चित्तौड़गढ़

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
(चितौड़गढ़ से अनुप्रेषित)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
साँचा:if empty
Chittorgarh
{{{type}}}
पद्मिनी महल का तैलचित्र
पद्मिनी महल का तैलचित्र
साँचा:location map
निर्देशांक: साँचा:coord
ज़िलाचित्तौड़गढ़ ज़िला
देश।साँचा:flag/core
जनसंख्या (2011)
 • कुल१,१६,४०६
 • घनत्वसाँचा:infobox settlement/densdisp
भाषाएँ
 • प्रचलितराजस्थानी, हिन्दी
समय मण्डलभारतीय मानक समय (यूटीसी+5:30)
पिनकोड312001
दूरभाष कोड+91-01472
वाहन पंजीकरणRJ-09
वेबसाइटwww.chittorgarh.rajasthan.gov.in

साँचा:template otherसाँचा:main otherसाँचा:main other

चित्तौड़गढ़ (Chittorgarh) भारत के राजस्थान राज्य के चित्तौड़गढ़ ज़िले में स्थित एक नगर है। यह मेवाड़ की प्राचीन राजधानी थी। महाराणा उदयसिंह ने उदयपुर बसाया और तब से मेवाड़ की राजधानी उदयपुर स्थांतरित हो गई। इस जौहर का गढ़ भी कहा जाता है, यहाँ 3 जौहर हुए है ।[१][२]

विवरण

चित्तौड़गढ़ शूरवीरों का शहर है जो पहाड़ी पर बने दुर्ग के लिए प्रसिद्ध है। चित्तौड़गढ़ की प्राचीनता का पता लगाना कठिन कार्य है, किन्तु माना जाता है कि महाभारत काल में महाबली भीम ने अमरत्व के रहस्यों को समझने के लिए इस स्थान का दौरा किया और एक पंडित को अपना गुरु बनाया, किन्तु समस्त प्रक्रिया को पूरी करने से पहले अधीर होकर वे अपना लक्ष्य नहीं पा सके और प्रचण्ड गुस्से में आकर उसने अपना पाँव जोर से जमीन पर मारा, जिससे वहाँ पानी का स्रोत फूट पड़ा, पानी के इस कुण्ड को भीम-ताल कहा जाता है; बाद में यह स्थान मौर्य अथवा मौर वंश के अधीन आ गया, इसमें भिन्न-भिन्न राय हैं कि यह मेवाड़ शासकों के अधीन कब आया, किन्तु राजधानी को उदयपुर ले जाने से पहले 1568 तक चित्तौड़गढ़ मेवाड़ की राजधानी रहा। यह माना जाता है गुलिया वंशी बप्पा रावल ने 8वीं शताब्दी के मध्य में अंतिम सोलंकी राजकुमारी से विवाह करने पर चित्तौढ़ को दहेज के एक भाग के रूप में प्राप्त किया था, बाद में उसके वंशजों ने मेवाड़ पर शासन किया जो 16वीं शताब्दी तक गुजरात से अजमेर तक फैल चुका था।

अजमेर से खण्डवा जाने वाली ट्रेन के द्वारा रास्ते के बीच स्थित चित्तौरगढ़ जंक्शन से करीब २ मील उत्तर-पूर्व की ओर एक अलग पहाड़ी पर भारत का गौरव राजपूताने का सुप्रसिद्ध चित्तौड़गढ़ का किला बना हुआ है। समुद्र तल से १३३८ फीट ऊँची भूमि पर स्थित ५०० फीट ऊँची एक विशाल (ह्वेल मछ्ली) आकार में, पहाड़ी पर निर्मित्त यह दुर्ग लगभग ३ मील लम्बा और आधे मील तक चौड़ा है। पहाड़ी का घेरा करीब ८ मील का है तथा यह कुल ६०९ एकड़ भूमि पर बसा है।

