जायसी का बारहमासा
नेविगेशन पर जाएँ
खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
जायसी का बारहमासा मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य पद्मावत का एक हिस्सा है।नागमती (रत्नसेन की विवाहिता पत्नी ) अपने प्रियतम रत्नसेन के वियोग में व्याकुल है। रत्नसेन जब से चित्तौड़ छोड़ कर गए हैं तब से वापस नहीं आये , नागमती को ऐसा लगता है कि शायद हमारे प्रियतम किसी अन्य युवती के प्रेम -जाल के बन्धन में बंध गए हैं। पति के समीप रहने पर जो प्रकृति सुखकारी थी अब वही प्रकृति पति के दूर रहने पर नागमती के लिए अत्यधिक पीड़ा दायक है। नागमती कहती है :
- नागर काहु नारि बस परा। तेइ मोर पिउ मोसों हरा।
सखियों द्वारा नागमती को धैर्य धारण का प्रयास
- पाट महादेइ! हिये न हारू। समुझि जीउ, चित चेतु सँभारू॥
- भौंर कँवल सँग होइ मेरावा। सँवरि नेह मालति पहँ आवा॥
- पपिहै स्वाती सौं जस प्रीती। टेकु पियास, बाँधाु मन थीती॥
- धरतिहि जैस गगन सौं नेहा। पलटि आव बरषा ऋतु मेहा॥
- पुनि बसंत ऋतु आव नवेली। सो रस, सो मधुकर , सो बोली ॥
- जिनि अस जीव करसि तू बारी। यह तरिवर पुनि उठिहि सँवारी ॥
- दिन दस बिनु जल सूखि बिधंसा। पुनि सोइ सरवर सोई हंसा॥
- मिलहिं जो बिछुरे साजन, अंकम भेंटि गहंत।
- तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत॥[१][२]
आषाढ़ मास में नागमती की विरह -वेदना
- चढ़ा असाढ़ ,गगन घन गाजा। साजा विरह दुंद दल बाजा।।
- धूम साम, धौरे घन धाए। सेत धजा बग पाँति देखाए।।
- खड्ग बीजु चमकै चहुँ ओरा। बुंद बान बरसहिं घन घोरा।।
- ओनई घटा आइ चहुँ फेरी। कंत ! उबारु मदन हौं घेरी।।
- दादुर मोर कोकिला ,पीऊ। घिरै बीजु, घट रहै न जीऊ।।
- पुष्य नखत सिर ऊपर आवा। हौं बिनु नाह ,मंदिर को ?
- अद्रा लाग लागि भुइँ लेई। मोहिं बिनु पिउ को आदर देई।।
- जिन घर कंता ते सुखी ,तिन्ह गारो औ गर्व।
कंत पियारा बाहिरै ,हम सुख भूला सर्व।।[१][२]
श्रावण मास में नागमती की विरह -वेदना
- सावन बरस मेह अति पानी। भरनि परी ,हौं विरह झुरानी।।
- लाग पुनरबसु पीउ न देखा। भइ बाउरि ,कहँ कंत सरेखा।।
- रक्त कै आँसु परहिं भुइँ टूटी। रेंगि चली जस बीरबहूटी।।
- सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला। हरियर भूमि कुसुम्भी चोला।।
- हिय हिंडोल अस डोलै मोरा। बिरह भुलाइ देइ झकझोरा।।
- बाट असूझ अथाह गँभीरी। जिउ बाउर भा फिरै भँभीरी।।
- जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी। मोरि नाव खेवक बिनु थाकी।।
- परबत समुद अगम्य बिच ,बीहड़ घन बन ढाँख।
- किमि कै भेटौं कंत तुम्ह ? ना मोहिं पाँव न पंख।।[१][२]
भाद्रपद मास में नागमती की विरह -वेदना
- भा भादों दूभर अति भारी। कैसे भरौं रैनि अँधियारी।।
- मंदिर सून पिउ अनतै बसा। सेज नागिनी फिरि फिरि डसा।।
रही अकेलि गहे एक पाटी। नैन पसारि मरौं हिय फाटी।।
- चमक बीजु घन तरजि तरासा। बिरह काल होइ जीउ गरासा।।
