जेट नोदन
जेट नोदन या क्षिपप्रणोदन (Jet Propulsion), नोदन की वह विधि है जिसमें वस्तु पर आगे की तरफ धक्का लगाने के लिए उस वस्तु की गति की विपरीत दिशा में पदार्थ का जेट (जैसे वायु या जल का जेट) का उपयोग किया जाता है। इसकी क्रियाविधि न्यूटन के गति के तृतीय नियम पर आधारित है। यह एक प्रकार की प्रतिक्रिया प्रणोदन है अर्थात् इसमें प्रतिक्रिया की शक्ति को काम में लाया जाता है। यह नोदन प्रायः जेट इंजनों में उपयोग में लाया जाता है। इसी प्रकार अंतरिक्ष यानों के लिऐ भी जेट नोदन सबसे अधिक उपयोग में लाया जाता है। बहुत से जन्तुओं में भी जेट नोदन से आगे बढ़ने की प्रक्रिया देखी जाती है, जैसे शीर्षपाद, संधिपाद प्राणी, समुद्री खरगोश, तथा मछलियाँ।
न्यूटन के तीन प्रसिद्ध नियमों में से एक यह है कि हर कार्य की प्रतिक्रिया होती है। जैसे मेज के ऊपर यदि कोई भार दिया गया है, तो यह भार मेज को नीचे की ओर दबाने का कार्य कर रहा है और क्योंकि मेज इस भार को उठा रही है, इसलिए मेज का दबाव ऊपर की ओर है जिसके कारण भार उठा हुआ है। इसी ऊपरी दबाव को प्रतिक्रिया कहा जाता है और जहाँ भी कोई कार्य हो रहा हो, प्रतिक्रिया का किसी न किसी रूप में होना आवश्यक है। जब कोई बंदूक चलाई जाती है तो पीछे की ओर धक्का लगता है। यदि इस बंदूक के पीछे कोई गेंद रख दी जाए तो इस धक्के के कारण गेंद उछलकर बहुत दूर जा सकती है। प्रत्येक मशीन में क्रिया की शक्ति को ही काम में लाया जाता है और प्रतिक्रिया को सहन करने का प्रबंध किया जाता है, जैसे बंदूक में गोली को चलाया जाता है और उसके कारण धक्के को सहन किया जाता है। परंतु क्षिपप्रणोदन में इसी प्रतिक्रिया से वह काम लिया जाता है जो अच्छी मशीनें भी नहीं कर सकतीं।
हर प्रकार की मोटर गाड़ियों, हवाई तथा पानी के जहाजों के चलाने में पिस्टन इंजनों का उपयोग होता चला आया है। दिन प्रति दिन इन इंजनों में नई नई खोज होती रही और इनसे अधिक से अधिक शक्ति प्राप्त होने लगी। इन मशीनों की और अधिक तीव्र चाल की माँगों ने इन इंजनों के आकल्पन को यहाँ पहुँच दिया कि अब इनकी और उन्नति संभव नहीं। साथ ही साथ इस उन्नति के कारण इनकी मशीनें इतनी उलझ गईं कि इनकी सुविधा से बनाना और उपयोग करना कठिन हो गया। इसलिए गैस टरबाइन का उपयोग हुआ, जिसके कारण हवाई तथा पानी के जहाजों की गति अत्यधिक बढ़ सकी। अब क्षिपप्रणोदन को दो प्रकार से लिया जा सकता है, एक तो गैस टरबाइन के साथ और दूसरा केवल क्षिप का ही उपयोग।
यदि इस गैस के बाहर निकलने का छेद छोटा हो तो यह जोर के साथ बाहर निकलेगी, जिससे गाड़ी को धक्का लगेगा और वह आगे की ओर चलने लगेगी। जैसे जैसे गैस जोर से बाहर निकलेगी वैसे वैसे गाड़ी की चाल भी बढ़ती जायगी। यदि गाड़ी हलकी है और इनमें घर्षण नहीं होता। तो इसकी चाल अधिक तेज होगी। इस गाड़ी के इस प्रकार चलने का कारण यहाँ कहा जाता है कि यह गैस छेद से बाहर निकलती है तो बाहर की हवा से टकराती है और इसी कारण गाड़ी आगे बढ़ जाती है, परंतु वस्तुस्थिति यह नहीं है। यदि इसे बिना हवा के स्थान पर चलाया जाय तो इसकी चाल और भी तीव्र होगी। इसलिए यह केवल प्रतिक्रिया ही है इसको चलाती है। इस प्रकार पीछे निकलनेवाली क्षिप के दबाव के ही कारण यह शक्ति प्राप्त होती है।