चित्तौड़गढ़, वह वीरभूमि है जिसने समूचे भारत के सम्मुख शौर्य, देशभक्ति एवम् बलिदान का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। यहाँ के असंख्य राजपूत वीरों ने अपने देश तथा धर्म की रक्षा के लिए असिधारारुपी तीर्थ में स्नान किया। वहीं राजपूत वीरांगनाओं ने कई अवसर पर अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपने बाल-बच्चों सहित जौहर की अग्नि में प्रवेश कर आदर्श उपस्थित किये। इन स्वाभिमानी देशप्रेमी योद्धाओं से भरी पड़ी यह भूमि पूरे भारत वर्ष के लिए प्रेरणा स्रोत बनकर रह गयी है। यहाँ का कण-कण हममें देशप्रेम की लहर पैदा करता है। यहाँ की हर एक इमारतें हमें एकता का संकेत देती हैं।

सार्विक जानकारी

2011 की जनगणना के अनुसार चित्तौड़गढ़ शहर की जनसंख्या कुल 1,16,409 थी, जिसमें से पुरुष 60,229 और महिला 56,180 थी। शहर का क्षेत्रफल 7 वर्ग कि॰मी॰ और उसकी समुद्रतल से ऊँचाई 408 मी॰ है। स्थानीय लोग मेवाड़ी, राजस्थानी और हिन्दी बोलते हैं।

मौसम

  • गर्मियों में अधिकतम 45.5 डिग्री से., न्यूनतम 25.5 डिग्री से.
  • सर्दियों में अधिकतम 28.3 डिग्री से., न्यूनतम 5.5 डिग्री से.
  • वेशभूषा - गर्मियों में हल्के सूती वस्त्र, सर्दियों में ऊनी वस्त्र
  • सर्वश्रेष्ठ समय - अक्तूबर से मार्च

चित्तौड़गढ़ का दुर्ग

स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। इस किले ने इतिहास के उतार-चढाव देखे हैं, यह इतिहास की सबसे खूनी लड़ाईयों का गवाह है, इसने तीन महान आख्यान और पराक्रम के कुछ सर्वाधिक वीरोचित कार्य देखे हैं, जो अभी भी स्थानीय गायकों द्वारा गाये जाते हैं।

राणा पूंजा भवन

यह भवन राणा पूंजा के मेवाड़ के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान को याद रखने हेतु व शिक्षा के prachar- प्रसार हेतु निर्मित किया गया है।

बीका खोह

चत्रंग तालाब के समीप ही बीका खोह नामक बूर्ज है। सन् १५३७ ई॰ में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह के आक्रमण के समय लबरी खाँ फिरंगी ने सुरंग बनाकर किले की ४५ हाथ लम्बी दीवार विस्फोट से उड़ा दी थी तथा दुर्ग रक्षा के लिए नियुक्त बून्दी के अर्जुन हाड़ा अपने ५०० वीर सैनिकों सहित वीरगति को प्राप्त हुए

भाक्सी

चत्रंग तालाब से थोड़ी दूर उत्तर की तरफ आगे बढ़ने पर दाहिनी ओर चहारदीवारी से घिरा हुआ एक थोड़ा-सा स्थान है, जिसे बादशाह की भाक्सी कहा जाता है। कहा जाता है कि इस इमारत में, जिसे महाराणा कुम्भा ने सन् १४३३ में बनवाया था, मालवा के सुल्तान महमूद को गिरफ्तार कर रखा था।

घोड़े दौड़ाने के चौगान

भाक्सी से आगे कुछ अन्तर पर पश्चिम की तरफ बून्दी, रामपुरा तथा सलूम्बर की हवेलियों के खण्डहर दीख पड़ते हैं। इसी के पूर्व में पुराना चौगान है, जहाँ पहले सेना की कवायद हुआ करती थी। इसी को लोग घोड़े दौड़ाने का चौगान कहते है।

पद्मिनी का महल

पद्मिनी का महल

चौगान के निकट ही एक झील के किनारे रावल रत्नसिंह की रानी पद्मिनी के महल बने हुए हैं। एक छोटा महल पानी के बीच में बना है, जो जनाना महल कहलाता है व किनारे के महल मरदाने महल कहलाते हैं। मरदाना महल में एक कमरे में एक विशाल दर्पण इस तरह से लगा है कि यहाँ से झील के मध्य बने जनाना महल की सीढ़ियों पर खड़े किसी भी व्यक्ति का स्पष्ट प्रतिबिम्ब दर्पण में नजर आता है, परन्तु पीछे मुड़कर देखने पर सीढ़ी पर खड़े व्यक्ति को नहीं देखा जा सकता।

