नव-उपनिवेशवाद
विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों के आन्तरिक मामलों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किये जाने वाले हस्तक्षेप को नव-उपनिवेशवाद (Neocolonialism) कहा जाता है। नवउपनिवेशवाद की धारणा के मानने वालों का सोचना है कि पूर्व में उपनिवेशी शक्तियों ने जो आर्थिक ढांचा बना रखा था उनका अब भी उन उपनिवेशों पर नियन्त्रण करने में इस्तेमाल किया जा रहा है।
यूरोप के देशों ने एक लम्बे समय तक एशिया और अफ्रीका के देशों पर अपना साम्राज्यवादी जाल फेंकर उनका राजनीतिक व आर्थिक शोषण किया लेकिन उन देशों में उभरने वाले स्वतन्त्रता आन्दोलनों ने साम्राज्यवादी देशों के मनसूबों पर पानी फेर दिया। धीरे-धीरे एशिया और अफ्रीका के देश एक-एक करके साम्राज्यवादी चुंगल से मुक्ति पाने लगे। जब साम्राज्यवादी शक्तियों को अपने दिन लदते नजर आए तो उन्होंने औपनिवेशिक शोषण के नए नए तरीके तलाशने शुरू कर दिए। उन्होंने इस प्रक्रिया में उन देशों पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए आर्थिक साम्राज्यवाद का सहारा लिया। स्वतन्त्र होने के बाद नवोदित राष्ट्र इस स्थिति में नही रहे कि वे अपना स्वतन्त्र आर्थिक विकास कर सकें। उनके आर्थिक विकास में सहायता के नाम पर विकसित साम्राज्यवादी देशों ने डॉलर की कूटनीति (डॉलर डिप्लोमैसी) का प्रयोग करके उनकी अर्थव्यवस्थाओं पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया और धीरे-धीरे वे नए साम्राज्यवाद के जाल में इस कदर फंस गए कि आज तक भी वे विकसित देशों के ही पराधीन हैं। इस व्यवस्था को नव-उपनिवेशवाद के नाम से जाना जाता है।
नव-उपनिवेशवाद का अर्थ
यह एक नई अवधारणा है। इसका प्रयोग नए प्रकार के साम्राज्यवाद के लिए किया जाता है। इसे 'डॉलर साम्राज्यवाद', 'आर्थिक साम्राज्यवाद', 'नया-साम्राज्यवाद' आदि नामों से भी जाना जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अधिकतर पराधीन राष्ट्र राजनीतिक रूप से तो स्वतन्त्र हो गए लेकिन फिर भी अप्रत्यक्ष रूप से किसी न किसी तरह साम्राज्यवाद का शिकार बने रहे। उनकी यह स्थिति आधुनिक साम्राज्यवाद या नव-उपनिवेशवाद कहलाती है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो एक शक्तिशाली विकसित राष्ट्र या अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली राष्ट्र का सम्बन्ध एक आर्थिक या उपग्रह उपनिवेश को दर्शाती है। बहुराष्ट्रीय निगम इसके प्रमुख साधन हैं। इनका उद्देश्य आर्थिक रूप से पराधीन या उपग्रह उपनिवेश का अधिक से अधिक शोषण करके उस पर अपना वर्चस्व बनाए रखना है।
- आर्थिक साम्राज्यवाद या नव-उपनिवेशवाद से तात्पर्य ऐसे नियंत्रण से है जिसमें कोई देश प्रत्यक्ष रूप से साम्राज्यवादी शक्तियों से मुक्त प्रतीत होने पर भी परोक्ष रूप से उनके निर्देशों का पालन करने पर बाध्य होता है।
राष्ट्रपति सुकार्नो ने बाण्डुंग सम्मेलन में 1955 में कहा था कि राष्ट्र के अन्दर छोटे से विदेशी समुदाय द्वारा आर्थिक नियंत्रण, बौद्धिक नियंत्रण तथा वास्तविक भौतिक नियंत्रण के रूप में यह एक नए लिबास में उपनिवेशवाद है। उसका स्पष्ट इशारा बहुराष्ट्रीय निगमों की बढ़ती भूमिका की तरफ था। आज विकसित देश अपना साम्राज्यवादी शिकंजा कसने के लिए इनका सहारा ले रहे हैं। इनके द्वारा निर्धन देशों के कच्चे माल पर नियंत्रण पूंजी निर्यात व आसान विनिमय दरों के नाम पर दीमक की तरह घुसकर किया जा रहा है ताकि वे देश कच्चे माल की पूर्ति तथा तैयार माल की बिक्री का केन्द्र बन जाएं।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि नव-उपनिवेशवाद साम्राज्यवादी नियंत्रण की ऐसी प्रक्रिया है जिसका प्रयोग विकसित राष्ट्र नवोदित अल्प विकसित राष्ट्रों का आर्थिक शोषण करने के लिए करते हैं। ये राष्ट्र राजनीतिक रूप से तो स्वतन्त्र होते हैं, लेकिन आर्थिक सहायता, सैनिक सहायता, शस्त्रों की सहायता, तकनीकी ज्ञान, उत्पादन के क्षेत्र में विकसित देशों के ऊपर ही आश्रित होते हैं। इनकी विकसित देशों पर निर्भरता इतनी अधिक बढ़ जाती है कि ये अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक रूप से भी स्वतन्त्र नहीं रह जाते।
