टेम्परा चित्रण

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कानवास पर टेम्परा चित्रण : पीटर ब्रुघेल की 'The Misanthrope' नामक कृति, 1568

टेंपरा (Tempera) चित्र बनाने का एक परंपरागत विधान (टेकनीक) है और आज भी बहु प्रचलित है। टेंपरा चित्रण की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें किसी प्रकार के संश्लेषयुक्त पदार्थ (बाइंडिंग मैटीरियल) के साथ जलीय रंगों (वाटर कलर) का प्रयोग करते हैं। उक्त पदार्थ गोंद, अंडा केसिन आदि हो सकता है। इसमें रंगों का पारदर्शी रूप में प्रयोग नहीं होता। दूसरी ओर शुद्ध जलीय रंगविधान (वाटर कलर टेकनीक) में रंग पारदर्शी ही रही हैं परंतु यह विधान दो-ढाई सौ वर्षों से ही चला है।

टेंपरा प्रणाली सभी देशों में प्रचलित है। इसके लिये दीवार, कपड़ा, काष्ठफलक, रेशम, कागज, भोजपत्र आदि कोई भी वस्तु आधार हो सकती है। उसपर टेंपरा प्रणाली से रंग लाकर चित्र बनाया जा सकता है। टेंपरा प्रणाली से भितिचित्रों के बनाने में उसपर एक विशेष प्रकार की जमीन तैयार करनी पड़ती है। उदाहरण के लिए अजंता में भीत को खुरदरा कर उसपर गोबर, कपड़े की महीन लुग्दी, छनी हुई मिट्टी, धान की भूसी और अलसी का लेप पलस्तर के रूप में किया गया। ऐसे कई स्तर एक के ऊपर एक करके लगाए गए कि वह शीशे के समान समतल हो गया। इस आधार या जमीन पर रंग लगाए गए, जो कुछ खनिज रंग थे जैसे गेरू, हिरौंजी, रामरज, कुछ पत्थरों को पीसकर बनाए गए जैसे लाजवर्द और दहने फिरंग, कुछ रासायनिक जैसे हरा ढाबा, आलतां, शंख या जस्ते से बना सफेदा आदि। भारत में इसी परंपरा का प्रयोग अन्य गुफाचित्रों में यथा बादामी, सित्तन्नवासल, तंजोर, कोचीन आदि में हुआ है। इसी प्रकार राजस्थानी, मुगल, पहाड़ी शैलियों में भी इसी का एक विभेद प्रयुक्त हुआ जिसे गुआश (Gouache) शैली कहते हैं। इसमें रंगों की कई तहें लगाते हैं, परंतु प्रत्येक दो तहों के बीच सफेदे की एक तह (अस्तर) दे देते। इससे रंग में सोने जैसी चमक आ जाती और उसकी तह मोटी हो जाती। परंतु प्राय: सफेदे में गोंद अधिक होने से ये रंग तड़ककर टूट गए।

चीन में चाऊ (Chou), तांग (Tang), सुंग (Sung), मिंग (Ming) आदि कालों में भी टेंपरा प्रणाली का उपयोग हुआ। यहाँ जमीन पर सरेस का अस्तर दिया जाता और कभी-कभी फिटकरी के पानी का।

जापान में भी इस विधान का प्रयोग हुआ, उदाहरणार्थ, होरियुजी (Horiyuji) मंदिर में चित्रित अवलोकितेश्वर की आकृति इसी प्रणाली में है।

यूरोप में एत्रुस्कुल चित्र, माइकीनी ग्रीक चित्र या इजिप्त के पिरामडों के चित्र इसी प्रणाली में बने हैं। रेनेसां (Renaissance) युग के जिओत्तो (Giotto), मासाच्चिओ (Masaccio), पिअरो देला फ्रांचेस्का (Peiro della Francesca), माइकेल ऐंजेलो आदि के चित्र इसी विधान में बने। तैल-चित्र-विधान 500 वर्षों से ही चल रहा है, उसके पूर्व टेंपरा का विधान था। अब भी कुछ चित्रकार इस शैली को पसंद करते हैं क्योंकि इसमें तूलिका बेरोक-टोक चलती है (रंगमाध्यम के कारण रुकती नहीं); रगों का भी अधिक सामंजस्य संभव है।

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