देह सिवा बरु मोहि इहै
नेविगेशन पर जाएँ
खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
देह सिवा बरु मोहि इहै गुरु गोविन्द सिंह द्वारा रचित दसम ग्रंथ के चण्डी चरितर में स्थित एक शबद है। इसमें गुरुजी चण्डी की स्तुति करते हुए उनसे वरदान मांगते हैं कि मैं कभी भी शुभ कर्मों को करने से पीछे न हटूँ। यह शबद ब्रजभाषा में है।
शबद
- गुरुमुखी में
- ਦੇਹ ਸਿਵਾ ਬਰੁ ਮੋਹਿ ਇਹੈ ਸੁਭ ਕਰਮਨ ਤੇ ਕਬਹੂੰ ਨ ਟਰੋਂ ॥
- ਨ ਡਰੋਂ ਅਰਿ ਸੋ ਜਬ ਜਾਇ ਲਰੋਂ ਨਿਸਚੈ ਕਰਿ ਅਪੁਨੀ ਜੀਤ ਕਰੋਂ ॥
- ਅਰੁ ਸਿਖ ਹੋਂ ਆਪਨੇ ਹੀ ਮਨ ਕੌ ਇਹ ਲਾਲਚ ਹਉ ਗੁਨ ਤਉ ਉਚਰੋਂ ॥
- ਜਬ ਆਵ ਕੀ ਅਉਧ ਨਿਦਾਨ ਬਨੈ ਅਤਿ ਹੀ ਰਨ ਮੈ ਤਬ ਜੂਝ ਮਰੋਂ
- देवनागरी में
- देह सिवा बरु मोहि इहै सुभ करमन ते कबहूं न टरों।
- न डरों अरि सो जब जाइ लरों निसचै करि अपुनी जीत करों ॥
- अरु सिख हों आपने ही मन कौ इह लालच हउ गुन तउ उचरों।
- जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरों ॥
अर्थ
- हे शिवा (परम् पिता परमात्मा)! मुझे यह वर दें कि मैं शुभ कर्मों को करने से कभी भी पीछे न हटूँ।
- जब मैं युद्ध करने जाऊँ तो शत्रु से न डरूँ और युद्ध में अपनी जीत पक्की करूँ।
- और मैं अपने मन को यह सिखा सकूं कि वह इस बात का लालच करे कि आपके गुणों का बखान करता रहूँ।
- जब अन्तिम समय आये तब मैं रणक्षेत्र में युद्ध करते हुए मरूँ।[१]
सन्दर्भ
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।