नरसी मेहता

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नरसी मेहता (साँचा:lang-gu; 15वीं शती ई.) गुजराती भक्तिसाहित्य की श्रेष्ठतम विभूति थे। उनके कृतित्व और व्यक्तित्व की महत्ता के अनुरूप साहित्य के इतिहासग्रंथों में "नरसिंह-मीरा-युग" नाम से एक स्वतंत्र काव्यकाल का निर्धारण किया गया है जिसकी मुख्य विशेषता भावप्रवण कृष्णभक्ति से अनुप्रेरित पदों का निर्माण है। पदप्रणेता के रूप में गुजराती साहित्य में नरसी का लगभग वही स्थान है जो हिंदी में सूरदास का। वैष्णव जन तो तैणे कहिए जे पीड पराई जाणे रे' पंक्ति से आरंभ होनेवाला सुविख्यात पद नरसी मेहता का ही है। नरसी ने इसमें वैष्णव धर्म के सारतत्वों का संकलन करके अपनी अंतर्दृष्टि एवं सहज मानवीयता का परिचय दिया है। नरसी की इस उदार वैष्णव भक्ति का प्रभाव गुजरात में आज तक लक्षित होता है।

पुष्टिमार्ग में नरसी को "वधेयो" माना जाता है पर नरसी किसी संप्रदाय से संबद्ध प्रतीत नहीं होते। उनकी भक्ति भागवताश्रित थी। अन्यान्य लीलाओं की अपेक्षा कृष्ण की रासलीला नरसी का विशेष प्रिय थी और भावात्मक तादात्म्य की स्थित में उन्होंने अपने को "दीवटियो" या दीपवाहक बनकर रास में भाग लेते हुए वर्णित किया है। वे गुजरात के सर्वाधिक लोकप्रि वैष्णव कवि हैं तथा लोककल्पना में उनके जीवन से संबद्ध किंवदंतियों एवं चमत्कारिक घटनाओं के प्रति सहज विश्वासभावना मिलती है।

जीवनवृत्त

ऐतिहासिक दृष्टि से नरसी मेहता के जीवनकाल का निश्चय एक समस्या रही है। उनकी "हारमाला" नामक कृति में दी गई तिथि सं. 1512 तथा वर्णित घटना से सिद्ध रा मांडलिक (सं. 1414 से 1480) की समकालीनता के आधार पर कुछ इतिहासकारों ने उन्हें 15वीं शती ई. में रखा और बहुत काल तक "वृद्धमान्य समय" (1414-81 ई.) निर्विवाद स्वीकृत किया जाता रहा परंतु; क.मा. मुंशी ने अनेक तर्क वितर्कों द्वारा उसे अतिशय विवादास्पद बना दिया। उनके अनुसार चैतन्य के प्रभाव के कारण नरसी मेहता का समय 1500-1580 ई. से पूर्व नहीं माना जा सकता। यद्यपि गुजराती के अनेकानेक मान्य विद्वानों ने इस विवाद में भाग लिया है तथापि वह अब भी प्राय: अनिर्णीत ही है। उनकी रचनाओं में जयदेव, नामदेव, रामानंद और मीरा का उल्लेख मिलता है।

नरसी मेहता का जन्म भावनगर के समीपवर्ती "तलाजा" नामक ग्राम में हुआ था और उनके पिता कृष्णदामोदर वडनगर के नागर थे। उनका अवसान हो जाने पर बाल्यकाल से ही नरसी को कष्टमय जीवन व्यतीत करना पड़ा। एक कथा के अनुसार वे आठ वर्ष तक गूंगे रहे और किसी कृष्णभक्त साधु की कृपा से उन्हें वाणी का वरदान प्राप्त हुआ। साधु संग उनका व्यसन था। उद्यमहीनता के कारण उन्हें भाभी की कटूक्तियाँ सहनी पड़तीं और अंतत: गृहत्याग भी करना पड़ा। विवाहोपरांत पत्नी माणिकबाई से कुँवर बाई तथा शामलदास नामक दो संतानें हुई। कृष्णभक्त होने से पूर्व उनके शैव होने के प्रमाण मिलते हैं। कहा जाता है, "गोपीनाथ" महादेव की कृपा से ही उन्हें कृष्णलीला का दर्शन हुआ जिसने उने जीवन को सर्वथा नई दिशा में मोड़ दिया। गृहस्थ जीवन में चमत्कारिक रूप से अपने आराध्य की ओर से सहायता प्राप्त होने के अनेक वर्णन उनकी आत्मचरितपरक कई रचनाओं में उपलब्ध होते हैं।

