चन्द्रशेखर धर मिश्र

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
चन्द्रशेखर धर मिश्र
जन्मसाँचा:br separated entries
मृत्युसाँचा:br separated entries
मृत्यु स्थान/समाधिसाँचा:br separated entries

साँचा:template otherसाँचा:main other

पण्डित चन्द्रशेखर धर मिश्र (१८५८-१९४९) आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेन्दु युग के अल्पज्ञात कवियों में से एक हैं। खड़ी बोली हिन्दी-कविता के बिकास में अपने एटिहासिक योगदान के लिए ये आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा प्रशंसित हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार चंपारण के प्रसिद्ध विद्वान पण्डित चन्द्रशेखर धर मिश्र' जो भारतेन्दु जी के मित्रों में से थे, संस्कृत के अतिरिक्त हिन्दी में भी बड़ी सुंदर आशु कविता करते थे। मैं समझता हूँ कि हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में संस्कृत वृत्तों में खड़ी बोली के कुछ पद्य पहले-पहल मिश्र जी ने ही लिखे थे।[१]

जीवन परिचय

पं. चन्द्रशेखर धर मिश्र का जन्म 22 दिसम्बर 1858 ई को बगहा के रतनमाला गांव में हुआ था। इनके पिता पं कमलाधर मिश्र जी कवि और विद्वान थे।। इनकी आरंभिक शिक्षा घर पर ही संस्कृत माध्यम से हुयी। तत्पश्चात इन्हें शिक्षा प्राप्ति के लिए अयोध्या के श्री गुरुचरण लाल जी के पास भेजा गया, जहां सर्वश्री बदरीनारायण चौधरी उपाध्याय 'प्रेमघन',मदनमोहन मालवीय,प्रतापनारायण मिश्र जैसे लेखकों के संपर्क में इनकी रचनात्मक प्रतिभा का विकास हुआ।[२]

उनको काव्य-प्रतिभा अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी। मिश्र जी की विलक्षण प्रतिभा को हिन्दी के पुराने विद्वानों ने मुक्त कंठ से सराहा है। मिश्र बंधुओं ने इन्हें सुलेखक की संज्ञा दी है,[३] जबकि श्यामसुन्दर दास ने इनकी साहित्यिक जीवनी प्रकाशित की हैं।[४] आचार्य शिवपूजन सहाय ने भी इन्हें प्राचीन साहित्य सेवी और पीयूषपानी वैद्य माना है।[५]

काव्य प्रतिभा

मिश्र जी बस्तुत: आशु कवि थे और एक घंटे में सौ अनुष्टुप छंदों की रचना कर लेते थे।[६] मिश्र जी की कृतियाँ आज अप्राप्य है। इनकी एक मात्र प्रकाशित पद्यमय रचना गूलर गुण बिकास उपलब्ध है। वैद्यक पर केन्द्रित यह पुस्तक इनकी काव्य प्रतिभा का साक्ष्य प्रस्तुत करती है। एक उदाहरण देखें : लेप कराते हो तुरत गायब दराड़ औ धाह है इसलिए इस सार पर सबकी अमृत सी चाह है। एक पल में धाह बेचैनी बिकलता बंद कर। नींद ल देता है सुख की तुरत ही आनंदकर।।[७]

प्रमुख कृतियाँ

मिश्र जी की ज़्यादातर कृतियाँ आज अप्राप्य है। इनके द्वारा प्रणीत ग्रन्थों की संख्या पचास के आसपास बतलाई जाती है, किन्तु इनकी वैद्यक साहित्य की दो पुस्तकें क्रमश: "गुल्लर गुण विकास" (पद्य) और "आरोग्य प्रकाश" (गद्य) ही उपलब्ध है। साहित्य की महत्वपूर्ण विधाओं को अपना समर्थ रचनात्मक संस्पर्श देने वाले मिश्र जी ने अपनी आत्म कथा भी लिखी थी। अपने समय को समग्रता में रेखांकित करने वाली इनकी आत्म कथा प्रकाशित नहीं हो सकी।[८]

वर्ण्य विषय

मिश्र जी एक समर्थ कवि ही नहीं, एक सिद्धहस्त गद्य लेखक भी थे। उनकी गद्य भाषा में चारुता थी, प्रवाह था और अभिव्यक्ति की सहजता भी थी।[९]