- बरसै मघा झकोरि झकोरी। मोरि दुइ नैन चुवैं जस ओरी।।
- धनि सूखै भरे भादौं माहाँ। अबहुँ न आएन्हि सीचेन्हि नाहाँ।।
- पुरबा लाग भूमि जल पूरी। आक जवास भई तस झूरी।।
- जल थल भरे अपूर सब ,धरति गगन मिलि एक।
- धनि जोबन अवगाह महँ दे बूड़त पिउ ! टेक।।[१][२]
आश्विन मास में नागमती की विरह -वेदना
- लाग कुवार ,नीर जग घटा। अबहुँ आउ ,कंत ! तन लटा।।
- तोहि देखे पिउ ! पलुहै कया। उतरा चीतु बहुरि करु मया।।
- चित्रा मित्र मीन कर आवा। पपिहा पीउ पुकारत पावा।।
- उआ अगस्त ,हस्ति घन गाजा। तुरय पलानि चढ़े रन राजा।।
- स्वाति बूँद चातक मुख़ परे। समुद सीप मोती सब भरे।।
- सरवर सँवरि हंस चलि आये। सारस कुरलहिं ,खँजन दिखाए।।
- भा परगास , बाँस बन फूले। कंत न फिरे बिदेसहिं भूले।।
- बिरह हस्ति तन सालै ,घाय करै चित चूर।
- बेगि आइ पिउ ! बाजहु ,गाजहु होइ सदूर।।[१][२]
कार्तिक मास में नागमती की विरह -वेदना
- कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल ,हौं बिरहै जारी।।
- चौदह करा चाँद परगासा। जनहुँ जरै सब धरति अकासा।।
- तन मन सेज जरै अगिदाहू। सब कह चंद ,भएहु मोहि राहू।।
- चहूँ खंड लागै अँधियारा। जौ घर नाहीं कंत पियारा।।
- अबहुँ ,निठुर !आउ एहि बारा। परब देवारी होइ संसारा।।
- सखि झूमक गावैं अंग मोरी। हौं झुराव बिछुरी मोरि जोरी।।
- जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा। मो कह बिरह ,सवति दुःख दूजा।।
- सखि मानें तिउहार सब ,गाइ देवारी खेल।
- हौं का गावौं कंत बिनु ,रही छार सर मेलि।।[१][२]
मार्गशीर्ष मास में नागमती की विरह -वेदना
- अगहन दिवस घटा ,निसि बाढ़ी। दूभर रैनि ,जाइ किमि गाढ़ी।।
- अब यहि बिरह भा राती। जरौ बिरह जस दीपक बाती।।
- काँपै हिया जनावै सीऊ। तो पै जाइ होइ संग पीउ।।
- घर घर चीर रचे सब काहू। मोर रूप रंग लेइगा नाहू।।
- पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहुँ फिरै ,फिरै रंग सोई।।
- बज्र अगिनि बिरहिन हिय जारा।सुलुगि,सुलुगि दगधै होइ छारा।।
- यह दुःख दरद न जानै कंतू। जोवन जनम करै भसमंतू।।
- पिउ सों कहेउ संदेसडा , हे भौंरा ! हे काग !
- सो धनि बिरहै जरि मुई ,तेहि क धुवाँ हम्ह लाग।।[१]
पौष मास में नागमती की विरह -वेदना
- पूस जाड़ थर थर तन काँपा। सुरुजु जाइ लंका दिशि चाँपा।।
- बिरह बाढ़ दारुन भा सीऊ। कँपि कँपि मरौं ,लेइ हरि जीऊ।।
- कंत कहाँ लागौं ओहि हियरे। पंथ अपार , सूझ नहिं नियरे।।
- सौर सपेती आवै जूड़ी। जानहु सेज हिवंचल बूड़ी।।
- चकई निसि बिछुरै दिन मिला हौं दिन राति बिरह कोकिला।।
- रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसे जियै बिछोही पंखी।।
- बिरह सचान भएउ तन जाड़ा। जियत खाइ औ मुये न छाँड़ा।।
- रकत ढुरा माँसू गरा , हाड़ भएउ सब संख।
- धनि सारस होइ ररि मुई ,पीऊ समेटहिं पंख।।[१]
माघ मास में नागमती की विरह -वेदना
- लागेउ माघ ,परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड़काला।।
