चरस
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चरस गाँजे के पेड़ से निकला हुआ एक प्रकार का गोद या चेप है जो देखने में प्रायः मोम की तरह का और हरे अथवा कुछ पीले रंग का होता है और जिसे लोग गाँजे या तम्बाकू की तरह पीते हैं। नशे में यह प्रायः गाँजे के समान ही होता है।
चरस गाँजे के डंठलों और पत्तियों आदि से उत्तरपश्चिम हिमालय में नेपाल, कुमाऊँ, काश्मीर से अफगानिस्तान और तुर्किस्तान तक बराबर अधिकता से निकलता है, और इन्ही प्रदेशों का चरस सबसे अच्छा समझा जाता है। बंगाल, मध्यप्रदेश आदि देशों में और योरप में भी, यह बहुत ही थोड़ी मात्रा में निकलता है। गाँजे के पेड़ यदि बहुत पास-पास हों तो उनमें से चरस भी बहुत ही कम निकलता है। कुछ लोगों का मत है कि चरस का चेप केवल नर पौधों से निकलता है। गरमी के दिनों में गाँजे के फूलने से पहले ही इसका संग्रह होता है। यह गाँजे के डंठलों को हावन दस्ते में कूटकर या अधिक मात्रा में निकलने के समय उस पर से खरोचकर इकट्ठा किया जाता है। कहीं-कहीं चमड़े का पायजामा पहनकर भी गाँजे के खेतों में खूब चक्कर लगाते हैं जिससे यह चेप उसी चमड़े में लग जाता है, बाद में उसे खरोंचकर उस रूप में ले आते हैं जिसमें वह बाजारों में बिकता है।
ताजा चरस मोम की तरह मुलायम और चमकीले हरे रंग का होता है पर कुछ दिनों बाद वह बहुत कड़ा और मटमैले रंग का हो जाता है। कभी-कभी व्यापारी इसमें तीसी के तेल और गाँजे की पत्तियों के चूर्ण की मिलावट भी देते हैं। इसे पीते ही तुरन्त नशा होता है और आँखें बहुत लाल हो जाती हैं। यह गाँजे और भाँग की अपेक्षा बहुत अधिक हानिकारक होता है और इसके अधिक व्यवहार से मस्तिष्क में विकार आ जाता है। पहले चरस मध्यएशिया से चमड़े के थैलों या छोटे छोटे 'चरसों' में भरकर आता था। इसी से उसका नाम चरस पड़ गया।
कुछ लोग यह कहते हैं कि चरस गाँजा से मिलता है जो उसकी पत्तियों तनों के छिलकों को सुखाकर फिर उसे हाथ से काफी समय तक रगडने पर चरस हाथों में चिपक जाता है जिसे चाकू से निकाल कर पैकेट में भर दिया जाता है
चरस को लोग सिगरेट कि तम्बाकू निकाल कर कुछ मात्रा में तम्बाकू चरस मिलाकर सिगरेट में भरकर पीते हैं