जीवजाति का उद्भव
पृथ्वी पर जीवों का किस प्रकार आविर्भाव हुआ और किस प्रकार उनका विकास हुआ, इसके विषय में हमेशा से बड़ा हो वाद विवाद रहा है। नए प्रकार के जीव की उत्पत्ति के विषय में चार्ल्स डार्विन ने 1859 ईo में 'प्राकृतिक वरण' (Natural Selection) का सिद्धांत प्रतिपादित किया और 1859 ईo में एक पुस्तक 'जीवजाति का उद्भव', (On The Origin of Species), प्रकाशित की।
जीवन-संघर्ष
प्राकृतिक वरण के सिद्धांत की पुष्टि के लिये उन्होंने "जीवन-संघर्ष (Struggle for Existence) " का एक सहायक सिद्धांत उपस्थित किया। जीवन संघर्ष जीवविज्ञान में प्रयुक्त होनेवाली एक उक्ति है, जिसका तात्पर्य है अपने अस्तित्व के लिये जीवों का परस्पर संघर्ष। इसके अनुसार जीवों में जनन बहुत ही द्रुत गति और गुणोत्तर अनुपात में होता है, किंतु जीव जितनी संख्या में उत्पन्न होते हैं, उतनी संख्या में जीने नहीं पाते, क्योंकि जिस गति से उनकी संख्या में वृद्धि होती है उसी अनुपात में वासस्थान और भोजन में वृद्धि नहीं होती, वरन् स्थान और भोजन सीमित रहते हैं। अतएव वासस्थान और भोजन के लिये जीवों में अनवरत संघर्ष चलता रहता है। इस संघर्ष में बहुसंख्या में जीव मर जाते हैं और केवल कुछ ही जीवित रह पाते हैं। इस प्रकार प्रकृति में विभिन्न जीवों की संख्या में एक संतुलन बना रहता है। उदाहरण के लिये हाथी जैसा मंद गति से जनन करनेवाला प्राणी भी यदि बिना किसी बाधा के गुणोत्तर अनुपात में जनन करने के लिये स्वतंत्र कर दिया जाय तो चार्ल्स डार्विन ने हिसाब लगाकर दिखाया कि एक जोड़ा हाथी, जिसकी आयु 100 वर्ष तक हो और 30 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर जनन प्रारंभ करे तथा अपने संपूर्ण जीवन काल में केवल छ: बच्चे दे और ये बच्चे भी माँ बाप की भाँति जनन करने लगें तथा यही क्रम बना रहे तो 750 वर्षों में सब हाथियों की संख्या एक करोड़ नब्बे लाख हो जाएगी।
इसी भाँति यदि एक जोड़ा खरगोश एक जनन में छ: बच्चे जने तथा एक साल में चार बार बच्चे दे और ये बच्चे भी छ: महीने की अवस्था में जनन करने लगें तो इस क्रम से थोड़े ही समय में खरगोशों की बहुत बड़ी संख्या हो जाएगी। हक्सले (Huxley) गणना द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यदि एक हरी मक्खी (Greenfly) की सभी संतानें जीवित रहने पाएँ और सभी जनन करें तो केवल एक ग्रीष्म ऋतु के अंत में चीन की संपूर्ण जनसंख्या से भी ये बढ़ जाएँगी। इसी भाँति एक जोड़ा घरेलू मक्खी से यदि ग्रीष्म ऋतु में छ: पीढ़ियाँ उत्पन्न हों और प्रत्येक पीढ़ी के उत्पन्न होने में तीन सप्ताह का समय लगे तथा प्रत्येक 2,00,000 मक्खियों के लिये एक घनफुट स्थान को आवश्यकता हो, तो उनकी छ: पीढ़ियों में उत्पन्न संतानों के लिये 1। 4 करोड़ घन फुट स्थान की आवश्यकता होगी।
एक सिंघी मछली एक ऋतु में छ: करोड़ अंडे देने की क्षमता रखती है। यदि ऐसी सिंघी के एक जनन के सभी अंडों से संतान उत्पन्न हो और वे सभी जीवित रहें तथा सभी को जनन करने का अवसर प्राप्त हो तो इस प्रकार पाँच पीढ़ियों में उनकी संख्या 66,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,000 हो जाएगी। इनके छिलके के ढेर का द्रव्यमान पृथ्वी के द्रव्यमान का आठ गुना होगा।