इसी तरह भगवान ने कई बार नरसीला की मदत की। इनमें "हुंडी", "झारी", "मामेरु" और "हार" का प्रसंग सर्वप्रमुख है। "ढेढ" प्रसंग भी नरसी की जीवनी में यथेष्ट महत्व रखता है क्योंकि उसके फलस्वरूप उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया। वे स्त्री और शूद्र को भक्ति का अधिकारी समझते थे जिसके कारण समस्त नागर जाति उनसे क्षुब्ध हो गई थी। नरसी ने अपनी अंतर्वृत्ति का बाह्य प्रभावों से कुंठित नहीं होने दिया। यह उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है।

आप घर के काम काज में बिलकुल भी ध्यान नहीं देते थे। सारा समय कृष्ण भक्ति में ही लगे रहते। आप के भाई ने आप की शादी मानेकबाई से कार दी ताकि आप घर की जिम्मेदारी सँभालने लगें, लेकिन शादी से भी नरसिंह को कोई फरक नहीं पडा।

नरसिंह मेहता की भाभी आप को बहुत भला बुरा कहती थी। एक दिन भाभी की बातों से तंग आकर आप जंगल चले गए और बिना खाए पिये ७ दिन तक शिवजी के मंदिर में आराधना की। भगवान शिव एक साधु के रूप में प्रगट हुए। नरसिंह जी के अनुरोध पर भगवान शिव आप को वृन्दावन में रास लीला दिखाने को ले गए। आप रास लीला देखते हुए इतने खो गए की मशाल से अपना हाथ जला बेठे। भगवान कृष्ण ने अपने स्पर्श से हाथ पहले जैसा कर दिया और नरसिंह जी को आशीर्वाद दिया। घर आकर आप ने भाभी का धन्यवाद किया।

एक समय नरसिंह और उनके भाई तीर्थ यात्रा पर जाते समय एक जंगल में से गुजर रहे थे। दोनों बहुत थक चुके थे और भूख भी बहुत लगी थी। कुछ दुरी पर एक गाँव दिखाई दिया। उस गाँव के कुछ लोग इन दोनों के पास आये और कहा की अगर आप कहें तो हम आप के लिये खाना ले आते हैं, पर लेकिन हम शुद्र (नीच) जाती के हैं। नरसिंह जी ने उन्हें कहा की सभी परमेश्वर की संतान हैं आप तो हरि के जन हैं मुझे आप का दिया भोजन खाने में कोई आपत्ति नहीं। नरसिंह ने खुशी से भोजन खाया लेकिन उनके भाई ने भोजन खाने से इनकार कार दिया। चलने से पहले नरसिंह जब गाँव वालों का धन्यवाद करने के लिये उठे तो उन्हें कहीं भी गाँव नजर नहीं आया।

आचार्य श्री गरीब दास महाराज जी ने भक्त माल में नरसिंह मेहता जी के साथ हुए दो घटनाओं का वर्णन किया है।

