ईरान में यूरोपीय हस्तक्षेप
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ईरान में यूरोपीय हस्तक्षेप सत्रहवीं से लेकर बीसवीं सदी तक के ऐसे घटनाक्रम को कहते हैं जिसमें किसी यूरोपीय देश ने ईरान की सत्ता पर कब्जा तो नहीं किया पर उसकी विदेश, व्यापार और सैनिक नीति में बहुत दख़ल डाला। औपनिवेशिक ताकत ब्रिटेन और रूस ने इसमें मुख्य सक्रिय भूमिका निभाई और फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका तथा स्वीडन भी इसमें शामिल रहा। ये सभी हस्तक्षेप और सरकार (शाह) के ये सब हो जाने देने वाली नीति को देखकर 1905-11 तथा 1979 में जनता का विद्रोह भड़का। इस दौरान कई बार ईरानी शासकों ने एक यूरोपीय शक्ति का सहयोग इस लिए लिया ताकि दूसरी शक्तियों से बचा जा सके।
ब्रिटेन तथा रूस दोनों मध्य एशिया तथा अफ़ग़ानिस्तान पर एक दूसरे के डर से अधिकार चाहते थे। ब्रिटेन मध्य एशिया में फैल रहे रूसी साम्राज्य को भारत की तरफ बढ़ता क़दम की तरह देखते थे जबकि रूसी ब्रिटेन को मध्य एशिया में हस्तक्षेप करने से रोकना चाहते थे। अंग्रेज़ी में ब्रिटेन तथा रूस की इस औपनिवेशिक द्वंद्व को ग्रेट गेम के नाम से जाना जाता था जो द्वितीय विश्वयुद्ध तक ही चला। इस नाम को प्रथमतया प्रयुक्त करने का श्रेय आर्थर कॉनेली को जाता है जिसको बाद में रुडयार्ड किपलिंग ने अपने उपन्यास किम में इस्तेमाल किया।
"दि ग्रेट गेम" एक रणनीतिक शब्दावली है जो उस शत्रुता और प्रतिस्पर्धा को व्यक्त करने के लिये प्रयोग की गई/जाती है जो ब्रिटेन और रूस के बीच एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिये उन्नीसवी सदी के दौरान में मध्य एशिया में जारी थी। [१]
इस शब्दावली का प्रथम प्रयोग Arthur Conolly (1807–1842), जो एक इंटेलिजेंस अधिकारी थे, के द्वारा किया गया माना जाता हैसाँचा:sfn हालाँकि मुख्यधारा में इसका प्रयोग रुड्यार्ड किपलिंग ने अपने उपन्यास किम में (1901) में किया था।साँचा:sfn
पृष्ठभूमि
यूरोप में औद्योगिक क्रांति होने की वजह से वहाँ की सेना आधुनिक मशीनों तथा हथियारों से लैश हो गई थी। हाँलांकि बारूद के प्रयोग में ईरानी यूरोपी शक्तियों से अग्रणी रहे थे पर तकनीक के कुल इस्तेमाल में एशियाई देशों के पिछड़ जाने की वजह से वे लाचार थे। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को ईरान में व्यापार करने की अनुमति 1616 में मिली। सबसे पहले किसी ईरानी शासक द्रारा योरोपी औपनिवेशिक ताकत की मदद लेने का क्रम तब शुरु हुआ जब उस समय के नौसेनिक ताकत पुर्तगाल के होरमुज जलडमरुमध्य से प्रभाव हटाने के लिए सफ़वी वंश के शासक अब्बास ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद 1620 में ली। लेकिन ये एक एकाकी मामला था।
सन् १८०० में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपना ने जॉन मैल्कम को ईरान का प्रभारी बनाया और इस समय से ब्रिटेन-ईरान रिश्तों में मोड़ आने लगे। ब्रिटेन को डर था कि मध्य एशिया के बाद अगर रूसी ज़ार अफ़गानिस्तान पर अधिकार कर लें तो ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की रक्षा करना उनके लिए मुश्किल होगा। इसलिए वो अफ़ग़ानिस्तान में में स्थापित होना चाहते थे। कई अफ़गान युद्धों के बाद उनका ध्यान ईरान की ओर गया।
प्रतिद्वंदिता
सन् १७९८ में नेपोलियन के मिस्र पर आक्रमण और १७९६ में एक फ्रांसिसी दल के ईरान की यात्रा पर जाने के बाद ब्रिटेन को भारत में फ्रांसिसी दावा मजबूत होने की दृष्टि से देखने लगे। उस समय तक ब्रिटिश राज संपूर्ण भारत में नहीं आय़ा था और वे भारत को एक महत्वपूर्ण औपनिवेशिक संभावना मानते थे। इस बात को ध्यान में रखते हुए १८०१ में ईरान के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर हुए जिसमें फतह अली शाह ने वादा किया कि यदि अफ़गान भारत पर आक्रमण करते हैं तो वो अफ़ग़ानिस्तान पर चढ़ाई करेगा। और साथ ही फ्रांस को ईरान में किसी व्यापार की अनुमति नहीं मिलेगी। इसके एवज में कंपनी ने फ्रांसिसी आक्रमण की स्थिति में तोपों और सामरिक अस्त्र देने का वादा किया। लेकिन इस संधि में रूस का ज़िक्र नहीं था जो उत्तर में एक बड़ा साम्राज्य खड़ा कर चुके थे और लगातार आक्रमण भी कर रहे थे।
उत्तर के रूसी आक्रमण
१७९९ में जॉर्जिया में उत्तराधिकारी के न होने के बाद रूसियों ने सत्ता पर अधिकार कर लिया और आज़री शहर गंजा पर भी 1804 में अधिकार कर लिया। इसी बीच नेपोलियन ने रूस पर हमला कर दिया और ब्रिटेन ने रूस के साथ नेपोलियन के खिलाफ एक संधि की। ईरान पर हमले उत्तर में रूसियों द्वारा किये गए जो पीटर महान के समय से चलाए गए सैनिक विजय अभियान के अनुगामी थे। 1813 तक लड़ाई चलने के बाद गुलिस्तान में रुसियों और क़ाजार शासकों के बीच संधि हुई जिसमें जॉर्जिया और कॉकेशस के अन्य हिस्सों पर रूसी प्रभुता को मान लिया गया। एक दूसरी लड़ाई के बाद सन् 1828 में तुर्कमनचाई की संधि हुई जिसमें कॉकेशस के दक्षिणी क्षेत्रों पर भी, अरस नदी तक, रूसियों का अधिकार हो गया।
उधर दक्षिण में समुद्र के रास्ते 1856 में ब्रिटेन ने आक्रमण किया और कई द्वीपों पर कब्जा कर लिया। पर वे वापस लौट गए। इससे पहले ब्रिटिश अफ़गानिस्तान के साथ एक युद्ध (1839-42) कर चुके थे जिसमें शुरु में जीतने के बाद वे अफ़गानिस्तान से बहुत दुर्दशा झेलने के बाद निकल चुके थे। इस युद्ध के कारणों में ईरान पर बढ़ता रूसी प्रभुत्व भी शामिल था। लेकिन उत्तर में कैस्पियन सागर की दूसरी तरफ़, पूर्व में, रूसी लगातार युद्ध लड़ रहे थे। सन् 1881 तक रूसी तुर्कमेनिस्तान और उज़्बेकिस्तान को हथिया चुके थे और इस तरह ईरान की उत्तर-पूर्वी सीमा तक आ चुके थे।