने तुरंत अपने स्थानीय प्रतिनिधि को सूचित किया, जब महाराणा उदयसिंग के प्रतिनिधी ने अपने दूतो को आज्ञा दी ओर उन्होंने नागर जनों को भोजन अन्न व् गाये देना चाहा तो उन सभी ने कहा जब तक हमारे इष्ट देव को स्थापित नहीं कर देते तब तक अन्न नहीं लेंगे, जब महाराणा उदयसिंग को पता लगा तो उन्होंने सभी नागर को राजभटट की उपाधी दी!तथा राजपुरोहित को भेज कर सोयत कलां में शिवलिंग स्थापित करवाकर गो, भूमि और भोजन आदि की व्यवस्था की ! प्रति वर्ष हाटकेश्वर जयंती पर इसी स्थान पर सभी एकत्र होकर परस्पर मिलेंगे ऐसा विमर्श कर तथा यहाँ मन्दिर स्थान पर एक स्वजन को पूजन में नियुक्त कर, यही से सभी नागर जन अपनी अपनी आजीविका की तलाश में आगे बढ़े, आज उन्ही पुण्य श्लोक पूर्वजो और अपने इष्ट व् कुलदेव भगवान हाटकेश्वर की कृपा से आज हम सब पूर्णत:कुशल मंगल है! भगवान् हाटकेश्वर सदा अपनी करूणा कृपा हम सब पर बनाये रखें