सांवल शाह की घटना

आये हैं साधु नरसीला के पास। हुंडी करो नै नरसीला जो दास ॥ ५५ ॥

पांच सौ रूपये जो दीन्हें जो रोक। करो बेग हुंडी द्वारा नाथ पोष ॥ ५६ ॥

सड़ सड़ लिखी बेग कागज मंगाय। टीके दिया शाह सांवल चढाय ॥ ५७ ॥

द्वारा नगर बीच पौहंचे हैं संत। पाया न सांवल लिया है जु अंत ॥ ५८ ॥

द्वारा नगर के जु बोले बकाल। नहीं शाह सांवल नरसीला घर घाल ॥ ५९ ॥

करी है जु करुणा अबरना आनंद। भये शाह सांवल जो साहिब गोविन्द ॥ ६० ॥

चिलकी करारे हजारे हजार। दिने दुचंद जो सांवल मुरार ॥ ६१ ॥

दोहरी कलम टांक बहियां बिनोद। भये शाह सांवल नरसीला प्रमोध ॥ ६२ ॥

चौरे गिने बेग पल्ला बिछाय। देखैं द्वारा नगर के सकल शाह ॥ ६३ ॥

खरचे खाये संतौं किन्हें मुकाम। द्वारा नगर बीच दीन्हें जु दाम ॥ ६४ ॥

सांवल शाह संतौं से किन्हा बसेख। नरसीला से बन्दगी हुंडी ध्यों अनेक ॥ ६५ ॥

पहली नरसीला नै दीन्हा भंडार। पीछे सांवल शाह पौहंचे पुकार ॥ ६६ ॥

एक बार द्वारका को जाने वाले कुछ साधु नरसिंह जी के पास आये और उन्हें पांच सौ रूपये देते हुए कहा की आप काफी प्रसिद्ध व्यक्ति हो आप अपने नाम की पांच सौ रुपयों की हुंडी लिख कर दे दो हम द्वारका में जा कर हुंडी ले लेंगे। पहले तो नरसिंह जी ने मना करते हुए कहा की मैं तो गरीब आदमी हूँ, मेरे पहचान का कोई सेठ नहीं जो तुम्हे द्वारका में हुंडी दे देगा, पर जब साधु नहीं माने तो उन्हों ने कागज ला कर पांच सौ रूपये की हुंडी द्वारका में देने के लिये लिख दी और देने वाले (टिका) का नाम सांवल शाह लिख दिया।

(हुंडी एक तरह के आज के डिमांड ड्राफ्ट के जैसी होती थी। इससे रास्ते में धन के चोरी होने का खतरा कम हो जाता था। जिस स्थान के लिये हुंडी लिखी होती थी, उस स्थान पर जिस के नाम की हुंडी हो वह हुंडी लेन वाले को रोख दे देता था। )

द्वारका नगरी में पहुँचने पर संतों ने सब जगह पता किया लेकिन कहीं भी सांवल शाह नहीं मिले। सब कहने लगे की अब यह हुंडी तुम नरसीला से हि लेना।

उधर नरसिंह जी ने उन पांच सौ रुपयों का सामान लाकर भंडारा देना शुरू कर दिया। जब सारा भंडारा हो गाया तो अंत में एक वृद्ध संत भोजन के लिये आए। नरसिंह जी की पत्नी ने जो सारे बर्तन खाली किये और जो आटा बचा था उस की चार रोटियां बनाकर उस वृद्ध संत को खिलाई। जैसे ही उस संत ने रोटी खाई वैसे ही उधर द्वारका में भगवान ने सांवल शाह के रूप में प्रगट हो कर संतों को हुंडी दे दी।

आचार्य जी अन्न्देव की छोटी आरती में भी इस बात का प्रमाण देते हैं। जैसे

रोटी चार भारजा घाली, नरसीला की हुंडी झाली।

(भारजा – पत्नी, घाली- डाली, देना, झाली- हो गई)

सांवल शाह एक सेठ का भेष बनाकर संतों के सामने आए। और भरे चौक में संतों को हुंडी के रूपये दिये। द्वारका के सभी सेठ देखते ही रह गये।

नरसीला जी की ध्योती की शादी की घटना

बेटी नरसीला की भेली चढ़ाय। चालो पिता तेरी ध्योती का व्याह ॥ ६७ ॥

मैं निर्धन भिखारी नहीं मेरै दाम। आऊंगा बेटी मैं सुमरुन्गा राम ॥ ६८ ॥

नरसीला खाली गये पल्ला झार। आगे खरी एक समधनि उजार ॥ ६९ ॥

भातई आये हैं जो धी के पिता। करुवे के घाल्या जु हम कूं बता ॥ ७० ॥

समधनि कहै सखियों मैं सुनाय। दो भाठे घाले हैं करुवे पिताय ॥ ७१ ॥

नरसीला सुनि कर जो हुये आधीन। लज्जा राखो मेरे साहिब प्रबीन ॥ ७२ ॥

आये विश्वम्भर जो गाडे लदाय। ल्याये माल मुक्ता जो कीन्ही सहाय ॥ ७३ ॥

सुहे जरीबाब मसरू अपार। गहना सुनहरी और मोती हजार ॥ ७४ ॥

हीरे हरी भांति लाली सुरंग। चाहै सु देवै छुटी धार गंग ॥ ७५ ॥

नगदी और जिनसी खजानें मौहर। उतरैं जरीबाब झीनी दौहर ॥ ७६ ॥

चुन्नरी चिदानन्द ल्याये अनूप। झालर किनारी जरीदार सरूप ॥ ७७ ॥

समधनि सुलखनी खरी है जु पास। भरे भात नरसी जो हीर्यों निवास ॥ ७८ ॥

घोरे तुरंगम दिये हैं जो दान। अरथ बहल पालकी किये हैं कुर्बान ॥ ७९ ॥

कलंगी रु झब्बे सुनहरी हमेल। हीरे जड़ाऊँ मोती रंगरेल ॥ ८० ॥

नरसी अरसी है समुद्र में सिर। गैबी खजाने अमाने जो चीर ॥ ८१ ॥

भाठे परे दोय धूं धूं धमाक। देखें दुनी चिश्म खौलै जो आंख ॥ ८२ ॥

चांदी सोने के हैं भाठे जु दोय। समधनि लिया मुख उलटाई गोय ॥ ८३ ॥

भेली – गुड की डली (शगुन के तोर पर दी जाती थी। जैसे आज कल कार्ड के साथ मिठाई का डिब्बा देते है।)

