दिल्ली जिला न्यायालय
भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल द्वारा दिनांक १७ सितंबर १९१२ को जारी की गई प्रोकलेमेशन संख्या ९११ के अन्तर्गत दिल्ली को विशेष वैधानिक क्षेत्र के रूप में मान्यता दी गई। इस नोटिफिकेशन के द्वारा दिल्ली पर भारत के गवर्नर जनरल का प्रत्यक्ष प्रभुत्व स्थापित हो गया तथा इसके प्रबंधन का उतरदायित्व भी गवर्नर जनरल के हाथ में आ गया। इस नोटिफिकेशन के जारी होने के बाद मि.विलियम मैलकोम हैले, सी.आई.ई., आई.सी.एस. को दिल्ली का पहला आयुक्त नियुक्त किया गया। इसके साथ ही साथ दिल्ली में स्थापित कानूनों को लागू करने के लिए दिल्ली विधि अधिनियम,१९१२ का निमार्ण किया गया। दिनांक २२.०२.१९१५ को यमुना के दूसरी तरफ का क्षेत्र (जिसे आज यमुना के नाम से जाना जाता है) को भी दिल्ली के नए सीमा क्षेत्र के भीतर शामिल किया गया।
दिवानी न्यायालय
सन् १९१३ में दिल्ली की न्यायिक व्यवस्था का आकार इस प्रकार थाः
- १ जिला एवं सत्र न्यायाधीश।
- १ वरिष्ठ उप-न्यायाधीश।
- १ न्यायाधीश, लघुवाद न्यायालय।
- १ रजिस्ट्रार, लघुवाद न्यायालय
- ३ उप-न्यायाधीश।
सन् १९२० में इस संख्या में दो और उप-न्यायाधीशों की अदालतों को शामिल किया गया। न्यायाधीशों की इस निर्धारित संख्या के साथ दिल्ली के न्यायालय लगातार अपना कार्य करते रहे तथा समय -समय पर अत्यधिक कार्यभार को कम करने के लिए कुछ अस्थाई उपाय भी अपनाए गए। सन् १९४८ में किराया नियंत्रण कानून को लागू करने के लिए उप-न्यायधीश के एक और पद का सृजन किया गया। इसके बाद १९५३ में उप-न्यायाधीशों के छह अन्य अस्थाई न्यायालयों की स्थापना की गई। १९५९ में उप-न्यायाधीशों की संख्या बढ़कर २१ हो गई। इस समय तक दिल्ली की न्यायिक व्यवस्था में एक जिला एंव सत्र न्यायाधीश तथा चार अतिरिक्त जिला एंव सत्र न्यायाधीश थे। दिल्ली उच्च न्यायालय की सथापना से पूर्व सन् १९६६ तक दिल्ली के जिला एंव सत्र न्यायाधीश पंजाब उच्च न्यायालय के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्यरत थे।
अक्टूबर १९६९ में दिल्ली के अंदर अवैतनिक मैजिस्ट्रो की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। वर्ष १९७२ में दिल्ली की न्यायिक व्यवस्था में न्यायाधीशों की पद संख्या इस प्रकार थीः-
- पद संख्या
- जिला मैजिस्ट्रेट ०१
- अतिरिक्त जिला मैजिस्ट्रेट ०३
- उप-खंडीय मैजिस्ट्रेट १२
कार्यपालिका तथा न्यायपालिका का विभाजन
अक्टूबर १९६९ में संघ प्रदेश/कार्यपालिका व न्यायपालिका का विभाजन अधिनियम १९६९ में उल्लेखित प्रावधानों के आधार पर संघ शासित प्रदेश दिल्ली की न्यायपालिका और कार्यपालिका का विभाजन हो गया। इस अधिनियम के अन्तर्गत दो तरह के फौजदारी न्यायालयों. पहला सत्र न्यायालय तथा दूसरा-दण्डाधिकारी के न्यायालय. की स्थापना का प्रावधान किया गया। इसके साथ ही न्यायिक मैजिस्ट्रेटों की भी दो श्रेणियाँ तय कर दी गई। पहली श्रेणी में मुख्य न्यायिक मैजिस्ट्रेट तथा प्रथम तथा द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मैजिस्ट्रेट शामिल थे। जबकि दूसरी श्रेणी में कार्यकारी मैजिस्ट्रटों के सभी पद शामिल थे जैसे जिला मैजिस्ट्रेट, उप-खंडीय मैजिस्ट्रेट, प्रथम और द्वितीय श्रेणी के मैजिस्ट्रेट तथा विशिष्ठ कार्यकारी मैजिस्ट्रेट इत्यादि।