नव-उपनिवेशवाद के प्रकार
आर्गेन्सकी ने उपनिवेशवाद के तीन रूपों - राजनीतिक उपनिवेशवाद, आर्थिक दृष्टि से पराधीन देश तथा पिछलग्गू देश का वर्णन किया है। आधुनिक युग में राजनीतिक दृष्टि से तो सभी देश स्वतन्त्र हो चुके हैं। इसलिए इसका कोई महत्व नहीं रह गया है। वह अन्तिम दो को ही नव-उपनिवेशवाद के अंतर्गत शामिल करता है।
आर्थिक रूप से पराश्रित देश
ये देश राजनीतिक रूप से तो स्वतन्त्र होते हैं लेकिन आर्थिक सहायता के लिए विकसित राष्ट्रों की ओर देखते हैं। इन देशों में आर्थिक पिछड़ापन पाया जाता है। लोगों की निर्धनता व अस्थिर राजनीतिक व्यवस्थाएं इसके सूचक हैं। लोगों की व्यक्तिगत आय व राष्ट्रीय आय नाम मात्र की होती है। एशिया व अफ्रीका के नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्र इस श्रेणी में शामिल हुए। लम्बे समय तक आर्थिक विकास के लिए उन्हें विदेशी सहायता पर निर्भर हुए। उनमें से अधिकतर आज भी आर्थिक रूप से पराधीन राष्ट्रों की श्रेणी में आते हैं। विकसित देशों ने इन देशों में अधिक से अधिक पूंजी लगाकर इनमें अपनी उत्पादन इकाईयां स्थापित कर रखी हैं। कई देशों में तो यह निवेश 80 प्रतिशत तक है। ये देश पराश्रित राष्ट्रों के राजनीतिक जीवन को भी प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। ऐसे देशों को आर्थिक पराश्रित उपनिवेश कहा जाता है। अमेरिका द्वारा पाकिस्तान, थाईलैंड, घाना आदि एशिया व अफ्रीका के देशों में डॉलर साम्राज्यवाद की नीति का प्रसार इस प्रकार के उपनिवेशवाद का ही एक हिस्सा है।
पिछलग्गू देश या उपग्रह उपनिवेश (Satellites)
यह एक ऐसा राष्ट्र होता है जो औपचारिक रूप से तो स्वतन्त्र होता है लेकिन राजनीतिक व आर्थिक दृष्टि से किसी विदेशी शक्ति के अधीन होता है। वे देश स्वतन्त्र विदेश नीति का पालन करने में सक्षम नहीं होते। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अनेक देशों में सोवियत संघ के नियंत्रण वाली साम्यवादी सरकारें स्थापित हुई। वे सभी देश पिछलग्गू देश या उपग्रह उपनिवेश की श्रेणी में आते थे। आज अफगानिस्तान में अमेरिका समर्थित सरकार है। इसलिए अफगानिस्तान अमेरिका का पिछलग्गू देश है। आवश्यकता पड़ने पर पिछलग्गू देशों को अनेक आकाओं द्वारा सैनिक सहायता भी उपलब्ध कराई जाती है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दोनों महाशक्तियों ने अपने पिछलग्गू देशों की हर प्रकार से मदद की थी। आर्थिक रूप से पराश्रित देशों की तुलना में इन उपनिवेशों की स्थिति अधिक खराब होती है।
नव-उपनिवेशवाद को जन्म देने वाले तत्व
द्वितीय विश्वयुद्ध तक पहुंचते-पहुंचते साम्राज्यवादी शक्तियां इतना अधिक कमजोर हो गई कि वे पराधीन राष्ट्रों पर अपना साम्राज्यवादी नियंत्रण बनाए रखने में अयोग्य सिद्ध होने लगे। साथ में पराधीन देशों में निरन्तर उभर रही राजनीतिक चेतना के परिणामस्वरूप उभरे स्वतन्त्रता आन्दोलन ने भी साम्राज्यवादी शक्तियों को बहुत हानि पहुंचाई। दो विश्व युद्धों ने साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्थाओं को भारी नुकसान पहुंचाया। वे अब इस स्थिति में नहीं रहे कि आन्दोलनकारी ताकतों से लोहा ले सकें। इसलिए उन्होंने अपना साम्राज्यवादी नियंत्रण ढीला