पैरामीशियम (Paramecium) 48 घंटे में तीन बार विभाजन करता है। यदि इसकी सब संतानें पाँच वर्ष तक जीवित रहे तो उनके जीवद्रव्य का आयतन पृथ्वी के आयतन का लगभग दस हजार गुना हो जाएगा। 9,000 पीढ़ियों के पश्चात् तो यह भूमंडल में न समा सकेगा तथा रिक्त स्थान में प्रकाश की गति से फैलता चला जाएगा।
केवल ऊपर निर्दिष्ट वर्गों से ही नहीं वरन् प्राय: सभी वर्गों के जीवों में जनन बहुत तेजी से निरंतर होता रहता है। अत: जीवों की इस बढ़ती हुई संख्या पर किसी प्रकार का नियंत्रण होना बहुत ही आवश्यक है, अन्यथा किसी एक ही वर्ग का जीव इतनी संख्या में हो जाएगा कि अन्य वर्ग के जीव के लिये पृथ्वी पर स्थान ही नहीं मिलेगा। परंतु ऐसा होने नहीं पाता। प्राकृतिक वरण का इस वृद्धि पर बहुत बड़ा नियंत्रण रहता है। क्योंकि जीवों की संख्या में जिस गति से वृद्धि होती है उसी अनुपात में भोजन और स्थान में वृद्धि नहीं होती और दोनों सीमित रहते हैं, अतएव भोजन और स्थान के लिये जीवों में परस्पर स्पर्धा और संघर्ष चलता रहता है। इस संघर्ष में वे ही जीव सफल होते हैं जिनमें अन्य जीवों से विशेषता और भिन्नता होती है। उदाहरणार्थ, वनस्पतियों में अंकुर निकलने के पश्चात् खाद्य पदार्थ, धूप और प्रकाश के लिये परस्पर स्पर्धा प्रारंभ हो जाती है और एक दूसरे को पीछे छोड़ आकाश की ओर बढ़ने की चेष्टा में लगते हैं। जो पौधे आगे नहीं बढ़ पाते वे पड़ोसी पौधे की छाया में आ जाते हैं और उनकी वृद्धि कम हो जाती है। वे पौधे जो इस प्रतियोगिता में सफल होते हैं जीवित रहते हैं तथा अन्य मर जाते हैं।
इस प्रकार का संघर्ष केवल एक ही वर्ग अथवा जाति के जीवों में नहीं वरन् एक वर्ग का दूसरे वर्ग या जाति के साथ भी, चलता रहता है। वस्तुत: जीवनसंघर्ष तीन प्रकार के हैं:
क. अंतर्जातीय संघर्ष (Intra-specific struggle)
ख. अंतराजातीय संघर्ष (Inter-specific struggle)
ग. पर्यावरण संघर्ष (Environmental struggle)
अंतर्जातीय संघर्ष
यह प्राय: एक ही जाति या वर्ग के जीवों में चलता है, जैसे मनुष्य का मनुष्य से, कुत्ते का कुत्ते के साथ संघर्ष अंतर्जातीय संघर्ष है। अंतराजातीय संघर्ष की अपेक्षा अंतर्जातीय संघर्ष बहुत ही तीव्र होता है। एक जाति के सभी सदस्यों की आवश्यकताएँ समान होती हैं। अतएव उनमें से प्रत्येक को आवश्यकता की पूर्ति के लिये हर कदम पर संघर्ष करना पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय युद्ध की धमकियाँ, अथवा युद्ध का छिड़ना, भी जीवन संघर्ष ही तो है।
अंतराजातीय संघर्ष
