दादरा नगर हवेली मुक्ति संग्राम

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साँचा:unreferenced सन्‌ १९५४ में भारत को स्वतंत्र हुए ७ वर्ष हो चुके थे। अंग्रेजों के जाने के साथ ही फ्रांस ने एक समझौते के तहत पांडिचेरी, कारिकल, चन्द्रनगर आदि क्षेत्र भारत सरकार को दे दिए, किन्तु अंग्रेजों के पूर्व आए पुर्तगालियों ने भारत में अपने पैर जमाए रखे। शेष भारत स्वतंत्र हो जाने के बाद भी पुर्तगाली शासक सालाजार भारत छोड़ने को तैयार नहीं था। पुर्तगालियों ने डॉ॰ राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में चल रहे सत्याग्रह आन्दोलन को पूर्णत: समाप्त करने का निर्णय लिया। गोवा, दीव-दमन और दादरा नगर हवेली के स्वतंत्र होने की उम्मीद आंखों से ओझल होने लगी थी। स्वतंत्रता मिलने के बाद भी हमारी मातृभूमि का कुछ हिस्सा परतंत्र था, इसका दु:ख सबको था। कुछ तरुणों ने "आजाद गोमान्तक दल' की स्थापना कर इस दिशा में प्रयत्न किया। किन्तु भारत सरकार निष्क्रिय रही। इस निष्क्रियता के कारण कुछ युवकों ने स्वतंत्र क्रांति की योजना बनाई। इस हेतु महाराष्ट्र-गुजरात की सीमा से लगा दादरा नगर हवेली का एक हिस्सा निश्चित किया गया। सर्वश्री शिवशाहीर बाबा साहब पुरन्दरे, संगीतकार सुधीर फड़के, खेलकूद प्रसारक राजाभाऊ वाकणकर, शब्दकोश रचयिता विश्वनाथ नरवणे, मुक्ति के पश्चात्‌ दादरा नगर हवेली के पुलिस अधिकारी बने नाना काजरेकर, पुणे महानगर पालिका के सदस्य श्रीकृष्ण भिड़े, नासिक स्थित भोंसले मिलिट्री स्कूल के मेजर प्रभाकर कुलकर्णी, ग्राहक पंचायत के बिन्दु माधव जोशी, पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति श्रीधर गुप्ते आदि उस समय २५-३० वर्ष के युवक थे। ये लोग उस समय रा.स्व. संघ के महाराष्ट्र के सर्वोच्च अधिकारी श्री बाबाराव भिड़े व श्री विनायक राव आप्टे से मिले और उनके सम्मुख सशस्त्र क्रांति की योजना रखी। सम्पूर्ण सोच-विचार के पश्चात्‌ अन्तिम निर्णय लिया गया।

इसके अनुसार ३१ जुलाई,१९५४ को मूसलाधार वर्षा में सौ-सवा सौ युवकों का जत्था दादरा नगर हवेली की राजधानी सिलवासा की ओर रवाना हुआ। हम कहां और किस लिए निकल पड़े हैं? इसकी जानकारी किसी को भी नहीं थी। श्री बाबाराव भिड़े और श्री आप्टे की आज्ञा "श्री वाकणकर जी के साथ जाइए', काफी थी। सर्वश्री विष्णु भोपले, धनाजी बुरुंगुले, पिलाजी जाधव, मनोहर निरगुड़े, शान्ताराम वैद्य, प्रभाकर सिनारी, बालकोबा साने, नाना सोमण, गोविन्द मालेश, वसंत प्रसाद, वासुदेव भिड़े एवं उनके साथी साहसी तरुणों ने नेता की आज्ञानुसार अंधेरे एवं मृत्यु के कुएं में छलांग लगा दी। किसी ने भी अपने स्वजनों को यह नहीं बताया कि वे जा कहां रहे हैं तथा कब आएंगे। घर जाएंगे तो अनुमति नहीं मिलेगी, इस डर से कुछ लोग सीधे स्टेशन चले गए। उनके पास केवल शरीर पर पहने हुए कपड़े ही थे। सशस्त्र आन्दोलन कैसे करना है, इसकी जानकारी किसी को भी नहीं थी, फिर भी वे अपने अभियान में सफल रहे। सर्वश्री राजाभाऊ वाकणकर, सुधीर फड़के, बाबा साहब पुरन्दरे, विश्वनाथ नरवणे, नाना काजरेकर आदि इस आन्दोलन के सेनानी थे। उन्होंने ६-७ महीने उस क्षेत्र में बारी-बारी से रहकर संग्राम स्थल की सारी जानकारी प्राप्त कर ली थी। श्री विश्वनाथ नरवणे गुजराती अच्छी बोलते थे। उन्होंने स्थानीय जनता से गुप्तरूप में मिलकर बहुत जानकारी प्राप्त की थी। श्री राजाभाऊ वाकणकर ने कुछ पिस्तौलें एवं अन्य शस्त्र जमा कर लिए थे। परन्तु इतने बड़े आन्दोलन को सफल करने हेतु आर्थिक सहायता की जरूरत थी। वह जिम्मेदारी श्री सुधीर फड़के ने ली। उन्होंने स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर को पूरी जानकारी देते हुए पुणे के हीराबाग मैदान में "लता मंगेशकर-रजनी' का कार्यक्रम आयोजित किया। लता दीदी ने यह कार्यक्रम नि:शुल्क किया। इस कार्यक्रम के माध्यम से काफी धन संग्रह हुआ, फिर भी वह कम था। अत: विभिन्न संस्थाआें और व्यक्तियों से मिलकर और अधिक धन-संग्रह किया गया।