कर दिया और उपनिवेशी शासन का अन्त होने लगा। लेकिन इसके बाद एक नए प्रकार के साम्राज्यवाद का जन्म हुआ जिसे नव-उपनिवेशवाद या आर्थिक साम्राज्यवाद के नाम से जाना जाता है। यह विकसित साम्राज्यवादी देशों द्वारा अपनी खण्डित अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर लाने के लिए किए गए प्रयासों का महत्वपूर्ण हिस्सा था। साम्राज्यवादी ताकतें चाहती थी कि आर्थिक नियंत्रण द्वारा वे नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों के आर्थिक जीवन पर अपना नियंत्रण लादकर उनसे पहले जैसा ही लाभ उठा सकती हैं। इसके जन्म के निम्नलिखित कारण हैं-
उपनिवेशों में राजनीतिक चेतना का उदय
धीरे-धीरे औपनिवेशिक शोषण के शिकार देशों में राजनीतिक चेतना का उदय हुआ। इससे वहां पर स्वतन्त्रता आन्दोलन का तेजी से विकास होने लगा। भारत जैसे राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन ने औपनिवेशिक ताकतों को यह अहसास करा दिया कि अब उनका नियंत्रण ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकता। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकृति मिल चुकी थी। इसलिए समय की नाजुकता को देखकर उन्हें अपनी उपनिवेशों को स्वतन्त्र करना पड़ा। परन्तु उन देशों की राजनीतिक अस्थिरता ने इन देशों को अपना आर्थिक नियंत्रण स्थापित करने का मौका दे दिया। इससे पुराना उपनिवेशवाद नए रूप में परिवर्तित हो गया।
यूरोपीय ताकतों का कमजोर होना
दो विश्व युद्धों ने यूरोप की साम्राज्यवादी ताकतों को भयंकर हानि पहुंचाई। अब उपनिवेशों में शासन चलाना उनके सामर्थ्य से बाहर हो गया। लगातार उठ रहे मुक्ति आंदोलनों ने भी बड़े-बड़े साम्राज्यों को नष्ट कर दिया। भारत में इंग्लैण्ड को जो हानि उठानी पड़ी, उससे भयभीत होकर अंग्रेजों ने यहा पर अपना औपनिवेशिक शासन जारी रखने में असमर्थता जाहिर की। नवोदित प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्यों ने अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों को प्रभावित करना शुरू कर दिया। 1949 में चीन एक साम्यवादी शक्ति के रूप में उभरा। अब वहां पर साम्राज्यवादी ताकतों का टिकना मुश्किल हो गया। माओ ने सभी साम्राज्यवादी ताकतों को भयंकर परिणाम की चेतावनी दे डाली। लेकिन सभी नवोदित राष्ट्र चीन व भारत जैसे शक्तिशाली नहीं थे। अधिकतर देशों में अपने आर्थिक विकास का सामर्थ्य नहीं था। इसलिए उन्होंने अपने पुराने साहूकारों पर ही निर्भरता की इच्छा व्यक्त की। सभी साम्राज्यवादी ताकतें आर्थिक सहायता के नाम पर अपने अधीन रहे देशों में हस्तक्षेप के प्रयास करने लगी। इससे वहां नव-उपनिवेशवाद का जन्म हुआ।
नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों की आर्थिक मजबूरियां
सभी नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों अपने आर्थिक विकास के लिए विदेशी आर्थिक मदद की आवश्यकता अनुभव हुई। लम्बे समय औपनिवेशिक शासन के शिकार रह चुके अधिकतर देशों के आर्थिक साधनों का दोहन साम्राज्यवादी देश कर चुके थे। इन नवोदित राष्ट्रों के पास अपने आर्थिक विकास के लिए न तो पर्याप्त पूंजी थी और न ही तकनीकी ज्ञान, अपने आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इन देशों को पुरानी उपनिवेशी ताकतों से कर्ज लेने पर मजबूर कर दिया। इससे इन देशों में पुरानी उपनिवेशी ताकतें फिर से अपना जाल बिछाने में कामयाब हुई और नए-उपनिवेशवाद का जन्म हुआ।
साम्राज्यवादी ताकतों की मजबूरियां