खातन रानी का महल

पद्मिनी महल के तालाब के दक्षिणी किनारे पर एक पुराने महल के खण्डहर हैं, जो खातन रानी के महल कहलाते हैं। महाराणा क्षेत्र सिंह ने अपनी रुपवती उपपत्नी खातन रानी के लिए यह महल बनवाया था। इसी रानी से चाचा तथा मेरा नाम के दो पुत्र थे, जिसने सन् १४३३ में महाराणा मोकल की हत्या कर दी थी।

गोरा - बादल की घुमरें

पद्मिनी महल से दक्षिण-पूर्व में दो गुम्बदाकार इमारतें हैं, जिसे लोग गोरा और बादल के महल के रूप में जानते हैं। गोरा महारानी पद्मिनी का चाचा था तथा बादल चचेरा भाई था। रावल रत्नसिंह को अलाउद्दीन के खेमे से निकालने के बाद युद्ध में पाडन पोल के पास गोरा वीरगति को प्राप्त हो गये और बादल युद्ध में १२ वर्ष की अल्पायु में ही वीर गति को प्राप्त हो गये थे। देखने में ये इमारत इतने पुराने नहीं मालूम पड़ते। इनकी निर्माण शैली भी कुछ अलग है।

राव रणमल की हवेली

गोरा बादल की गुम्बजों से कुछ ही आगे सड़क के पश्चिम की ओर एक विशाल हवेली के खण्डहर नजर आते हैं। इसको राव रणमल की हवेली कहते हैं। राव रणमल की बहन हंसाबाई से महाराणा लाखा का विवाह हुआ। महाराणा मोकल हँसाबाई से लाखा के पुत्र थे।

कालिका माता का मंदिर

पद्मिनी के महलों के उत्तर में बांई ओर कालिका माता का सुन्दर, ऊँची कुर्सीवाला विशाल महल है। इस मंदिर का निर्माण संभवतः ९ वीं शताब्दी में मेवाड़ के गुहिलवंशीय रोड़ राजाओं ने करवाया था। मूल रूप से यह मंदिर एक सूर्य मंदिर था। निजमंदिर के द्वार तथा गर्भगृह के बाहरी पार्श्व के ताखों में स्थापित सूर्य की मूर्तियाँ इसका प्रमाण है। बाद में मुसलमानों के समय आक्रमण के दौरान यह मूर्ति तोड़ दी गई और बरसों तक यह मंदिर सूना रहा। उसके बाद इसमें कालिका की मूर्ति स्थापित की गई। मंदिर के स्तम्भों, छतों तथा अन्तःद्वार पर खुदाई का काम दर्शनीय है। महाराणा सज्जनसिंह ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। चूंकि इस मंदिर में मूर्ति प्रतिष्ठा वैशाख शुक्ल अष्टमी को हुई थी, अतः प्रति वर्ष यहाँ एक विशाल मेला लगता है।

सूर्यकुण्ड (सूरज कुण्ड)

कालिका माता के मंदिर के उत्तर-पूर्व में एक विशाल कुण्ड बना है, जिसे सूरजकुण्ड कहा जाता है। इस कुण्ड के बारे में मान्यता यह है कि महाराणा को सूर्य भगवान का आशीर्वाद प्राप्त था तथा कुण्ड से प्रतिदिन प्रातः सफेद घोड़े पर सवार एक सशस्र योद्धा निकलता था, जो महाराणा को युद्ध में सहायता देता था।