न्यायपालिका तथा कार्यपालिका के विभाजन से पहले दिल्ली की समस्त न्यायिक प्रणाली जिला मैजिस्ट्रेट के प्रत्यक्ष नियंत्रण में कार्य करती थी। नई व्यवस्था के अन्तर्गत न्यायिक मैजिस्ट्रेट के पद पर उच्च न्यायालय का प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित हो गया। अब मुख्य न्यायिक मैजिस्ट्रेट अपनी अधिकतर शक्तियों का प्रयोग दंड संहिता के अंतर्गत करने जो कि इस कानून सहिंता का प्रयोग जिला मैजिस्ट्रेट किया करता था।
विभाजन की योजना को प्रभावी ढ़ग से लागू करने के लिए, दंड प्रक्रिया संहिता १८९८ की धारा ५ (१९६९ के अधिनियम १९ के द्वारा संशोधित) ने सुगमता के लिए न्यायिक मैजिस्ट्रेट और कार्यकारी मैजिस्ट्रेट के कार्य क्षेत्र का भी स्पष्ट विभाजन कर दिया अब न्यायिक मैजिस्ट्रेट केवल उन मामलों की सुनवाई करते थे जिसमें गवाही का मूल्यांकन किये जाने की बात होती थी या न्यायालय द्वारा सुनाए गए किसी ऐसे फैसले की विधिवत् अभिव्यक्ति करनी होती थी जिसमें किसी दोषी को बिना दण्ड या जुर्माना किए छोड़ दिया जाता था या अनवेषण, जांच-पड़ताल या सुनवाई के दौरान उसे कैद करके बंदीगृह में रखा गया हो, या उसे किसी मामले में किसी दूसरे न्यायलय में भेजने का फैसला लेना हो। परन्तु यदि किसी भी बिंदू पर कोई कार्यवाही प्रशासनिक या कार्यपालिका से जुड़ी होती थी, जैसे लाइसैंस जारी करना, किसी अभियोजन की स्वीकृति देना या उससे वापस लेना इत्यादि कार्य कार्यपालक मैजिस्ट्रेट के कार्यक्षेत्र में आते थे। संक्षेप में कहें तो कार्येपालक मैजिस्ट्रेट का कार्य कानून और व्यवस्था बनाए रखने और अपराध की रोकथाम के उपायों को लागू करने से संबंधित था जबकि आई.पी.सी. विशेष तथा साधारण कानूनों की सुनवाई न्यायिक मैजिस्ट्रेट करता था।
नई दंड प्रक्रिया संहिता १९७३ (१९७४ के अधिनियम संख्या २) एक अप्रैल १९७४ से लागू हुई। इस संहिता के अन्तर्गत मैजिस्ट्रेट के पद की दो भिन्न श्रेणियां तय कर दी गई, पहला-न्यायिक मैजिस्ट्रेट तथा दूसरा कार्यपालक मैजिस्ट्रेट। जिस शहर की आबादी दस लाख से अधिक होगी उसे महानगर की सं ^ा दी जा सकती थी। एक अप्रैल १९७४ को दंड प्रक्रिया संहिता १९७३ के अनुच्छेद ८(१) के अन्तर्गत गृह मंत्रालय नई दिल्ली द्वारी जारी एक अधिसूचना संख्या १५५ २८ मार्च १९७४ के द्वारा दिल्ली को महानगरीय क्षेत्र घोषित कर दिया गया। जो भारत का गजट (अतिरिक्त) भाग २, धारा ३ (२) में प्रकाशित हुई थी।
परिमाणतः न्यायिक मैजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी तथा न्यायिक मैजिस्ट्रेट द्वितीय श्रेणी पद समाप्त कर दिया गया। दिल्ली में कार्यरत सभी न्यायिक मैजिस्ट्रेटों को महानगर दण्डाधिकारी की शक्ति प्रदान की गई। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १६ के अन्तर्गत महानगर दण्डाधिकारियों के न्यायलयों की स्थापना की गई। मुख्य महानगर दण्डाधिकारी (ए.सी.एम.