धर्मनिरपेक्ष राज्य
एक धर्मनिरपेक्ष राज्य धर्मनिरपेक्षता से संबंधित एक विचार है, जिसके द्वारा एक राज्य, धर्म के मामलों में आधिकारिक तौर पर तटस्थ होने का दावा करता है, न तो धर्म और न ही अधर्म का समर्थन करता है। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य अपने सभी नागरिकों के साथ धर्म की चिंता किए बिना समान व्यवहार करने का दावा करता है, और एक नागरिक के लिए उनके धार्मिक विश्वासों, संबद्धता या अन्य प्रोफाइल वाले लोगों की कमी के आधार पर तरजीही उपचार से बचने का दावा करता है।
यद्यपि धर्मनिरपेक्ष राज्यों का कोई राज्य धर्म नहीं होता है, लेकिन एक स्थापित राज्य धर्म की अनुपस्थिति का मतलब यह नहीं है कि एक राज्य पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष या समतावादी है। उदाहरण के लिए, कुछ राज्य जो खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हैं, उनके राष्ट्रगान और झंडे, या कानूनों में धार्मिक संदर्भ हैं जो एक धर्म या दूसरे को लाभ पहुँचाते हैं।
परिचय
धर्मनिरपेक्षता या पंथनिरपेक्षता एक आधुनिक राजनैतिक एवं संविधानी सिद्धान्त है। धर्मनिरपेक्षता के मूलत: दो प्रस्ताव है 1) राज्य के संचालन एवं नीति-निर्धारण में धर्म का हस्तक्षेप नही होनी चाहिए। 2) सभी धर्म के लोग कानून, संविधान एवं सरकारी नीति के आगे समान है
धर्मनिरपेक्ष किंवा लौकिक राज्य में ऐसे राज्य की कल्पना की गई हैं, जो सभी धर्मों तथा संप्रदायों का समान आदर करता है। सबको एक समान फलने और फूलने का अवसर प्रदान करता है। राज्य किसी धर्म अथवा संप्रदायविशेष का पक्षपात नहीं करता। वह किसी धर्मविशेष को राज्य का धर्म नहीं घोषित करता। प्राय: विश्व के सभी मुसलिम राज्यों ने अपने आपको इस्लामिक राज्य घोषित किया है। बर्मा ने अपना राजधर्म बौद्धधर्म घोषित किया है।
किसी देश में प्राय: किसी धर्मविशेष के माननेवालों का बहुमत रहता है। हिंदुस्तान में हिंदू, पाकिस्तान में मुसलमान, इसरायल में यहूदी, बर्मा, श्रीलंका, स्याम आदि में बौद्ध बहुसंख्यक हैं। इसी तरह ब्रिटेन, यूरोप उत्तरी और दक्षिण अमरीका, आस्ट्रेलिया आदि में ईसाई धर्म के अनुयायियों का बहुमत है। बहुमत के कारण वहाँ के सांस्कृतिक वातावरण में, वहाँ के धर्म की छाप लगना स्वाभाविक है। किंतु कोई भी राज्य, राज्य के रूप में, किसी धर्मविशेष से अलग रह सकता है। भारत का वर्तमान संविधान तथा लोकतंत्रीय प्रणाली इसके ज्वलंत उदाहरण है।
ब्रिटेन जैसे देश में वहाँ के संविधान के अनुसार राज्य का एक धर्मविशेष से संबंध है। वह ईसाई धर्म के एक संप्रदाय "चर्च ऑव इंग्लैंड से" संबंधित है। फिर भी वहाँ के लोग धर्मनिरपेक्ष भाव से अपना लोकतंत्र तथा शासन चलाते हैं।
सहिष्णुता धर्मनिरपेक्ष राज्य की आधारशिला है। भारत सनातन काल से धार्मिक विषयों में सहनशीलता, उदारता, उदात्त विचार एवं नीति का आश्रय लेता आया है। यह धर्मनिरपेक्ष राज्य का एक पहलू कहा जा सकता है। उसका उसे संपूर्ण रूप नहीं कह सकते। इसके विपरीत सोचने पर देश की राष्ट्रीयता के स्थान पर धर्मविशेष की राष्ट्रीयता, यथा हिंदू राष्ट्रीयता, मुसलिम राष्ट्रीयता, सिख राष्ट्रीयता, किंवा बौद्ध राष्ट्रीयता का विचार करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में भारतीय राष्ट्रीयता, जर्मन राष्ट्रीयता, अमरीकन राष्ट्रीयता केवल नाम मात्र की चीजें रह जाएँगी।