- पहल पहल तन रुई झाँपै। हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै।।
- आइ सूर होइ तपु ,रे नाहा। तोहि बिनु जाड़ न छूटै माहा।।
- एहि माह उपजै रसमूलू। तू सो भौंर ,मोर जोवन फूलू।।
- नैन चुवहिं जस महवट नीरू। तोहि बिनु अंग लाग सर चीरु।।
- टप टप बूँद परहिं जस ओला। बिरह पवन होइ मारै झोला।।
- केहि क सिंगार को पहिरु पटोरा। गीउ न हार। रही होइ डोरा।।
- तुम बिनु काँपै धनि हिया ,तन तिनउर भा डोल।
- तेहि पर बी`बिरह जराइ कै,चहै उडावा झोल।।[२][३]
फाल्गुन मास में नागमती की विरह -वेदना
- फागुन पवन झकोरा बहा। चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा।।
- तन जस पियर पात भा मोरा। तेहि पर बिरह देहि झकझोरा।।
- तरिवर झरहिं बन ढाखा। भइ ओनंत फूलि फरि साखा।।
- करहिं बनसपति हिये हुलासू। मो कह भा दून उदासू।।
- फागु करहिं सब चाँचरि जोरी। मोहिं तन लाइ दीन्ह जस होरी।।
- जो पै पीउ जरत अस पावा। जरत मरत मोहिं रोष न आवा।।
- राति दिवस सब यह जिउ मोरे। लगौं निहोर कंत अब तोरे।।
- यह तन जारौं छार कै ,कहउँ कि पवन उड़ाव।
- मकु तेहि मारग उड़ि परै ,कंत धरैं जहँ पाव।।[२][३]
चैत्र मास में नागमती की विरह -वेदना
- चैत बसंता होइ धमारी। मोहिं लेखे संसार उजारी।।
- पंचम बिरह पंच सर मारै। रकत रोइ सगरौ बन ढ़ारै।.
- बूढ़ि उठे सब तरिवर पाता। भीजि मजीठ ,टेसु बन राता।।
- बौरे आम फरें अब लागे। अबहुँ आउ घर ,कंत सभागे।।
- सहस भाव फूली बनसपती। मधुकर घूमहिं सँवरि मालती।।
- मो कह फूल भये सब काँटे। दिस्टि परत जस लागहिं चाँटे।।
- फिर जोवन भए नारँग साखा।सुआ बिरह अब जाइ न राखा।।
- घिरिनि परेवा होइ पिउ ! आउ बेगि परु टूटि।
- नारि पराए हाथ है ,तोहि बिनु पाव न छूटि।। [२][३]
वैशाख मास में नागमती की विरह -वेदना
- भा बैसाख तपनि अति लागी। चोआ चीर चँदन भा आगी।।
- सूरज जरत हिवंचल ताका। बिरह बजागि सौंह रथ हाँका।।
- जरत बजागिनि करु,पिऊ छाहाँ। आइ बुझाउ अंगारन्ह माहाँ।।
- तोहि दरसन होइ सीतल नारी। आइ आगि तें करु फुलवारी।।
- लागिउँ जरै ,जरै जस भारू। फिर फिर भूँजेसि तजेउँ न बारू।।
- सरवर हिया घटत निति जाई। टूक टूक होइ कै बिहराई।।
- बिहरत हिया करहु ,पिउ ! टेका। दीठि दवँगरा मेरवहु एका।।
- कँवल जो बिगसा मानसर ,बिनु जल गयउ सुखाइ।
- कबहुँ बेलि फिरि पलुहै ,जाऊ पिऊ सींचै आइ।।[३]
ज्येष्ठ मास में नागमती की विरह -वेदना
- जेठ जरै जग, चलै लुवारा। उठहिं बवंडर परहिं अँगारा।
- बिरह गाजि हनुवँत होइ जागा। लंकादाह करै तनु लागा।।
- चारिहु पवन झकोरै आगी। लंका दाहि पलंका लागी।।
- दहि भइ साम नदी कालिंदी। बिरह क आगि कठिन अति मंदी।।
- उठै आगि औ आवै आँधी। नैन न सूझ मरौं दुःख बाँधी।।
- अधजर भयउँ ,मासु तन सूखा। लागेउ बिरह काल होइ भूखा।।
- माँसु खाइ सब हाडन्ह लागै। अबहुँ आउ ,आवत सुनि भागै।।
- गिरि,समुद्र,ससि ,मेघ,रवि,सहि न सकहिं यह आगि।
- मुहमद सती सराहिये ,जरै जो अस पिउ लागि।।[३]