एम.) की स्थापना संहिता को धारा १७ के अन्तर्गत की गई तथा धारा १८ के अन्तर्गत विशेष महानगरीय दण्डाधिकारियों (स्पेशल मैजिस्ट्रेटों) के न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान था। दंड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत महानगर दण्डाधिकारियों के उपरोक्त पदो के अतिरिक्त गठित पद कार्यपालक मैजिस्ट्रेटों के थे। इन कार्यपालक मैजिस्ट्रेटों को प्रदान की गई शक्तियां महानगर दण्डाधिकारियों की शक्तियों से भिन्न थी। मुख्य महानगर दण्डाधिकारी, अतिरिक्त मुख्य महानगर दण्डाधिकारी तथा महानगर दण्डाधिकारी जिला एवं सत्र न्यायाधीश के अधीनस्थ है जबकि कार्यपालक मैजिस्ट्रेटों को जिला मैजिस्ट्रेट के अधीनस्थ रखा गया है।
फौजदारी न्यायालय
दिल्ली जिला राजपत्र (१९१२) के अनुसार, अपराधिक न्याय के प्रशासन का पूरा उत्तरदायित्व जिला मैजिस्ट्रेट के ऊपर था। मुख्य दण्डाधिकारी तथा पुलिस अधीक्षक होने के नाते वह उसका कार्य अपराध से निपटना था। सन् १९१० में फौजदारी न्यायालय में पदासीन न्यायिक अधिकारियों की संख्या निम्न प्रकार थीः-
- मैजिस्ट्रेट की श्रेणी वैतनिक अवैतनिक
- प्रथम श्रेणी मैजिस्ट्रेट ०८ ११
- द्वितीय श्रेणी मैजिस्ट्रेट ०४ १४
- तृतीय श्रेणी मैजिस्ट्रेट ०३ ०१
इनमें से एक प्रथम श्रेणी मैजिस्ट्रेट को जिला मैजिस्ट्रेट की शक्तियाँ प्राप्त थी जिसके आधार पर वह गंभीर मुकदमों की सुनवाई करता था। इस व्यवस्था के द्वारा जिला मैजिस्ट्रेट तथा अन्य निम्न श्रेणी न्यायाधीश अवांछनिय दबाव से मुक्त हो जाते थे इस व्यवस्था के अन्तर्गत सभी अवैतनिक मैजिस्ट्रेट होते थे, परन्तु दो को विशेष तौर पर दिल्ली में नियुक्त किया गया था, जहाँ वे पीठ बनाकर शहर में होने वाले छोटे-मोटे मुकदमों मुख्य रूप से हमलों की सुनवाई करते थे।
इनमें से एक पीठ की स्थापना १९१२ में रायसीना (नई दिल्ली) के लिए की गई थी जो साम्राज्यिक दिल्ली नगर समिति के सत्ता क्षेत्र के अन्तर्गत मुकदमों की सुनवाई करती थी। इस पीठ में एक हिंदू तथा एक मुसलमान मैजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया था जिन्हें द्वितीय श्रेणी की शक्तियाँ प्राप्त थी। जिनकी दिल्ली नगर समिति के क्षेत्र तक ही शक्तियां सीमित थी। १९२१ में एक नजफगढ़ पीठ की स्थापना हुई इसमें दो मैजिस्ट्रेट होते थे जिन्हें तृतीय श्रेणी की शक्तियां प्राप्त थी, जिन्हे वे अपने प्रान्त के भीतर प्रयोग कर सकते थे।
१९२६ में दिल्ली के अंदर दो प्रथम श्रेणी मैजिस्ट्रेट तथा एक द्वितीय श्रेणी अवैतनिक मैजिस्ट्रेट कार्यरत थे। १९५१ से १९६१ के बीच संघ शासित प्रदेश दिल्ली के फौजदारी न्यायालयोंं की तुलनात्मक पद संख्या कुछ इस प्रक्रार थीः-
- पद का नाम संख्या १९५१ संख्या १९६१
- जिला मैजिस्ट्रेट ०१ ०१
- अतिरिक्त जिला मैजिस्ट्रेट ०१ ०३
- वैतनिक मैजिस्ट्रेट १३ २४
- अवैतनिक मैजिस्ट्रेट ११ २७
दंड न्यायालय के प्रकार
दिल्ली में तीन तरह के दंड न्यायालय हैंः- १. महानगर दण्डाधिकारी। २. मुख्य महानगर दण्डाधिकारी/अतिरिक्त मुख्य महानगर दण्डाधिकारी। ३. सत्र न्यायाधीश/अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश।
