चौथा आंग्ल-मैसूर युद्ध
चौथा आंग्ल-मैसूर युद्ध | |||||||
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आंग्ल-मैसूर युद्ध का भाग | |||||||
युद्ध क्षेत्र का एक नक्शा | |||||||
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योद्धा | |||||||
साँचा:flagicon image मैसूर साँचा:flagicon image कर्नाटक के नवाब मुगल साम्राज्य |
साँचा:flagicon image ईस्ट इंडिया कंपनी साँचा:flagicon image हैदराबाद दक्कन | ||||||
सेनानायक | |||||||
साँचा:flagicon image टीपू सुल्तान † साँचा:flagicon image मीर गोलम हुसैन साँचा:flagicon image मोहम्मद हूलिन मीर मिरन साँचा:flagicon image उमदत उल-उमरा साँचा:flagicon image मीर सादिक गुलाम मोहम्मद खान |
जनरल जॉर्ज हैरिस निजाम अली खान मेजर जनरल डेविड बेयर जेम्स स्टुअर्ट |
चौथा आंग्ल-मैसूर युद्ध, 1798-99 में दक्षिण भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और हैदराबाद-दक्कन के खिलाफ मैसूर साम्राज्य के बीच एक संघर्ष था।[१]
यह आंग्ल-मैसूर के हुए युद्धों में चौथी और अंतिम लड़ाई थी। अंग्रेजों ने मैसूर की राजधानी पर कब्जा कर लिया। युद्ध में शासक टीपू सुल्तान की मौत हो गई। ब्रिटेन ने ओडेयर राजवंश (एक ब्रिटिश आयुक्त के साथ उसे सभी मुद्दों पर सलाह देने के लिए) को मैसूर सिंहासन में बहाल कर, मैसूर पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण कर लिया। टीपू सुल्तान के युवा उत्तराधिकारी फतेह अली को निर्वासन में भेजा दिया गया था। मैसूर साम्राज्य ब्रिटिश भारत के साथ सहायक गठबंधन में एक रियासत बन गया और कोयंबटूर, दक्षिणी कन्नड़ और उत्तर कन्नड़ अंग्रेजों को सौंप दिया गया।
युद्ध के कई पहलु, विशेष रूप से मॉलवेली का युद्ध और श्रीरंगपट्टणम् की घेराबंदी, कई प्रमुख नायकों की जीवनी, ऐतिहासिक उपन्यास शार्प टाइगर में शामिल है।
पृष्ठभूमि
1798 में मिस्र में नेपोलियन के आगमन का उद्देश्य भारत में ब्रिटिश उपनिवेशों पर कब्जा करने के लिए था, और मैसूर साम्राज्य अगले चरण की कुंजी थी, क्योंकि मैसूर के शासक टीपू सुल्तान ने फ्रांस को सहयोगी बनाने हेतु उसे एक पत्र लिखा था। जिसके परिणामस्वरूप नेपोलियन ने निम्नलिखित उत्तर दिया, "आपको इंग्लैंड के लौह जुंगल से रिहा कराने की इच्छा से, एक असंख्य और अजेय सेना के साथ, लाल सागर की सीमाओं पर मेरे आगमन के बारे में आपको पहले से ही सूचित किया जाता है।" इसके अतिरिक्त, मॉरीशस के फ्रांसीसी गवर्नर जनरल मालारक्टिक ने टिपू की सहायता करने के लिए स्वयंसेवकों की मांग करने वाले मालार्कटिक घोषणा जारी की थी। नील की लड़ाई के बाद होरेशियो नेलसन ने नेपोलियन से प्राप्त किसी भी मदद को कुचल दिया। हालांकि, लॉर्ड वैलेस्ली पहले से ही टीपू सुल्तान और फ्रांस के बीच किसी भी गठबंधन को रोकने के चेष्टा में थे।[२]
घटना-क्रम
तीन सैन्यदल - एक बॉम्बे से और दो ब्रिटिशों से (जिसमें से एक दल का नेतृत्व कर्नल आर्थर वैलेस्ली -भविष्य के पहले वेलिंगटन के ड्यूक- ने किया था), 1799 में मैसूर में घुस गये और टीपू के साथ कुछ शुरूआती लड़ाई के बाद राजधानी श्रीरंगपट्ट्नम को घेर लिया गया। 8 मार्च को, एक अग्र बल, सीडसेसर की लड़ाई में टीपू के आक्रमण को रोकने में कामयाब रहे। 4 मई को, श्रीरंगपट्टणम् की घेराबंदी के दौरान, रक्षा दीवारों को तोड़ दिया गया। टिपू सुल्तान, दिवार की सुरक्षा बढाने के लिये वहां पहुचे, और उनकी गोली लगने से मृत्यु हो गई।
आज, जिस स्थान पर पूर्वी गेट के नीचे टीपू का पार्थिव शरीर पाया गया था, उसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा चारो तरफ से बंद कर दिया गया था। 19वीं शताब्दी के दौरान एक सड़क विस्तृत करने के लिए गेट को बाद में ध्वस्त कर दिया गया था।
टीपू सुल्तान द्वारा अग्रिम सेना पर लौह-आधारित प्रक्षेपास्त्र से सामूहिक हमलों का उपयोग किया जाना, उस समय का सबसे उन्नत सैन्य प्रौद्योगिकी में से एक था। तीसरे और चौथे मैसूर युद्धों के दौरान अंग्रेजों पर मैसूरी प्रक्षेपास्त्र का प्रयोग से ही विलियम कांग्रेव ने प्रभावित होकर "कांग्रेव प्रक्षेपास्त्र" को विकसित किया था।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के कई सदस्यों का मानना था कि कार्नाटक के नवाब उमदत उल-उमरा ने चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध के दौरान गुप्त रूप से टीपू सुल्तान को सहायता प्रदान की थी; और संघर्ष के अंत के बाद उन्होंने नवाब को अपदस्थ करने की मांग की।
चित्र दीर्घा
टीपू सुल्तान के सैन्य बल, श्रीरंगपट्टणम् की घेराबंदी के दौरान।
श्रीरंगपट्ट्नम में टिपू साहिब का अंतिम प्रयास (कोर्नर, 1840, पे. 334)[३]
ब्रिटिश सैनिक टीपू सुल्तान के शरीर की जांच करते हैं
सन्दर्भ
- ↑ साँचा:cite book
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- ↑ साँचा:cite book