जहाँ अधिक चाल की आवश्यकता हुई वहाँ क्षिपप्रणोदन का उपयोग किया गया। वस्तुत: क्षिपप्रणोदन का व्यवहार वहीं पर सफल होगा जहाँ अधिक गति की आवश्यकता हो। युद्धकाल में समय की बचत के लिए क्षिप हवाई जहाज की उन्नति हुई और उड़नेवाले बमगोलों में इसका उपयोग हुआ। भूमि पर चलनेवाली मशीनों में घर्षण अधिक होता है। और वे तीव्र गति से नहीं चलाई जा सकतीं। अत: उनमें क्षिपप्रणोदन लाभकर सिद्ध नहीं हुआ। क्षिपप्रणोदन की वास्तविक उन्नति हवाई तथा पानी के जहाजों में हुई। इस प्रकार के हवाई जहाजों के हलके इंजनों और तीव्र चाल ने समय को इतना घटा दिया है कि संसार के एक कोने से दूसरे कोने में बहुत थोड़े समय में ही पहुँचा जा सकता है।
क्षिपप्रणोदन के लिये सभी प्रकार के इंजनों के निमित्त एक ही नियम हैं। सब इंजन बाहर की हवा को अपने भीतर खींचते हैं और इसके भीतर हवा तथा ईंधन मिल जाते है, जहाँ दोनों जलकर फैलते है। इस फैलाव के कारण मशीन को धक्का लगता है। जलने के समय ईंधन और हवा की निष्पति अधिक होती है और जब मशीन चल पड़ती है तो हवा का मिश्रण अधिक हो जाता है। हवा तथा इंर्धन के जलने से जो गैस तैयार होती है उसको अधिक गति दी जाती है। गैस को अधिक गति उसी समय मिल सकती है जब उसे ठीक प्रकार से फैलने का अवसर दिया जाए। परंतु इस फैलाव में गैस की दाब घट जायगी, क्योंकि गैस को उसी हवा में छोड़ना है जहाँ से हवा को ईंधन के साथ मिलाने के लिये भीतर खींचा गया था। इसलिए दाब के घटने से पूरी शक्ति प्राप्त न होगी। जब तक गैस के पीछे पूरी दाब नहीं होगी, प्रणोदन समर्थ न होगा। अत: गैस के पीछे पूरी दाब प्राप्त करने के लिए संपीडक मशीन की व्यवस्था की जाती है। इस संपीडक को चलाने के लिए गैस टरबाइन लगाया जाता है। हवा को संपीडक बाहर से खींचकर टरबाइन की ओर पूरे बल केसाथ फेंकता है। टरबाइन तथा संपीडक के बीच ईंधन को इसी हवा में मिला दिया जाता है और इस मिश्रण को जलने का अवसर दिया जाता है। इसके जलने से आयतन तथा ताप एक ही दाब पर बढ़ते हैं। यह शक्ति इतनी होती है कि इससे टरबाइन भी चलाया जा सके और क्षिप के लिए भी इसमें पूरी गतिज ऊर्जा (kinetic energy) रह जाए।
संपीडक हवा को खींचकर दहन कोठरियों को देता है, जहाँ ईंधन पहले से जलता हुआ मिलता है और यह गैस अधिक ताप पर टरबाइन को जाती है। टरबाइन इस गैस से चलता है और यह टरबाइन संपीडक को भी चलाता है। टरबाइन से निकलकर यह गैस क्षिप की भाँति फैलती हुई अधिक दाब पर बाहर निकलती है। चलने के समय यह टरबाइन दूसरे इंजनों से कम ईंधन लेता है, परंतु गति बढ़ जाने पर यह सब इंजनों से कम ईंधन लेता है। ऊँचाई पर पहुँचकर तो यह और भी कम ईंधन खर्च करता है।
इस टरबाइन से चलनेवाले हवाई जहाज की गति आवश्यकतानुसार नहीं होती। समय की बचत और लंबी यात्राओं के लिये आवश्यक है कि हवाई जहाज का वजन कम हो और गति अधिक। यदि हवाई जहाज में केवल क्षिपप्रणोदन ही हो, जिसमें टरबाइन का उपयोग न हो तो ऐसा हो सकता है। इसकी मशीन में बहुत से कल पुरजों की आवश्यकता नहीं होती।