यह प्राय: दो अथवा दो से अधिक भिन्न-भिन्न वर्गों और जातियों के जीवों में चलता है। नेवले और साँप के बीच, साँप और मेढक के बीच, कुत्ते और बिल्ली के बीच अथवा बिल्ली और चूहे के बीच के संघर्ष इसके उदाहरण हैं। इसमें एक जीव तो अपने शत्रुओं से हमेशा अपनी रक्षा की चेष्टा में रहता है और दूसरा सर्वदा अपने शिकार की टोह में लगा रहता है। अत: यह संघर्ष शिकार और शिकारी का आपस का संघर्ष कहा जा सकता है। शिकारी और शिकार में लुकाछिपी का खेल बराबर चलता रहता है। एक बचने के प्रयास में रहता है तो दूसरा उसकी खोज में रहता है।
पर्यावरण संघर्ष
जीवों को उपर्युक्त दोनों प्रकार के संघर्षों के अतिरिक्त पर्यावरण संघर्ष का भी सामना करना पड़ता है। यह संघर्ष उनके अपने प्राकृतिक वातावरण और परिस्थितियों के साथ होता है। जीवों को दैविक और भौतिक शक्तियों, जैसे व्याधि, आर्द्रता, शुष्कता, गर्मी, सर्दी, आंधी, तूफान, भूकंप, ज्वालामुखी का उद्गार, बिजली की चमक, बाढ़, प्रचंड धूप, लू इत्यादि का भी सामना करना पड़ता है। इस प्रकार के संघर्षों में वही जीव जीवित रह पाता है, जो अपने प्रतिद्धंद्धी से जरा बीस पड़ता है, जिसमें किसी प्रकार की विशेषता होती है और जो संघर्ष में सफल हो बच निकलने में सक्षम होता है।
जिस प्रकार एक कुशल माली बगीचे से, अथवा एक चतुर किसान अपने खेत से कमजोर अथवा हानिकारक पौधों को निकाल फेंकता है, उसी प्रकार प्रकृति उपर्युक्त जीवनसंघर्ष द्वारा दर्बुल और अक्षम जीव को अपनी वाटिका से उखाड़ फेंकती है, योग्य और होनहार जीवों को ही विकसित होने का अवसर प्रदान करती है तथा उनकी संख्याओं में संतुलन बनाए रहती है।
जीवों में परस्पर संघर्ष के परिणाम स्वरूप उनकी रचना में विशेषता अथवा भिन्नता उत्पन्न होती है तथा यह विशेषता उनकी संतान में चली जाती है। इस प्रकार पीढ़ी दर पीढ़ी उन्नत विशेषताएँ उत्पन्न होकर ऐसी जाति तैयार करती हैं, जो आदि जीवों से भिन्न प्रतीत होने लगती है और एक नई जीवजाति के रूप में स्थापित हो जाती है।
प्रभाव और प्रतिक्रिया
इस पुस्तक की पूरे विश्व में चर्चा और प्रतिक्रिया हुई। प्रारंभिक प्रतिक्रिया के ज्यादातर प्रतिकूल ही थी लेकिन बाद में डार्विन के कार्य को गंभीरता से लिया जाने लगा तथा उनका नाम एक सम्मानित नाम बन गया।
संदर्भ ग्रंथ
- डार्विन, सीo आरo : दि ओरिजिन ऑव स्पीसीज़, 1875 ईo;
- लल रिचार्ड स्वान: ऑर्गैनिक इवोल्यूशन, 1952 ईo
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- The Complete Works of Charles Darwin Online:
- Table of contents, bibliography of On the Origin of Species – links to text and images of all six British editions of The Origin of Species, the 6th edition with additions and corrections (final text), the first American edition, and translations into Danish, Dutch, French, German, Polish, Russian and Spanish.
- Online Variorum, showing every change between the six British editions.
- The Origin of Species: An Outline, A short, accessible outline of the book.
- Origin of Species, full text with embedded audio.
- Victorian Science Texts
- Darwin Correspondence Project Home Page, University Library, Cambridge.
- PDF scans at Archive.org