पत्ता तथा जैमल की हवेलियाँ

गौमुख कुण्ड तथा कालिका माता के मंदिर के मध्य जैमल पत्ता के महल हैं, जो अभी भगनावशेष के रूप में अवस्थित हैं। राठौड़ जैमल (जयमल) और सिसोदिया पत्ता चित्तौड़ की अंतिम शाका में अकबर की सेना के साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये थे। महल के पूर्व में एक बड़ा तालाब है, जिसे जैमल-पत्ता का तालाब कहा जाता है। जलाशय के तट पर बौद्धों के ६ स्तूप हैं। इन स्तूपों से यह अनुमान लगाया जाता है कि प्राचीन काल में अवश्य ही यहाँ बौद्धों का कोई मंदिर रहा होगा।

गौमुख कुण्ड

महासती स्थल के पास ही गौमुख कुण्ड है। यहाँ एक चट्टान के बने गौमुख से प्राकृतिक भूमिगत जल निरन्तर एक झरने के रूप में शिवलिंग पर गिरती रहती है। प्रथम दालान के द्वार के सामने विष्णु की एक विशाल मूर्ति खड़ी है। कुण्ड की धार्मिक महत्ता है। लोग इसे पवित्र तीर्थ के रूप में मानते हैं। कुण्ड के निकट ही उत्तरी किनारे पर महाराणा रायमल के समय का बना एक छोटा सा पार्श्व जैन मंदिर है, जिसकी मूर्ति पर कन्नड़ लिपि में लेख है। यह संभवतः दक्षिण भारत से लाई गई होगी। कहा जाता है कि यहाँ से एक सुरंग कुम्भा के महलों तक जाती है। इस कुंड के समीप जाने के लिए सीढिया बनायीं गयी है तथा नीचे कुंड के किनारे मंदिर बने हुए है। ऐसा माना जाता है कि रानी पद्मिनी यहाँ स्नान के लिए अति थी। गौमुख कुण्ड से कुछ दूर दो ताल हाथी कुण्ड तथा खातण बावड़ी है।

समिद्धेश्वर (समाधीश्वर) महादेव का मंदिर

गौमुख कुण्ड के उत्तरी छोर पर समिध्देश्वर का भव्य प्राचीन मंदिर है, जिसके भीतरी और बाहरी भाग पर बहुत ही सुन्दर खुदाई का काम है। इसका निर्माण मालवा के प्रसिद्ध राजा भोज ने ११ वीं शताब्दी में करवाया था। इसे त्रिभुवन नारायण का शिवालय और भोज का मंदिर भी कहा जाता था। इसका उल्लेख वहाँ के शिलालेखों में मिलता है। सन् १४२८ (वि. सं. १४८५) में इसका जीर्णोद्धार महाराणा मोकल ने करवाया था, जिससे लोग इसे मोकलजी का मंदिर भी कहते हैं। मंदिर के निज मंदिर (गर्भगृह) नीचे के भाग में शिवलिंग है तथा पीछे की दीवार में शिव की विशाल आकार की त्रिमूर्ति बनी है। त्रिमूर्ति की भव्यता दर्शनीय है। मंदिर में दो शिलालेख हैं, पहला सन् ११५० ई. का है, जिसके अनुसार गुजरात के सोलंकी राजा कुमारपाल का अजमेर के चौहान राजा आणाजी को परास्त कर चित्तौड़ आना ज्ञात होता है तथा दूसरा शिलालेख जो सन् १४२८ का है महाराणा मोकल से सम्बद्ध है।

महासती (जौहर स्थल)

समिध्देश्वर महादेव के मंदिर से महाराणा कुम्भा के कीर्कित्तस्तम्भ के मध्य एक विस्तृत मैदानी हिस्सा है, जो चारों तरफ से दीवार से घिरा हुआ है। इसमें प्रवेश के लिए पूर्व तथा उत्तर में दो द्वार बने हैं, जिसे महा सती द्वार कहा जाता है। ये द्वार व कोट रावल समरसिंह ने बनवाया था।

चित्तौड़ पर बहादुर शाह के आक्रमण के समय यही हाड़ी [[रानी कर्णावती] ने सम्मान व सतीत्व की रक्षा हेतु तेरह हजार वीरांगनाओं सहित विश्व प्रसिद्ध जौहर किया था। इस स्थान की खुदाई करने पर मिली राख की कई परतं इस करुण बलिदान की पुष्टि करती है। यहाँ दो बड़ी-बड़ी शिलाओं पर प्रशस्ति खुदवाकर उसके द्वार पर लगाई गई थी, जिसमें से एक अभी भी अस्तित्व में है।