इस मशीन के केवल तीन भाग है। पहला भाग आगे का है जिसमे हवा के लिए कपाट हैं और ईंधन की नली है जिसके द्वारा पंप से ईंधन भीतर फेंका जाता है। इन कपाटों के समय पर खुलने से हवा भीतर जाती है। यह कपाट उस समय बंद होते हैं जब ईंधन और हवा जलकर गैस बन जाती है। ईंधन के जलने पर धड़ाका होता है और गैस बाहर की ओर भागती है। दूसरा भाग दहन कोठरी का है और तीसरा भाग इंजन के पीछे की नाली का है, जिसकी लंबाई इंजन की शक्ति के अनुसार रखी जाती है। जब इसको चलाना होता है तो इसमें सबसे पहले ईंधन छिड़का जाता है और आग लगा दी जाती है। इस समय हवा के कपाट खुल जाते हैं और हवा भीतर आकर ईंधन के साथ मिल जाती है। मिलावट ठीक प्रकार से की जाती है। ईंधन और हवा का मिश्रण लगभग २ मिलीसेंकड में जल जाता है और इसका ताप २५० सें. और दाब १०० प्रतिशत बढ़ जाती है। अब यह गैस नाली की ओर जाती है तो नाली में जाने से पहले यह फैलती है। जब यह नाली में जाती है तो नाली का व्यास छोटा होने के कारण इसका ताप ९००० सें. और दाब घटकर ९५ प्रतिशत हो जाती है। कोठरी से बाहर निकलने तक का समय ८ मिलीसेकेंड हो सकता है। इस प्रकार ईंधन और हवा के मिश्रण से उत्पन्न धड़ाका एक दूसरे के पश्चात् जल्दी जल्दी होती है। इसी धड़ाके के बल पर और गैस के तीव्र गति से बाहर निकलने के कारण प्रणोदन के लिए मशीन मिलती है। ईंधन को पहले बिजली से जलाया जाता है, किंतु मशीन के चलने पर दहन कोठरी इतनी तप जाती है कि ईंधन अपने आप ही जल जाता है। ईंधन की नाली की लंबाई इतनी रखी जाती है कि हवा के कपाट खुलने से पहले ही जली हुई गैस बाहर निकल जाए। इस प्रकार की मशीनों का उपयोग आपसे आप चलनेवाले बमगोलों में किया गया था और अब हवाई जहाजों में किया जाता है, परंतु इसक ो चलाने के लिए लंबे स्थान की आवश्यकता होती है और चलने के समय इसकी गति अधिक होनी चाहिए।
पहले यह विचार था कि पिस्टन इंजन के स्थान पर क्षिपप्रणोदन का व्यवहार करने पर बहुत ज्यादा कल पुरजों की आवश्यकता नहीं होगी, परंतु ऐसा नहीं हुआ। क्षिपप्रणोदन के उपयोग के साथ ही यह पता चला कि केवल ईंधन के पंपों को बड़ी सावधानी से बनाना है और ईंधन तथा हवा का नियंत्रण ठीक रखना नितांत आवश्यक हैं।
मान लें गैस निकलने का परिमाण म प्रति सेकेंड है और इसकी गति ग है। मशीन को चलानेवाली शक्ति म x ग हुई। यदि गैस के बाहर निकलने के स्थान का क्षेत्रफल क्ष है तो इस स्थान पर दो दाबें होंगी, एक तो बाहर निकलनेवाली गैस की दाब जो नि१ है और दूसरी इस स्थान पर हवा की दाब, जो, मान लें, नि२ है। ये दोनों दाबें एक दूसरे के विरुद्ध होंगी। इसलिए इस स्थान पर दाब होगी क्ष (नि१-नि२) जो म x ग के साथ काम करेगी। इसलिए प्रणोदन की पूरी शक्ति = म x ग + क्ष (नि१-नि२) होगी।
यदि गैस बाहर निकलनेवाली छेद को ऐसा बनाया जाए कि गैस फैलकर दाब नि२ तक आ जाए तो नि१= नि२, इसलिए शक्ति =म x ग। यही प्रणोदय का समीरकण कहा जाता है।
- कार्यानुपात = (2 V x N / V2) + N2
प्रणोदन का कार्यानुपात निम्नांकित समीकरण से दिखाया जा सकता है।
जहाँ ग (V) क्षिप की गति है और र (N) मशीन के चलने की गति। यह कार्यानुपात महत्तम होगा यदि ग=र, अर्थात् मशीन की चाल यदि क्षिप की चाल के बराबर हो।
इन्हें भी देखें न्युटन का तिसरा नियम
जेट इंजन न्यूटन की गति का तृतीय नियम संवेग संरक्षन का नियम