समधनि – कुडमनी (बेटी/बेटे की साँस)

भातई – मामा

भात – नानकशक (लड़की या लड़के के विवाह में नाना / मामा की तरफ से दि जाने वाली सामग्री)

करुवे – कन्यादान

भाठे – मिट्टी के ठेले या बर्तन,

एक समय नरसिंह की ध्योती की शादी थी। नरसिंह की लड़की उन्हें शगुन के तोर पर गुड देते हुए बोली की पिता जी आप ने शादी में जरुर आना है। नरसिंह बहुत गरीब थे उन्होंने कहा की बेटी मेरे पास तो शादी में देने के लिये कुछ भी नहीं है। मैं आ जाऊंगा लेकिन भगवान का नाम ही लूँगा। जब नरसिंह जी ध्योती की शादी में पहुंचे तो किसी स्त्री ने उन की समधनि ने पूछा की लड़की के मामा और नाना में आये है, उन्होंने कन्यादान में क्या दिया है। आगे से समधनि ने मजाक में कह दिया की दो भाठे दिये हैं।

यह सुन कर नरसिंह शर्मिंदा हो गये और भगवान को याद कर उन्हें उसकी इज्जत बचाने को कहने लगे। तभी भगवान बैल गाडी लाद कर सामान की लाए। भगवान लड़की के लिये लाल सूट, चुनरी, विवाह की सारी जरी (कपडे), गहना, मोती, हीरे, घोड़े, पालकी तथा अनेक तरह के उपहार ले कर आए। नरसिंह जी ने खुशी खुशी भात (नानकशक) दिया। तभी दोनों भाठे धूं धूं कर टूट गये और सभी देख कर हैरान रह गये की दोनों भाठे सोने और चांदी से भरे थे। और इस तरह भगवान ने अपार सामग्री देकर अपने प्रिय भगत नरसिंह की लाज रख ली।

रचनाएँ

विषय और वस्तु की दृष्टि से नरसी की समस्त रचनाएँ मुख्यत: दो वर्गों में रखी जा सकती हैं। प्रथम वर्ग में "सामलदासनो विवाह" तथा "हारमाला" की गणना की जाएगी। इनमें कवि ने अपने जीवन की किसी अलौकिक घटना का वर्णन किया है। दूसरे वर्ग में निम्नलिखित नौ रचनाएँ आती हैं जिनकी सृष्टि पूर्णतया कृष्णचरित को आलंबन मानकर की गई है-

1. सुरत संग्राम

2. गोविंदगमन

3. चातुरीछब्बीसी

4. चातुरी षोडशी

5. दाणलीला

6. सुदामाचरित

7. राससहस्त्रपदी

8. श्रृंगारमाला

9. बाललीला

इनके अतिरिक्त कुछ प्रकीर्णक पद "हींडोलाना पदो", "भक्तिज्ञानानां पदो" "कृष्णजन्मसमेनां पदो", "कृष्णजन्मबधाईनां पदो" तथा "वसंतनां पदो" नाम से संगृहीत मिलते हैं। इनसे ज्ञात होता है कि श्रृंगारिक प्रकृतिवर्णन, वात्सल्य भाव तथा ज्ञानप्रधान भक्ति की ओ नरसी की विशेष प्रवृत्ति थी। पूर्वोक्त सभी रचनाएँ नरसिंह मेहता कृत "काव्यसंग्रह" नाम से एक साथ प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त इनका प्रकाशन "बृहत् काव्यदोहन" "प्राचीन काव्य त्रैमासिक" तथा "प्राचीन काव्य सुधा" आदि में भी हुआ है। मुंशी द्वारा उल्लिखित "नागदमन" और "मानलीला" शीर्षक रचनाएँ स्वतंत्र कृतियाँ न होकर विषय विशेष के पदसंग्रह मात्र हैं। के.का. शास्त्री ने हस्तलिखित ग्रंथों की शोध के आधार पर और भी अनेक कृतियों का नामोल्लेख किया है जिनमें अधिकांश पदसंग्रह मात्र हैं। "सूरत संग्राम" और "गोविंदगमन" नाम रचनाओं की प्रामाणिकता संदिग्ध मानी जाती है।

Further reading

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