विजय स्तम्भ, जय स्तम्भ

विजय स्तम्भ

महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी को सन् १४४० ई. (वि. सं. १४९७) में प्रथम बार परास्त कर उसकी यादगार में इष्टदेव विष्णु के निमित्त यह विजय स्तम्भ बनवाया था। इसकी प्रतिष्ठा सन् १४४८ ई. (वि॰सं॰ १५०५) में हुई। यह स्तम्भ वास्तुकला की दृष्टि से अपने आप मंजिल पर झरोखा होने से इसके भीतरी भाग में भी प्रकाश रहता है। इसमें विष्णु के विभिन्न रुपों जैसे जनार्दन, अनन्त आदि, उनके अवतारों तथा ब्रम्हा, शिव, भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं, अर्धनारीश्वर (आधा शरीर पार्वती तथा आधा शिव का), उमामहेश्वर, लक्ष्मीनारायण, ब्रम्हासावित्री, हरिहर (आधा शरीर विष्णु और आधा शिव का), हरिहर पितामह (ब्रम्हा, विष्णु तथा महेश तीनों एक ही मूर्ति में), ॠतु, आयुध (शस्र), दिक्पाल तथा रामायण तथा महाभारत के पात्रों की सैकड़ों मूर्तियाँ खुदी हैं। प्रत्येक मूर्ति के ऊपर या नीचे उनका नाम भी खुदा हुआ है। इस प्रकार प्राचीन मूर्तियों के विभिन्न भंगिमाओं का विश्लेषण के लिए यह भवन एक अपूर्व साधन है। कुछ चित्रों में देश की भौगोलिक विचित्रताओं को भी उत्कीर्ण किया गया है। कीर्तिस्तम्भ के ऊपरी मंजिल से दुर्ग एवं निकटवर्ती क्षेत्रों का विहंगम दृश्य दिखता है। बिजली गिरने से एक बार इसके ऊपर की छत्री टूट गई थी, जिसकी महाराणा स्वरुप सिंह ने मरम्मन करायी। यह कीर्ति स्तम्भ से भिन्न है।

कीर्ति स्तंभ

विजय स्तंभ की तरह एक सात मंजिला स्तम्भ है जो भगेरवाल व्यापारी जीजाजी कथोड ने 12 वीं शताब्दी में बनवाया था, जैन धर्म का महिमामंडन करने के लिए बनाया गया था,इसका निर्माण विजय स्तम्भ से पहले करवाया गया था,यह एक प्राचीन जैन मंदिर के पास बनाया गया है,इसकी चौड़ाई आधार पर अधिक तथा सातवीं मंज़िल पर सबसे कम है।

जटाशंकर महादेव देवालय

कीर्तिस्तम्भ के उत्तर में जटाशंकर नामक शिवालय है। इस मंदिर के बाहरी हिस्से तथा सभामंडप की छत पर उत्कीर्ण देवताओं तथा अन्य तरह की आकृतियाँ प्रशंसनीय है। अधिकतर मूर्तियाँ अखण्डित एवं सुरक्षित हैं।

कुम्भस्वामी (कुंभश्याम) का मंदिर

कुंभश्याम का मंदिर

महाराणा कुम्भा ने सन् १४४९ ई. (वि. सं. १५०५) में विष्णु के बराह अवतार का यह भव्य मंदिर बनवाया। इस मंदिर का गर्भ प्रकोष्ठ, मण्डप व स्तम्भों की सुन्दर मूर्तियाँ दर्शनीय हैं। विष्णु के विभिन्न रुपों को दर्शाती हुई मूर्तियाँ, नागर शैली के बने गगनचुम्बी शिखर तथा समकालीन मेवाड़ी जीवन शैली को अंकित करती दृश्यावली, इस मंदिर की विशिष्टतायें हैं। मूल रूप से तो यहाँ, वराहावतार की ही मूर्ति स्थापित थी, लेकिन मुस्लिम आक्रमणों से मुर्ति खण्डित होने पर अब कुम्भास्वामी की मूर्ति प्रतिष्ठापित कर दी गयी।