संकीर्ण राष्ट्रीयता पुराने जमाने की बातें हो गई हैं। उनका मेल आधुनिक जगत् से नहीं खाता। वे पिछड़े और पुराने जमाने के नक्शे कहे जाएँगे।
यह धारणा कि धर्मनिरपेक्ष राज्य का सिद्धांत धर्म के विरुद्ध है, गलत है। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि धर्मनिरपेक्ष राज्य के निवासी धर्म के प्रति उदासीन हो जाएँ, अथवा उसे त्याग दें। उसका सरल अर्थ यह है कि धर्म को दैनिक सामाजिक, राजनीतिक तथा शासकीय जीवनस्तर से पृथक् रखें। धर्म एवं राजनीति को एक में न मिलाकर, उन्हें एक दूसरे का विरोधी न मानकर एक दूसरे का पूरक मानें।
इतिहास
19वीं शताब्दी में होली ओक ने इस प्रसंग में बहुत कुछ लिखा है। वे लौकिक आंदोलन के प्रवर्तक थे। उनकी पुस्तक "ओरिजिन ऐंड नेचर ऑव सिक्युलरिज्म" विश्व के किसी पुस्तकालय में प्राप्य नहीं है। उनकी अन्य पुस्तकें तथ लेख मिलते हैं। उनके आधार पर उनके विचारों के विषय में विनिश्चित किया जा सकता है। ईसाई समाज के एक वर्ग ने उनके सिद्धांतों को धर्मविरोधी माना था। उनकी बहुत सी पुस्तकें असहिष्णुता की वेदी पर धर्मप्राण ईसाइयों द्वारा फूंक दी गई थीं।
उन्होंने सर्वप्रथम सन् 1846 ई. में लौकिक विचारधारा को जगत् के सम्मुख रखा। इसी समय कार्ल मार्क्स ने सन् 1848 ई. के घोषणपत्र निकालकर समाजवादी विचार विश्व को दिया। एक ही काल में, एक ही देशस्थान से दो विचारधाराएँ विश्व के सम्मुख आई। रूस ने समाजवादी विचारधारा का यदि सफल प्रयोग करने का प्रयास किया तो भारत में सेक्युलर सिद्धांत का अभिनव प्रयोग किया जा रहा है।
श्री ओक ने सन् 1860 में कहा था लौकिकवाद न तो धर्मशास्त्र की उपेक्षा करता है और न उसकी स्तुति करता है और न उसे अस्वीकार करता है। जहाँ लौकिककार का अर्थ अर्थशास्त्र के विरोधी अर्थ में किया जाता है वहीं लौकिक शब्द लौकिकवाद से भिन्न अर्थ रखता है।
धर्मनिरपेक्ष राज्य को जो लोग धर्मविरोधी मानते हैं उनका उत्तर देते हुए होली ओक कहता है- "लौकिकता गणितशास्त्र तुल्य ईश्वरवाद तथा अन्य बातों से सर्वथा अलग और मुक्त है। ज्यामिति के अन्वेषक युकिलड ने अपने समय के परमेश्वर तथा तत्संबंधी भावनाओं की उपेक्षा नहीं की। ज्यामिति में भगवान की सत्ता को स्वीकार करना आवश्यक नहीं था। उसने रेखागणित में भगवान की सत्ता का कहीं वर्णन भी नहीं किया है। अतएव ईश्वर संबंधी विचारों पर बिना मत प्रगट किए लौकिकता गणितशास्त्र तुल्य स्वतंत्र "अध्ययन का विषय हो सकती है।"
श्री ओक अंत में इसकी परिभाषा का सार इस प्रकार उपस्थित करते हैं- "मानव की भलाई के लिए मानव प्रयोग द्वारा मानव बुद्धि द्वारा, जो भी बातें संमत हों जिन्हें इस जीवन में किया जा सकता है, जिनका संबंध इस जीवन से है वही लौकिकता है।"
