छत्तीसगढ़ के उत्सव

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छत्तीसगढ़ में बहुत से त्यौहार, पर्व व उत्सव मनाए जाते हैं।

होली

जातीय उत्साह की अभिव्यक्ति का एक और उम्दा माध्यम है, छत्तीसगढ़ के अपने तीज-त्यौहार हैं। हिन्दुओं के त्यौहार ही प्रायः मानते हैं। अलबत्ता कुछेक त्यौहार जरुर ऐसे होते हैं जो खास महत्व लिए रहते हैं। इन्हीं में फागुन की मस्ती में डूबा होली विशेष त्यौहार है। होली देवार में काफी उमंग-हड़दंग के संग मनती है। इस दिन समूचा कुनबा महुये की मदमस्ती में मस्त हो जाता है। मांदर, ढोल मंजीरे के संग गीत भी गाये जाते है। होली पर किसी चिन्हित स्थान पर एकत्र होने का चलन है। इस रोज शुभ मुहुर्त देखकर बैगा अनुष्ठान करना है और उसकी अनुमति के उपरांत प्रतीकात्मक होली जलाई जाती है। वृद्ध-जवान और बच्चा मंडली भी मदिरा पीकर लोट-पोट होती है।

पोरा

देवारों में पोरा काफी महत्व है। अलबला तीजा नहीं मानते। सामान्यतः बहन को भाई जिस तरह अपने घर लाते हैं उस परंपरा की बजाय बहन ससुराल में रहकर ही तीजा मानती है। वहीं व्रत-उपवास आदि होता है। लेकिन वस्त्रादि उपहार स्वद्वप देने का कोई चलन नहीं है। पोरा में कुम्हारों से मिट्टी की कुछ वस्तुयें खरीदकर उसकी पूजा के बाद बलि दी जाती है। भादो के शुक्ल पक्ष में ठाकुर देव को भी ये लोग बड़ी आस्था से पूजते हैं और बलि के बाद प्रसाद बंटता है।

सकट

देवारों में सकट का अत्यधिक महत्वपूर्ण पर्व है। सकट में महिलायें अपने माता-पिता के घर आती है। उपवास रखा जाता है। सामूहिक भोज से उपवास तोड़ा जाता है। परिजन वस्त्र, श्रृंगार सामग्रियां अपनी कन्या को देते हैं।

हरेली

हरेली यद्यपि खेतिहर-समाज का पर्व है फिर भी इसके दूसरे स्वरुप यानी तंत्र मंत्र वाले हिस्से को देवारों का वर्ग मानता है। जिस तरह छत्तीसगढ़ के ग्राम्यांचलों में बुरी-बलाओं को बाहर ही रखने नीम की पत्तियों को लवय की तरह इस्तेमाल करते है। उसी तरह देवार भी नीम की डंगालों का सहारा लेते है। सुअर डेरा के बाहर नीम की पत्तियां खोंसी जाती हैं। अपने संगीतिक उपकरण को भी हरेली पर पूजते हैं। लेकिन व्यापक तौर पर हरेली का उत्सव नहीं मनता।

हरेली के अवसर पर नीम के साथ एक ग्रामीण

नृत्य-गान

देवारों की प्रामणिक पहचान उनका सांस्कृतिक ज्ञान हैं। जन-सामान्य में भी उनके इसी रूप की सर्वाधिक ख्याति हैं। इन्हें प्रतिष्ठा दिलवाने में गायन, वादन एवं नृत्य पर इनका अचूक अधिका माना गया हैं। इस जन्म-जात और असाधारण कला-ज्ञान के चलते हर हमेशा से देवार जीवंत बने हुए हैं। जीवन के प्रत्येक पल में गीत नृत्य की खनक दीवारों का जातीय गुण हैं। इनकी इसी विशेषता के दर्शन रोजमर्रा की दिनचर्या में सायंकाल के समय में डेरा में आसानी से कर सकते हैं। जीविकोपार्जन का एक ठोस माध्यम तो यह हैं ही, वाद्य, गायन एवं नर्तन इन तीन बिंदुओं के सहारे भी इनकी विशेषतायें समझी जा सकती है। सांगीतक भेद को आधार मानें तो रायपुरिहा और रतनपुरिहा देवारों की अलग-अलग पहचान हैं। जो इन्हें समझने में भी सहायक बनते हैं।