मीराबाई का मंदिर

मीराँबाई का मंदिर

कुंभ श्याम के मंदिर के प्रांगण में ही एक छोटा मंदिर है, जिसे कृष्ण दीवानी भांतिमति मीराबाई का मंदिर कहते हैं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार पहले यह मंदिर ही कुंभ श्याम का मंदिर था, लेकिन बाद में बड़े मंदिर में नई कुंभास्वामी की प्रतिमा स्थापित हो जाने के कारण उसे कुंभश्याम का मंदिर जानने लगे और यह मंदिर मीराँबाई का मंदिर के रूप में प्रसिद्ध हुआ। इस मंदिर के निज भाग में भांतिमति मीरा व उसके आराध्य मुरलीधर श्रीकृष्ण का सुंदर चित्र है। मंदिर के सामने ही एक छोटी-सी छतरी बनी है। यहाँ मीरा के गुरु स्वामी रैदास के चरणचिंह (पगलिये) अंकित हैं।

सतबीस देवलां

ग्यारहवीं शताब्दी में बना यह भव्य जैन मंदिर अपनी उत्कृष्ट नक्काशी के काम के लिए जाना जाता है। इसमें २७ देवरियाँ बनी है। अतः इस मंदिर को सतबीस (७अ२० देवरा) कहा जाता है।

महाराणा कुंभा के महल

तेरहवीं शताब्दी में निर्मित इन महलों का जीर्णोद्धार महाराजा कुंभा द्वारा कराये जाने से इन महलों को महाराणा कुंभा का महल कहा जाता है। प्रवेश द्वार बड़ी पोल तथा त्रिपोलिया कहे जाते हैं। खण्डहरों के रूप में होते हुए भी ये महल राजपूत शैली की उत्कृष्ट स्थापत्य कला दर्शाते हैं। सूरज गोरवड़ा, जनाना महल, कँवलदा महल, दीवात-ए-आम तथा शिव मंदिर इस महल के कुछ उल्लेखनीय हिस्से हैं। मान्यता है कि इन्हीं महलों में एक तहखाना है, जिसमें एक सुरंग के माध्यम से गोमुख तक जाया जा सकता है। महारानी पद्मिनी ने हजारों वीरांगनाओं के साथ इसी रास्ते गौमुख कुंड में स्नान करने के बाद इन्हीं तहखानों में जौहर किया था, लेकिन यहाँ इस तरह के किसी सुरंग का प्रमाण नहीं मिला है।

इसी ऐतिहासिक महल में उदयपुर के संस्थापक महाराणा उदयसिंह का जन्म हुआ था तथा यहीं स्वामीभक्त पन्नाधाय ने उदयसिंह की रक्षार्थ अपने लाडले पुत्र को बनवीर के हाथों कत्ल हो जाने दिया। मीराँबाई की कृष्ण भक्ति तथा विषपान की घटनाएँ भी इसी महल से संबद्ध है।

फतह प्रकाश

महाराणा फतहसिंह द्वारा निर्मित यह भव्य महल आधुनिक ढ़ंग का है। फतहसिंह के नाम पर ही इन्हें फतह प्रकाश कहा जाता है। महल में गणेश की एक विशाल प्रतिमा, फव्वारा तथा विविध भित्ति चित्र दर्शनीय हैं।

मोती बाजार

फतहप्रकाश के पास ही भग्नावस्था में दूकानों की कतारें हैं। बताया जाता है कि शताब्दियों पूर्व यहाँ कीमती पत्थरों की दुकानें हुआ करती थी।

शृंगार चौरी (सिंगार चौरी)

सन् १४४८ (वि. सं. १५०५) में महाराणा कुंभा के कोषाध्यक्ष बेलाक, जो केल्हा साह का पुत्र था, ने श्रृंगार चौरी का निर्माण करवाया था। यह शान्तिनाथ का मंदिर है तथा जैन स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है।