इस प्रकार युद्धस्थल की छोटी-छोटी जानकारी, शस्त्र सामग्री एवं पैसा इकट्ठा होने के पश्चात्‌ श्री बाबाराव भिड़े ने पुणे के तरुणों को प्रतिज्ञा दिलाई। स्पष्ट शब्दों में सूचनाएं दीं एवं इस हेतु पथ्य-पालन करने के लिए कहाश् और "मेरा रंग दे बसंती चोला'-गीत गाते-गाते रा.स्व. संघ के संस्कारों से संस्कारित देशभक्तों की टोली अदम्य साहस के साथ निकल पड़ी। ३१ जुलाई की दोपहर में रेल से पुणे की एक टोली मुम्बई हेतु रवाना हुई। रास्ते में तलेगांव के वीर उनके साथ आ मिले। और उसी रात ये सभी गुजरात के लिए रवाना हुए। गुजरात-महाराष्ट्र की सीमा पर स्थित वापी शहर में पहला पड़ाव हुआ, जहां उन्हें आन्दोलन की पूरी जानकारी दी गई। श्री वाकणकर एवं श्री काजरेकर के नेतृत्व में दो अलग-अलग गुट बनाए गए। रात के अंधेरे और मूसलाधार वर्षा में भी ये सभी सावधानीपूर्वक आगे बढ़ने लगे। श् सिलवासा पुलिस चौकी के परिसर में आते ही पटाखे फूटने लगे। पुर्तगाली सैनिकों को वह आवाज बन्दूकों की आवाज लगी। वे डर गए और थोड़े ही समय पश्चात्‌ "आजाद गोमान्तक दल जिन्दाबाद, भारत माता की जय'-इन नारों के साथ विभिन्न गुट पुलिस चौकी में आ धमके। श् श्री विष्णु भोपले ने सामना करने आए एक सैनिक का हाथ काट डाला। यह देखकर बाकी सैनिक डर गए और इन सैनिकों ने शरण मांग ली। इन वीरों ने पुलिस चौकी एवं अन्य स्थानों को निष्कंटक कर दिया और २ अगस्त की सुबह पुतर्गाल का झंडा नीचे उतारकर भारत का तिरंगा फहरा दिया।

राष्ट्रगीत के पश्चात्‌ ध्वज-वन्दना हुई और सभी वीर उत्साह से आपस में गले मिले। १५ अगस्त को वहां स्वतंत्रता दिवस समारोह मनाकर सब वीर वापस लौटे। इस आन्दोलन में श्री विनायकराव आप्टे वापी तक उनके साथ चले थे। अपने नेता को अपने साथ चलता देखकर उन वीरों में उल्लास भर गया था। इस सारे आन्दोलन में पुणे में ली गई प्रतिज्ञा को एक क्षण के लिए भी इन वीरों ने भुलाया नहीं। किसी ने भी न तो किसी वस्तु की ओर आंख उठाई और न ही महिलाआें के सम्मान को क्षति पहुंचाई। जिस तरह वे जाते समय अनुशासित थे, उसी तरह वे आते समय भी थे। किन्तु ये लोग अपनी सफलता से गौरवान्वित थे।

इस संग्राम में दो महिलाओं का बहुत बड़ा योगदान था। एक थीं श्रीमती हेमवतीबाई नाटेकर, जिनका भारत की सीमा में सिलवासा के नजदीक एक सेवाश्रम था, जिन्होंने श्री वाकणकर, श्री काजरेकर, श्री नरवणे को पूर्व तैयारी हेतु आश्रम से सभी प्रकार की सहायता दी। यह स्थान क्रांतिकारियों के लिए आश्रय स्थान था। श्रीमती नाटेकर ने सभी प्रकार के खतरे उठाते हुए सहायता की थी। आज वह नहीं है, किन्तु उनका नाम अन्य क्रांतिकारियों के साथ अजर-अमर हो गया है।

दूसरी महिला जिनका अतुलनीय योगदान इस संग्राम में था, वह हैं श्रीमती ललिता फड़के, जो श्री सुधीर फड़के की धर्मपत्नी हैं। इस संग्राम के दौरान वह अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त कर अपने सहयोगियों की मदद करती थीं। उन्होंने श्री सुधीर फड़के के साथ निरन्तर कठिन प्रवास किया।

पचास वर्ष पूर्व का यह सशस्त्र क्रांति युद्ध कितना बड़ा था, कितने दिन चला, कितनों के वहां पर बलिदान हुए आदि की कसौटी पर इस संग्राम का मूल्यांकन करना गलत होगा। अहिंसा के काल में यह पहली सशस्त्र क्रांति थी, जिसके कारण गोवा मुक्त हो पाया। इस क्रांति में ऐसे कई युवक सहभागी हुए, जिन्होंने स्वयं की आहुति देने की तैयारी की थी, किन्तु इन लोगों ने अपने लिए कभी प्रसिद्धि प्राप्त नहीं की।