चान्द्रायण

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चान्द्रायण एक प्राचीन भारतीय तप, व्रत अथवा अनुष्ठान था। पाणिनि ने इस तप का निर्देश किया है (अष्टाध्यायी ५/१/७२)। धर्मसूत्रादि में इसकी प्रशंसा में कहा गया है कि यह सभी पापों के नाश में समर्थ है। जब किसी पाप का कोई प्रायश्चित नहीं मिलता, तब चांद्रायण व्रत ही वहाँ अनुष्ठेय है (करना चाहिये)।

चन्द्र की ह्रासवृद्धि के अनुसार चान्द्रायण का अनुष्ठान किया जाता है। इस तप के नामकरण का कारण भी यही है (याज्ञवल्क्य स्मृति ३/३२३ की मिताक्षरा टीका)। इस व्रत के दो भेद हैं - यवमध्य और पिपीलिकामध्य। यवमध्य में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को एक ग्रास का आहार, द्वितीया को दो ग्रास का, इस प्रकार क्रमश: बढ़ाते हुए पूर्णमासी को १५ ग्रास का आहार विहित है। उसके बाद कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को १४ ग्रास, द्वितीया को १३ ग्रास, इस प्रकर क्रमश: घटाकर चतुर्दशी को एक ग्रास और अमावस्या को पूर्ण उपवास इस व्रत में निर्दिष्ट है। अल्पाहार और बीच में अधिक आहार करने में यवाकृति के साथ इसका सादृश्य होने से इसका यह नाम पड़ा। पिपीलिकामध्य कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को १४ ग्रास ओर क्रमश: घटाकर कृष्ण चतुर्दशी को एक ग्रास और अमावास्या में पूर्ण उपवास, उसके बाद शुल्क प्रतिपदा को एक ग्रास, द्वितीया को दो ग्रास, इस प्रकार बढ़ाकर पूर्णमासी का १५ ग्रास इस पद्धति में अवधि के आरंभ तथा अंत में अधिक आहार और मध्य में अल्पाहार होने के कारण इसका पिपीलिका नाम सार्थक है।

एक मत के अनुसार चांद्रायण के पाँच भेद हैं- यवमध्य, पिपीलिकामध्य, यतिचांद्रायण, सर्वतोमुख और शिशुचांद्रायण। चांद्रायण में जो ग्रास (अन्नमुष्टि) लिया जाता है, उसके परिमाण के विषय में भी मतभेद है। निबन्धग्रंथों में व्रत और प्रायश्चित्त के विवरण में चान्द्रायण का विशद विवरण द्रष्टव्य है।