यहाँ से प्राप्त शिलालेखों से यह ज्ञात होता है कि भगवान शान्तिनाथ की चौमुखी प्रतिमा की प्रतिष्ठा खगतरगच्छ के आचार्य जिनसेन सूरी ने की थी, परंतु मुगलों के आक्रमण से यह मूर्ति विध्वंस कर दी गई लगती है। अब सिर्फ एक वेदी बची है, जिसे लोग चौरी बतलाते हैं। मंदिरों की बाह्य दीवारों पर देवी-देवताओं व नृत्य मुद्राओं की अनेकों मूर्तियाँ कलाकारों के पत्थर पर उत्कीर्ण कलाकारी का परिचायक है।

श्रृंगार चौरी के बारे में एक मान्यता यह भी है कि यहीं महाराणा कुंभा की राजकुमारी रमाबाई (वागीश्ववरी) विवाह हुआ था, लेकिन व्यावहारिक दृष्टिकोण से सोचने पर यह सत्य नहीं लगता।

महाराणा साँगा का देवरा

श्रृंगार चौरी के दक्षिण में स्थित इस मंदिर का निर्माण महाराणा साँगा ने भगवान देवनारायण की आराधना हेतु करवाया था। कहा जाता है कि भगवान द्वारा दिये कवच को महाराणा इसी देवरे में पहन कर युद्धों में जाते और विजित होकर लौटते थे।

तुलजा भवानी का मंदिर

इस मंदिर का निर्माण काल सन् १५३६-४० ई. है। इसका निर्माण राणा सांगा के कुंवर पृथ्वीराज के दासी से पुत्र बनवीर ने कराया था। बनवीर भवानी का उपासक था और उसने अपने वजन के बराबर स्वर्ण इत्यादि तुलवा (तुलादान) कर इस मंदिर का निर्माण आरंभ कराया था, इसी कारण इसे तुलजा भवानी का मंदिर कहा जाता है।

बनवीर की दीवार

सन् १५३६ ई. में महाराणा विक्रमादित्य को छल से मारकर दासीपुत्र बनवीर चित्तौड़ का स्वामी बन बैठा। अपनी स्थिति को अधिक सुदृढ़ व सुरक्षित करने हेतु उसने दुर्ग को दो भागों में विभक्त करने के लिए इस दीवार का निर्माण आरंभ कराया था, परंतु महाराणा उदयसिंह द्वारा सन् १५४० ई में चित्तौड़ से खदेड़ दिये जाने पर इसका निर्माण अधूरा ही रह गया।

नवलखा भण्डार

बनवीर की दीवार के पश्चिमी सिरे पर एक अर्द्ध वृत्ताकार अपूर्ण बुर्ज बना है, जिसे बनवीर ने अपनी सुरक्षा व अस्र-शस्र के भण्डार हेतु बनवाया था। इसकी पेंचिदी बनावट को कोई लख (जान) नहीं सकता था। अतः इसे नवलखा भण्डार कहा जाता था। कुछ लोग यह बताते हैं कि यहाँ नौ लाख रुपयों का खजाना रहता था, जिससे इसका नाम नौ लखा भण्डार पड़ा।

पातालेश्वर महादेव का मंदिर

पुरातत्व संग्रहालय के पास ही स्थित इस मंदिर का निर्माण सन् १५६५ ई. में हुआ था। मंदिर की स्थापत्य कला एवं उत्कीर्ण आकृतियाँ बड़ी आकर्षण एवं दर्शनीय है।

भामाशाह की हवेली

अब भग्नावस्था में मौजूद यह इमारत, एक समय मेवाड़ की आनबान के रक्षक महाराणा प्रताप को मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना सब कुछ दान करने वाले प्रसिद्ध दानवीर दीवान भामाशाह की याद दिलाने वाली है। कहा जाता है कि हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात् महाराणा प्रताप का राजकोष खाली हो गया था व मुगलों से युद्ध के लिए बहुत बड़ी धनराशि की आवश्यकता थी। ऐसे कठिन समय में प्रधानमंत्री भामाशाह ने अपना पीढियों से संचित धन महाराणा को भेंट कर दिया। कई इतिहासकारों का मत है कि भामाशाह द्वारा दी गई राशि मालवा को लूट कर लाई गई थी, जिसे भामाशाह ने सुरक्षा की दृष्टि से कहीं गाड़ रखी थी।