महत्वपूर्ण कार्य

आधुनिक हिंदी साहित्य में मिश्र जी का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। मिश्र जी बहूमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। कविताऔर निबंध आदि में उनकी देन अपूर्व है। उन्होंने हिंदी के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण कार्य किया। भाव, भाषा और शैली में नवीनता तथा मौलिकता का समावेश करके उन्हें आधुनिक काल के अनुरूप बनाया। मिश्र जी का जीवन निरंतर संघर्ष करने वाले एक साहित्यिक योद्धा का जीवन था। १८८३ में पिता के देहावसान के बाद इन्हें अनेक बिपत्तियों का सामना करना पड़ा था। आजीविका के रूप में वैद्यक को अपना लेने के बाद भी ये साहित्य से विमुख नहीं हुये। इन्होने हिन्दी और खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार के लिए अपना सारा जीवन लगा दिया। हिन्दी और संस्कृत के अतिरिक्त उर्दू और बंगाली में भी इनकी अच्छी गति थी और ज्योतिष,व्याकरण,साहित्य और आयुर्वेद के ये धुरंधर विद्वान थे।[१०]

समाज सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले पण्डित जी ने चंपारण के अतिरिक्त गोरखपुर,बस्ती,अयोध्या,काशी,प्रयाग जैसे नगरों में भाषा,साहित्य और धर्म के प्रचार और संबर्द्धन के लिए विद्या धर्म वर्धनी सभा की स्थापना की। कहा जाता है कि इन नगरों में स्थापित सभाओं के सुचारु संचालन के लिए इन्हें भारतेन्दु जी के अतिरिक्त मझौले के राजा खड्ग बहादुर मल्ल और पण्डित उमापति शर्मा से आर्थिक सहयोग प्राप्त होता था।[११]

उल्लेखनीय है कि 1923 ई में पटना में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पंचम अधिवेशन की अध्यक्षता में मिश्र ने की थी। 1889 में विद्या धर्मव‌िर्द्धनी सभा द्वारा विद्या धर्मदीपिका नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन मझगांवा बरही, जिला गोरखपुर से आरंभ हुआ तो इस पत्रिका के संपादक पं॰ चन्द्रशेखर धर मिश्र हुए और मझगांवा निवासी पंडित यमुनाप्रसाद शुक्ल इसके कार्यकारी सम्पादक बने। एक वर्ष बाद विद्याधर्म दीपिका का प्रकाशन रामनगर पश्चिमी चम्पारण से होने लगा। रामनगर से बिद्याधर्म दीपिका के प्रकाशन में रामनगर के राजा प्रिंस मोहन विक्रम साह और राज के मैनेजर एवं साहित्यकार पं॰ देवी प्रसाद उपाध्याय का महत्वपूर्ण योगदान था। साहित्य समीक्षकों का मानना है कि विद्या धर्म दीपिका भारतेन्दु युग की प्रतिनिधि पत्रिका थी। पं॰ चन्द्रशेखर मिश्र ने चम्पारण चन्द्रिका नामक पत्रिका का भी संपादन किया।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. हिन्दी साहित्य का इतिहास, लेखक : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पृष्ठ संख्या : ४०७
  2. ऊर्विजा (अनियतकालिक पत्रिका), जनवरी १९९३, संपादक :रवीन्द्र प्रभात, लेख: दस्तावेज़, लेखक : डॉ सतीश कुमार राय, पृष्ठ २७
  3. मिश्र बंधु विनोद, खंड-४, कवि संख्या ३९७०, पृष्ठ : ४४७
  4. हिन्दी कोविद रत्नमाला, भाग-२ में संकलित
  5. शिवपूजन रचना वाली, खंड-४, पृष्ठ: १६४
  6. हिन्दी साहित्य और बिहार, खंड-३, पृष्ठ: १३७
  7. अर्घ्य (त्रैमासिक), सितंबर १९६१, पृष्ठ:६१-६२, में संकलित हरीशचंद प्रसाद के लेख : एसडबल्यू। पण्डित चन्द्रशेखर धर मिश्र
  8. बिहार की साहित्यिक प्रगति, पृष्ठ :१२९
  9. आरोग्य प्रकाश, लेखक : चन्द्रशेखर धर मिश्र, पृष्ठ ५६
  10. हिन्दी विश्वकोश, खंड:९, पृष्ठ :२८३
  11. हिन्दी विश्व कोश, खंड:९, पृष्ठ :२८३

बाहरी कड़ियां