अमरीका में लौकिक विचारधारा का उत्तरोत्तर विकास होता रहा है। धर्म तथा विचारस्वातंत्र्य को लेकर बहुत कुछ वादविवाद भी हो चुका है। सन् 1776 ई. के अधिकार घोषणापत्र में कहा गया है- "विचारस्वातंत्र्य तथा धर्म अनुकरण के निमित्त प्रत्येक व्यक्ति मुक्त है।" सन् 1868 में अमरीका के सुप्रीम कोर्ट ने रेनाल्ड बनाम अमरीका के संयुक्तराष्ट्र के मुकदमे में यह विचार स्पष्ट किया है- "न तो संघ तथा न राज्य चर्च की स्थापना कर सकते हैं। न तो वे कही कानून बना सकते हैं कि एक धर्म की सहायता अथवा अनेक धर्मों की सहायता अथवा उनके स्थान पर दूसरों को प्राथमिकता दी जाए। किसी को कोई व्यक्ति चर्च जाने अथवा न जाने से रोक नहीं सकता। किसी संप्रदाय अथवा धर्म के निमित्त किसी प्रकार कर नहीं लगाया जा सकता।"
राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने सन् 1863 में स्पष्ट कहा था- "मैं इतना और कहना चाहता हूँ कि संयुक्त राष्ट्र अमरीका चर्चों को चलाने का कार्य न करे। यदि कोई नागरिक चर्च अथवा चर्च के बाहर खतरनाक साबित होता है तो उसे रोकना चाहिए।"
संयुक्त राष्ट्र अमरीका के जस्टिस श्री स्टुलेज ने इमर्सन बनाम बोर्ड ऑव एजूकेशन के मुकदमे में निर्णय देते हुए कहा है- "धार्मिक स्वतंत्रता की सबसे बड़ी शर्त यह है कि वह अपना अस्तित्व बिना किसी प्रकार के गुजारे के कायम रखे और साथ ही साथ वह राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त रहे। राज्य तथा चर्च का पृथक्करण राज्य के लिए अच्छा है तथा चर्च के लिए अच्छा है।"
संयुक्त राष्ट्र के समान समाजवादी सोवियत संघ में भी कुछ इस प्रकार की घटनाएँ घटी हैं। 1919 ई. में सोवियत के संविधान का अनुच्छेद 13, जो पुन: 1927 में स्वीकार किया गया था, स्पष्ट धर्मनिरपेक्ष किंवा लौकिक राज्य के सिद्धांत को घोषित करता है- "परिश्रमशील जनता के विवेकपूर्ण वास्तविक स्वतंत्रताप्राप्ति निमित्त चर्च को राज्य से पृथक् तथा स्कूलों को भी चर्च से पृथक् किया जाता है। धार्मिक एवं धर्मविरोधी प्रचार की स्वतंत्रता समस्त नागरिकों के लिए स्वीकार की जाती है।"
सन् 1923 के चीन के गणतंत्रीय संविधान में लौकिक सिद्धांतों का समावेश किया गया है- "चीनी गणतंत्र के नागरिक कानून के सम्मुख बिना किसी जाति अथवा धर्म अथवा वर्गभेद के एक समान समझे जाएँगे।" सितंबर सन् 1954 ई. में कम्युनिस्ट चीन सरकार ने संविधान का, जो प्रारूप स्वीकार किया, उसके अनुच्छेद 88 में स्पष्ट उल्लेख है- "गणतंत्र की जनता को धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता प्राप्त है।"
भारत में महात्मा गांधी ने राज्य तथा धर्म को एक दूसरे में मिला देने की कल्पना नहीं की, जैसी कि मुस्लिम लीग के नेतागण ने की थी। लीग ने जाति, धर्म, संस्कृति और राजनीति को एक में मिलाकर उलझन पैदा कर दी जिसके कारण भारत का विभाजन हुआ। पाकिस्तान धार्मिक राज्य घोषित किया गया। महात्मा गांधी ने इस ओर संकेत किया था- "धर्म तथा राजनीति दो चीजें हैं, एक दूसरे को अनजाने मिलाने में उलझन और अलग रखने में जीवन सरल तथा सुंदर होता है।