दिल्ली का समस्त न्यायिक जिला, जो आज राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के नाम से जाना जाता है, एक सत्र खंड (सैशन डिविजन) में सिमटा हुआ है। इसका प्रमुख एक सत्र न्यायाधीश है। इसके एक मुख्य महानगर दण्डाधिकारी है तथा चार अतिरिक्त महानगर दण्डाधिकारियों के न्यायालयों की संख्या न्यायिक कार्यभार तथा न्यायालयों को चलाने वाले न्यायाधीशों की संख्या के अनुरूप समय-समय पर बदलती रहती है।
दो अलग-अलग न्यायिक सेवाएं
२७ अगस्त १९७० को दिल्ली के लिए दो अलग-अलग न्यायिक सेवाओं का सृजन किया गया। इन्हें दिल्ली उच्च न्यायिक सेवा तथा दिल्ली न्यायिक सेवा के नाम से जाना जाता है। इन दोनो सेवाओं के अन्तर्गत न्यायिक अधिकारियों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हुई है। वर्तमान समय में दिल्ली उच्च न्यायिक सेवा के तहत न्यायिक अधिकारियों के स्वीकृत पदों की संख्या १६९ है तथा दिल्ली न्यायिक सेवा के अन्तर्गत न्यायिक अधिकारियों के २१८ पद हैं।
न्यायालय भवन
- प्रांरम्भ में दिल्ली की जिला अदालतें श्रीमती फोर्सटर के घर पर लगती थी, जहां केवल आठ अदालतों को ही स्थान मुहैया कराया गया था। १८९९ में एच-अब्दूल रहमान अताउल रहमान बिल्डिंग में कुछ और कमरे किराये पर लिए गए। १९४९ में कश्मीरी गेट स्थित पुरानी इमारत को असुरक्षित घोषित कर दिया गया। १९५३ में २२ अधिनस्थ दिवानी न्यायालयों को १, स्कीनर्स हाउस स्थित हिंदू कॉलेज की इमारत तथा कश्मीरी गेट में स्थानांतरित कर दिया गया। यह अदालतें ३१ मार्च १९५८ तक इसी इमारत में चलाई जाती रही।
- तीस हजारी न्यायालय भवन का निर्माण कार्य सन् १९५३ में आरंभ हुआ। उस समय इसे बनाने में लगभग ८५ लाख रूपए का खर्च आया था। १९.०३.१९५८ को इस भवन का उद्घाटन पंजाब उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री ए.एन.भंडारी ने किया और इसके बाद सभी दीवानी न्यायलय तथा बहुत से दंड न्यायालय इस भवन में स्थाई रूप से स्थानांतरित कर दिए गए। यद्धपि आज भी तीस हजारी दिल्ली का मुख्य न्यायालय भवन है।
- कुछ दंड न्यायालय पार्लियामैंट स्ट्रीट तथा शाहदरा में भी कार्य कर रहे थे। पार्लियामैंट स्ट्रीट स्थित दंड न्यायालयों को मार्च १९७७ में वहां से हटाकर पटियाला हाऊस में स्थानांतरित कर दिया। कड़कड़डूमा न्यायालय परिसर का उद्घाटन जो न्यायालय शाहदरा में कार्य कर कहे थे उन्हें कड़कड़डूमा न्यायालय परिसर का उद्घाटह १५ मई १९९३ को हुआ और तदोपरांत जो नयायालय शाहदरा में कार्य कर रहे थे उन्हें कड़कड़डूमा न्यायालय परिसर में स्थानांतरित कर दिया गया।
- रोहिणी न्यायालय परिसर भी अब काम करने लगा है। वर्तमान समय में पश्चिमी और उत्तर -पश्चिमी दिल्ली से संबंधित दीवानी, फौजदारी, किराया नियंत्रक तथा मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण की लगभग ३० अदालतें रोहिणी नयायालय परिसर में कार्य कर रही हैं। द्वारका में न्यायालय भवन बनाने का कार्य भी पूरी तेज से जारी है। साकेत में न्यायालय भवन बनाने की निर्माण-योजना को स्वीकृति मिल चुकी है।