दो विश्व युद्धों ने साम्राज्यवादी ताकतों को बहुत ज्यादा आर्थिक हानि पहुंचाई। उपनिवेशवादी शासन के अन्त के साथ ही उनके कच्चे माल के òोत तथा तैयार माल बेचने वाली मंडिया समाप्त हो गई। इससे साम्राज्यवादी देशों को यह आवश्यकता महसूस हुई कि नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों में मंडियों की खोज व कच्चे माल को प्राप्त करने के लिए क्या किया जाए। ऐसे समय में नवोदित राष्ट्रों की आर्थिक मजबूरियों का लाभ उठाने का विचार उनके मन में आया। इसलिए उन्होंने आर्थिक सहायता के नाम पर इन देशों में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे वहां नव-उपनिवेशवादी शासन की स्थापना के प्रयास किए जिससे वहां पर नव-उपनिवेशवाद की धारणा अस्तित्व में आई। इस व्यवस्था ने साम्राज्यादी ताकतों की समस्त इच्छाओं को पूरा करने में भरपूर सहायता पहुंचाई।
विकसित राष्ट्रों की आर्थिक नीतियां
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ में शीत-युद्ध आरम्भ हो गया। दोनों महाशक्तियों ने अपनी अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए नए राष्ट्रों को अपने गुटों में शामिल करने का निर्णय किया। विदेशी सहायता, शस्त्र पूर्ति, बहुराष्ट्रीय निगमों पर नियंत्रण आदि साधनों द्वारा इन महाशक्तियों ने नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों को आर्थिक रूप से अपने नियंत्रण में ले लिया। इससे उपग्रही राज्यों की संख्या में वृद्धि होने लगी। उनकी सभी आर्थिक नीतियां एक-एक करके नव-उपनिवेशवाद को मजबूत आधार प्रदान करने के लिए ही थी। आज भी अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्र बहुराष्ट्रीय निगमों के माध्यम से अपने नव-उपनिवेशवादी नियंत्रण को सुदृढ़ बना रहे हैं।
नव-उपनिवेशवाद के साधन
धनी व शक्तिशाली साम्राज्यवादी राष्ट्र अपने आर्थिक हितों को पूरा करने के लिए नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों में अपने नियंत्रण के अलग अलग तरीके अपनाते हैं। उनका मुख्य ध्येय अविकसित देशों पर अपना नया साम्राज्यवादी नियंत्रण स्थापित करना है। इसके लिए उनके द्वारा अपनाए गए साधन निम्नलिखित हैं-
बहुराष्ट्रीय निगम
सभी धनी देशों द्वारा विश्व के सभी भागों में आर्थिक तथा औद्योगिक इकाईयों को नियंत्रित करने के लिए बहुराष्ट्रीय निगमों का जाल बिछाया गया है। अपनी आर्थिक शक्ति व कार्यक्षेत्र में वृहता के कारण ये अपने क्षेत्राधिकार में आने वाले सभी देशों में अपनी मनमानी करने लगते हैं। इनका उद्देश्य अधिक से अधिक लाभ कमाना होता है। विकासशील देशों में ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियां प्रत्यक्ष पूंजी निवेश करके पूंजीवादी देशों के लिए कच्चा माल तथा प्राथमिक उत्पादन की पूर्ति की गारन्टी देते हैं। ये सर्वाधिक निवेश प्राथमिक उत्पादन तथा कच्चा माल के क्षेत्र में करते हैं। ये जीवन में मूलभूत आवश्यकताओं की वस्तुओं के निवेश में सर्वाधिक मुनाफा देखते हैं। विकासशील देशों में सस्ते श्रम, कच्चे माल तथा शोषण की तीव्रता के कारण पूंजी निवेश से अधिक मुनाफा होता है। 1996 में भारत में 741 विदेशी कम्पनियों ने निवेश कर रखा था। भारत जैसे विकासशील देश में भी इन कम्पनियों को कई गुणा लाभ प्राप्त होता है। अपनी पूंजी की सुरक्षा के लिए ये निगम अपने नियंत्रण वाले देशों के आन्तरिक मामलों में भी हस्तक्षेप करते हैं। ये कम्पनियां विदेशों में अंतरराष्ट्रीय पूंजी व्यापार, वाणिज्य तथा उत्पादन व वितरण पर अपना एकाधिकार करने के लिए कार्य कर रहे हैं। एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के देशों पर इनका पूरा नियंत्रण है। IBM, GEC तथा Standard Oil जैसी कम्पनियां इन देशों से काफी मुनाफा उठा रही हैं। अपने मुनाफे की दर को अधिक से अधिक ऊंचे स्तर पर ले जाने के लिए ये अपने अधीन राष्ट्रों के राजनीतिक हस्तक्षेप करने से भी नहीं चूकते। इस प्रकार बहुराष्ट्रीय निगम नव-उपनिवेशवाद के सबसे अधिक शक्तिशाली साधन हैं और इन्हें सभी विकसित राष्ट्रों का पूरा समर्थन प्राप्त होता है।