भारतीय संविधान सभा ने विश्व के सम्मुख संविधान की जो प्रस्तावना रखी गई वह धर्मनिरपेक्ष राज्य के मौलिक सिद्धांतों के मत पर आधारित थी।
संविधान के अनुच्छेद 29 पर बोलते हुए लोकसभा के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री अनंतशयनम् आयंगर ने कहा था- "हम वचनबद्ध हैं कि हमारा राज्य धर्मनिरपेक्ष होगा। शब्द धर्मनिरपेक्ष से हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि हम किसी धर्म में विश्वास नहीं रखते और हमारे दैनिक जीवन में इससे कोई संबंध नहीं है। इसका केवल अर्थ यह है कि राज्य सरकार किसी मजहब को दूसरे की तुलना में न तो सहायता दे सकती है और न प्राथमिकता। इसलिए राज्य अपनी पूर्ण निरपेक्ष स्थिति रखने को विवश है।"
श्री जवाहरलाल नेहरु ने 5 अगसत, सन् 1954 के भाषण में इसका और स्पष्टीकरण करते हुए कहा था "हम अपने राज्य को शायद धर्मनिरपेक्ष कहते हैं। शायद "सेक्युलर" शब्द के लिए धर्मनिरपेक्ष शब्द बहुत अच्छा नहीं है। फिर भी इससे बेहतर शब्द न मिलने के कारण इसका प्रयोग किय गया है। इसका अर्थ है धार्मिक स्वतंत्रता, अपनी अंतरात्मा की प्रेरणा के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता। इसमें उन लोगों की भी स्वतंत्रता सम्मिलित है जो किसी धर्म को नहीं मानते। स्पष्टत: इसका यह मतलब नहीं है कि यह एक ऐसा राज्य है जहाँ पर धर्मपालन को निरुत्साहित किया जाता है। इसका मतलब है कि प्रत्येक धर्म के अनुयायियों को धर्मपालन की पूरी स्वतंत्रता है, बशर्ते वे दूसरे के धर्म में या हमारे राज्य के मूल सिद्धांतों में हस्तक्षेप न करें। इसका मतलब है कि धर्म की दृष्टि से जो अल्पसंख्यक हैं वे इस स्थिति को स्वीकार करें। इसका यह भी तात्पर्य है कि बहुसंख्यक लोग इस दृष्टिकोण से इसका पूरी तरह से महत्व समझें, क्योंकि बहुसंख्यक होने के नाते और दूसरे कारणों से भी उनका प्रभाव अधिक है। अत: उनकी जिम्मेदरी हो जाती है किसी भी रूप में अपनी स्थिति का इस तरह से प्रयोग न करें जिससे हमारे धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के पालन में बाधा पहुँचे।
"धर्मनिरपेक्ष" शब्द का एक और भी अर्थ समझा जा सकता हूँ, हालांकि यह शब्दकोश में दिया हुआ अर्थ नहीं हो सकता। मैं इसे सामजिक और राजनीतिक समानता के अर्थ का द्योतक भी मानता हूँ। इस प्रकार ऐसे समाज को जिसमें जातपांत का भेदभाव हो, सही रूप में धर्मनिरपेक्ष नहीं कहा जा सकता। किसी भी व्यक्ति के विश्वास में हस्तक्षेप करना अभीष्ट नहीं है, लेकिन जब वे विश्वास जातपाँत का भेदभाव पैदा करते हैं तो निस्संदेह इनका प्रभाव सामाजिक ढाँचे पर पड़ता है। इससे हमारे समानता के सिद्धांत की प्राप्ति और सफलता में बाधा पड़ती है। सांप्रदायिकता की तरह इससे राजनीतिक मामलों में भी अड़चन पड़ती है।"
भारतीय संविधान की प्रस्तावना तथ द्वितीय भाग के अनुच्छेद, 5, तृतीय भाग के अनुच्छेद 15, 16, 21, 25, 28, 30 में धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों समाविष्ट किय गया है।