छत्तीसगढ़ की होरी
छत्तीसगढ़ में होली को होरी के नाम से जाना जाता है और इस पर्व पर लोकगीतों की अद्भुत परंपरा है। ऋतुराज बसंत के आते ही छत्तीसगढ़ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं। बसंत पंचमी को गांव के बईगा (गांव का मांत्रिक जो देवी मंदिर में पूजा करता है) द्वारा होलवार (वह स्थान होली जहां जलती है) में कुकरी (मुर्गी) के अंडे को पूज कर कुंआरी बबूल (बबूल का नया छोटा पेड़) की लकड़ी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आह्वान से साथ प्रारंभ होता है। किसानों के घरों में नियमित रूप से हर दिन पकवान बनने की परंपरा शुरू हो जाती है, जिसे तेलई चढना कहते हैं। अईरसा (अनरसे), देहरौरी (एक पकवान) व भजिया (पकौड़े) नित नये पकवान, बनने लगते हैं। छत्तीसगढ में लडकियां विवाह के बाद पहली होली अपने माता पिता के गांव में ही मनाती है एवं होली के बाद अपने पति के गांव में जाती है इसके कारण होली के समय गांव में नवविवाहित युवतियों की भीड रहती है। सरररा... रे भाई सुनले मोर कबीर ... के साथ चढाव में बजते मादर (मादल या मृदंग) में कुछ पलो के लिए खामोशी छा जाती है गायक-वादक के साथ ही श्रोताओं का ध्यान कबीर पढने वाले पर केन्द्रित हो जाती है। वह एक दो लाईन का पद सुरीले व तीव्र स्वर में गाता है। यह कबीर या साखी फाग के बीच में फाग के उत्साह को बढाने के लिए किसी एक व्यक्ति के द्वारा गाया जाता है एवं बाकी लोग पद के अंतिम शव्दों को दुहराते हुए साथ देते है। इसके साथ ही कबीर के दोहे या अन्य प्रचलित दोहे, छंद की समाप्ति के बाद पढे जाते है पुन: वही फाग अपने पूरे उर्जा के साथ अपने चरमोत्कर्ष पर पहुच जाता है। गांव के चौक-चौपाल में फाग के गीत होली के दिन सुबह से देर शाम तक निरंतर चलते हैं। रंग भरी पिचकारियों से बरसते रंगों एवं उडते गुलाल में मदमस्त छत्तीसगढ अपने फागुन महराज को अगले वर्ष फिर से आने की न्यौता देता है।