विदेशी सहायता तथा साम्राज्यवादी कर्ज
नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्र अपने आर्थिक विकास के लिए पूर्ण रूप से विदेशी सहायता व साम्राज्यवादी कर्ज पर ही निर्भर हैं। अपने कर्ज की आड़ में तथा विदेशी सहायता के नाम पर विकसित राष्ट्र इन देशों को मनमानी शर्तें मानने के लिए बाध्य कर देते हैं। इन्हें कर्ज लेते समय अनेक कठोर शर्तें भी माननी पड़ती है। इन देशों का कर्जा दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। निर्यात से प्राप्त आय का अधिकतर हिस्सा साम्राज्यवादी कर्ज का ब्याज चुकाने में लग जाता है और भुगतान संतुलन का घाटा निरंतर बढ़ता ही जाता है। उन्हें इस कर्ज की राशि का प्रयोग बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से ही सामान खरीदने के लिए करना पड़ता है। उन्हें व्यापार अवरोधों को समाप्त करने की शर्तें भी माननी पड़ती है। सभी शर्तें पूंजी निवेश करने वाले देशों के हितों की पोषक होती हैं। विदेशी सहायता प्राप्त करने वाले देश को सदैव निवेशक या सहायता प्रदान करने वाले देश के हितों में वृद्धि करने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन करने पड़ते हैं। धीरे-धीरे साम्राज्यवादी कर्ज और विदेशी सहायता पर विकासशील देशों की निर्भरता बढ़ती ही जाती है। अल्प विकसित या पिछड़े हुए देशों की हालत तो विकासशील देशों से भी बदतर होती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि विदेशी सहायता तथा साम्राज्यवादी कर्ज की होड़ में विकसित देश नव-उपनिवेशवाद का ही पोषण कर रहे हैं।
हथियारों की पूर्ति
आज के आणविक युग में प्रत्येक राष्ट्र अपने को सैनिक व सामरिक दृष्टि से सुरक्षित देखना चाहता है। इसके लिए उन्हें विकसित देशों से शस्त्र खरीदने पड़ते हैं। आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण ये देश कई बार कर्जा भी लेते हैं। आज विकासशील देशों की राष्ट्रीय आय का अधिकतर हिस्सा हथियार खरीदने पर ही खर्च हो रहा है। महाशक्तियों द्वारा किया जाने वाला शक्ति प्रदर्शन शस्त्र प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देता है। 1979 में महाशक्तियों का आपसी टकराव विदेशों में पहुंचकर पर्याप्त लाभ दिलाए। इन महाशक्तियों द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद किए गए शक्ति प्रदर्शन इनके शस्त्र उद्योग में आई मन्दी को कम करने में सहायक सिद्ध हुए। आज तृतीय दुनिया के अधिकतर देश अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन तथा सोवियत संघ से ही हथियार खरीदते हैं। अपनी औपनिवेशिक स्थिति को मजबूत बनाने के लिए साम्राज्यवादी देशों ने तीसरी दुनिया के देशों में अपने सैनिक अड्डे खोल रखे हैं। हथियारों की पूर्ति के रूप में ये देश नव-उपनिवेशवाद को ही बढ़ावा दे रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संस्थाएं
आज विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का संचालन कर रही हैं। ये संस्थाएं ऋण देते समय कठोर शर्तें लगाकर नव-उपनिवेशवाद का ही पोषण करती हैं। देशों को दिया जाने वाला ऋण हमेशा राजनीतिक प्रतिबन्धों पर आधारित होता है। वह हमेशा विकसित राष्ट्रों के हितों का ही पोषक होता है। इसीलिए तृतीय विश्व के देश नई अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की पुरजोर मांग करते रहते हैं। उनका आरोप है कि विश्व की आर्थिक संस्थाएं साम्राज्यवादी हितों को पोषित करने वाली है। ये निरंतर पिछड़े हुए या विकासशील देशों के आर्थिक व राजनीतिक हितों पर कुठाराघात करती हैं। इस तरह ये उपनिवेशवाद के नए रूप को बढ़ावा दे रही हैं।