आल्हा काबरा की हवेली

भामाशाह की हवेली के पास ही आल्हा काबरा की हवेली है। काबरा गौत्र के माहेश्वरी पहले महाराणा के दीवान थे।

नगरी

चित्तौड़ के किले से ७ मील उत्तर में नगरी नाम का एक प्राचीन स्थान है, जो बेदले के चौहान सरदार की जागीर में पड़ता था। यह भारतवर्ष के प्राचीन नगरों में से एक है, जिसके अवशेष खंडहरों के रूप में दूर-दूर तक फैले हुए हैं, जहाँ कोट से घिरे हुए राजप्रासाद होने का अनुमान किया जाता है। यहाँ से कई जगहों पर बावड़ी, महलों के काट आदि के निर्माणार्थ पत्थर ले जाये गये। महाराणा रायमल की रानी श्रृंगारदेवी की बनवाई हुई घोसड़ी गाँव की बावड़ी भी नगरी से ही पत्थर लाकर बनाई गई है। नगरी का प्राचीन नाम मध्यमिका था। बली गाँव (अजमेर जिला में) से मिले हुए सन् ४४३ ई. पू. (वि. सं. ३८६) के शिलालेख में इस नाम का प्रमाण मिलता है। पतंजलि ने अपने महाभाष्य मध्यमिका पर युनानियों (मिनैंडर) के आक्रमण का उल्लेख किया है। वहाँ से मिलने वाले शिलालेखों में से तीन वि. सं. पूर्व की तीसरी शताब्दी के आसपास की लिपि में है। इनके लेखों से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि वि. सं. पूर्व की तीसरी शताब्दी के आसपास विष्णु की पूजा होती थी तथा उनके मंदिर भी बनते थे। एक शिलालेख सर्वतात नामक किसी राजा द्वारा संपादित अश्वमेघ यज्ञ का उल्लेख करता है। एक अन्य शिलालेख वाजपेय यज्ञ के सम्पादन की चर्चा करता है।

नगरी से थोड़ी ही दूरी पर हाथियों का बाड़ा नाम का एक विस्तृत स्थान है, जिसकी चहारदीवारी बहुत लंबी व चौड़ी है। यह तीन-तीन मोटे पत्थरों को एक के ऊपर एक रखकर बनाई गई है। उस समय ऐसे विशाल पत्थरों को इस प्रकार व्यवस्थित करना एक कठिन कार्य जान पड़ता है। यहाँ से कुछ ही दूरी पर बड़े-बड़े पत्थरों से बनी हुई एक चतुरस्र मीनार है, जिसे लोग ऊमदीवट कहते हैं। यह स्पष्ट जान पड़ता है कि इस मीनार में इस्तेमाल किये गये पत्थर हाथियों का बाड़ा से ही तोड़कर लाये गये थे। इसके संबंध में यह कहा जाता है कि जब बादशाह अकबर ने चित्तौड़ पर चढ़ाई किया तब इस मीनार में रौशनी की जाती थी। नगरी के निकट तीन स्तूपों के चिंह भी मिलते हैं।

वर्तमान में गाँव के भीतर माताजी के खुले स्थान में प्रतिमा के सामने एक सिंह की प्राचीन मूर्ति जमीन में कुछ गड़ी हुई है। पास में ही चार बैलों की मूर्तियोंवाला एक चौखूंटा बड़ा पत्थर रखा हुआ है। ये दोनों टुकड़े प्राचीन विशाल स्तम्भों का ऊपरी हिस्सा हो सकता है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

सन्दर्भ

  1. "Lonely Planet Rajasthan, Delhi & Agra," Michael Benanav, Abigail Blasi, Lindsay Brown, Lonely Planet, 2017, ISBN 9781787012332
  2. "Berlitz Pocket Guide Rajasthan," Insight Guides, Apa Publications (UK) Limited, 2019, ISBN 9781785731990