आश्रित या उपग्रही राज्य
साम्राज्यवादी शक्तियां आर्थिक सहायता देकर पिछड़े राष्ट्रों को निरंतर कमजोर करती रहती है। वहां के आर्थिक व राजनीतिक जीवन में साम्राज्यवादी या निवेशकर्ता देश का पूरा हस्तक्षेप बढ़ जाता है। विदेशी ताकत आश्रित देश के व्यापार पर अपना पूर्ण नियंत्रण रखती है तो उनका नियंत्रण धीरे-धीरे स्थायी रूप प्राप्त कर लेता है और यह निर्भरता निरन्तर बढ़ती ही रहती है और वह अन्त में उपग्रही राज्य का रूप ले लेता है। अब साम्राज्यवादी ताकत आर्थिक क्षेत्र की बजाय राजनीतिक क्षेत्र की तरफ अपना ध्यान लगा लेती है। इससे उपग्रही राष्ट्र को अपने आका की हर बात मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है। 1990 से पहले सोवियत संघ ने इस प्रकार की नीति का खुलकर प्रयोग किया था। इसके पीछे नव-उपनिवेशवाद के प्रसार की ही भावना विद्यमान रहती है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि आज भी नव-उपनिवेशवाद के रूप में विकसित राष्ट्र अल्पविकसित तथा विकासशील देशों पर अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं। दक्षिण के गरीब देश निरंतर नव-उपनिवेशवाद के शोषण का शिकार हो रहे हैं। उत्तर के विकसित देश बहुराष्ट्रीय निगमों तथा अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं के माध्यम से इन देशों पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए हुए हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां विकासशील व पिछड़े देशों में दीमक की तरह घुस रही हैं। अधिकतर देशों में ये राजनीतिक व्यवहार को भी प्रभावित करने में समर्थ है। अपने हितों की पूर्ति के लिए विकसित राष्ट्र सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का भी सहारा ले रहे हैं। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व में अपने आर्थिक या डॉलर साम्राज्यवाद का तेजी से विकास कर रहा है। वह आर्थिक जीवन के साथ-साथ विकासशील व पिछड़े तृतीय विश्व के देशों के राजनीतिक क्रिया-कलापों में भी हस्तक्षेप करने लगा है। यदि उसके उभरते नव-उपनिवेशवाद को न रोका गया तो समस्त विश्व के लिए नया खतरा पैदा हो जाएगा। आज तृतीय विश्व के देशों को एकजुट होकर नव-उपनिवेशवाद की जड़ें उखाड़ने की जरूरत है ताकि नई अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना हो सके।
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- नव उपनिवेशवाद के बीच अफ्रीका
- China, Africa, and Oil
- Mbeki warns on China-Africa ties
- "Neocolonialism" in Encyclopedia of Marxism.
- Neo-Colonialism: The Last Stage of Imperialism, by Kwame Nkrumah (former Prime Minister and President of Ghana), originally published 1965
- Comments by Prof. Jeffrey Sachs - BBC
- Harvard economist Jeffrey Sachs video (ram) - hosted by Columbia Univ.
- The myth of Neo-colonialism by Tunde Obadina, director of Africa Business Information Services (AfBIS)
- https://web.archive.org/web/20100226180656/http://www.africahistory.net/imf.htm — IMF: Market Reform and Corporate Globalization, by Dr. Gloria Emeagwali, Prof. of History and African Studies, Conne. State Univ.
Academic course materials
- Sovereignty in the Postcolonial African State, Syllabusसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link] : Joseph Hill, University of Rochester, 2008.
- Studying African development history: Study guides, Lauri Siitonen, Päivi Hasu, Wolfgang Zeller. Helsinki University, 2007.