चकबंदी

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

चकबंदी वह विधि है [[जिसके द्वारा व्यक्तिगत खेती को टुकड़ों में विभक्त होने से रोका एवं संचयित किया जाता है तथा किसी ग्राम की समस्त भूमि को और कृषकों के बिखरे हुए भूमिखंडों को एक पृथक्‌ क्षेत्र में पुनर्नियोजित किया जाता है। भारत में जहाँ प्रत्येक व्यक्तिगत भूमि (खेती) वैसे ही न्यूनतम है, वहाँ कभी कभी खेत इतने छोटे हो जाते हैं कि कार्यक्षम खेती करने में भी बाधा पड़ती है। चकबंदी द्वारा चकों का विस्तार होता है, जिससे कृषक के लिये कृषिविधियाँ सरल हो जाती हैं और पारिश्रमिक तथा समय की बचत के साथ साथ चक की निगरानी करने में भी सरलता हो जाती है। इसके द्वारा उस भूमि की भी बचत हो जाती है जो बिखरे हुए खेतों की मेड़ों से घिर जाती है। अंततोगत्वा, यह अवसर भी प्राप्त होता है कि गाँव के वासस्थानों, सड़कों एवं मार्गों की योजना बनाकर सुधार किया जा सके।]] चकबंदी के अंतर्गत किसान की जोतों को एक स्थान में एकत्रित किया जाता है।

चकबंदी को 50 प्रतिशत भूस्वामियों के प्रतिवेदन पर लागू किया जा सकता है यदि वे भूस्वामी गांव की 2/3 भूमि पर अधिकार रखते हो।

इतिहास

[[चकबंदी का कार्य सर्वप्रथम प्रयोगिक रूप से सन्‌ 1920 में पंजाब में प्रारंभ किया गया था। सरकारी संरक्षण में सहकारी समितियों का निर्माण हुआ, ताकि चकबंदी का कार्य ऐच्छिक आधार पर किया जा सके। प्रयोग सामान्य: सफल रहा, किंतु यह आवश्यक समझा गया कि पंजाब चकबंदी कानून 1936 में पास किया जाय, जिसके द्वारा अधिकारियों को योजना तथा काश्तकारों के मतभेदों का निर्णय करने का अधिकार प्राप्त हो जाय। 1928 में "रायल कमीशन ऑन ऐग्रीकल्चर इन इंडिया' ने, जिसे इसका अधिकार नहीं था कि वह जमीन की मिल्कियत में कोई परिवर्तन करे, यह संस्तुति की कि अन्य प्रांतों में भी चकबंदी ग्रहण कर ली जाय। परंतु केंद्रीय प्रांतों और पंजाब के अतिरिक्त, जहाँ कुछ सीमित सफलता के साथ चकबंदी कार्य हुआ, अन्य प्रांतों में बहुत कम सफलता प्राप्त हुई। यह पाया गया कि थोड़े से ही एसे खंड थे जहाँ पंजाब की भूमि की अदला बदली या चकबंदी द्वारा होनेवाली क्षति की जोखम उठाने को अनिच्छुक थे।

स्वतंत्रता के पश्चात्‌ चकबंदी पद्धति में व्यावहारिक रूप से ऐच्छिक स्वीकृति के सिद्धांत का समाप्त कर एक नवीन प्रेरणा प्रदान की गई। बंबई में प्रथम बार 1947 में पारित एक विधान द्वारा सरकार को यह अधिकार प्राप्त हुआ कि वह जहाँ उचित समझे, चकबंदी कार्य लागू करे। जिन प्रांतों ने इस प्रथा का पालन किया उसमें पंजाब (1948), उत्तर प्रदेश (1998 और 2000), पं॰ बंगाल (1955), बिहार तथा हैदराबाद (1956) शामिल हैं। प्रांतीय सरकारों को केंद्रीय सरकार द्वारा बहुत प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। तीनों पंचवर्षीय योजनाओं में चकबंदी के विस्तार का आयोजन किया गया और मई, 1957 में भारतीय सरकार ने यह घोषणा की कि वह राज्यों का चकबंदी कार्य लागू करने के लिये बहुत सीमा तक आर्थिक सहायता देने के लिये सहमत है। चकबंदी कार्यक्रम के विकसित आवेश को इस तथ्य से जाँचा जा सकता है कि जहाँ मार्च, 1956 में अंत तक भारत का कुल चकबंदी क्षेत्र 110.09 लाख एकड़ था वहाँ मार्च, 1960 के अंत तक बढ़कर 230.19 लाख एकड़ हो गया तथा उसी समय 131.87 लाख एकड़ क्षेत्र पर चकबंदी कार्य चल रहा था। किंतु विभिन्न प्रांतों में ये काम असंतुलित ढंग से हो रहा था। मार्च, 1960 में चकबंदी किए हुए क्षेत्र का आधे से भी अधिक भाग पंजाब प्रांत में (121.08 लाख एकड़) स्थित था, जबकि बड़े प्रांतों- जैसे आ्ध्रा, मद्रास, बंगाल और बिहार में चकबंदी क्षेत्र या तो बिलकुल शून्य था या नगण्य।

स्पष्टतया उस क्षेत्र में चकबंदी करना सरल कार्य नहीं है जहाँ भूमि में मुख्यत: सजातिता का गुण नहीं है। इसके लिये सदैव बहुत संख्या में प्रशिक्षित (और ईमानदार) अधिकारी चाहिए। दुर्भाग्यवश अनिवार्य बाध्यता ने इसे काश्तकारों में अधिक लोकप्रिय नहीं होने दिया और जितने अच्छे परिणामों की आशा थी उतने अभी तक प्राप्त नहीं हुए, बल्कि आशंका इस बात की रहती है कि चकबंदी के बाद तक फिर से विभाजित न हो जायें। इसलिये कुछ प्रांतों में, उदाहरणार्थ उत्तर प्रदेश में, चकबंदी किए हुए क्षेत्र को उपभोग, विक्रय एवं हस्तांतरण करने से रोकने के लिये विशेष नियम बनाए गए हैं। किंतु अन्य प्रांतों जैसे पंजाब में अभी यह नियम नहीं लागू किए गए हैं तथा कुछ प्रांतां ने अभी तक इसपर विधिवत्‌ विचार भी नहीं किया है (1962)।]]

चकबन्दी योजना का प्रभाव एवं लाभ

संहत जोत : चकबन्दी प्रक्रिया के दौरान कृषकों की जगह-जगह बिखरी हुई जोतों को एक स्थान पर संहत कर दिया जाता हैा इससे चकों की संख्या में कमी हुई है, जिससे कृषि कार्य सुगम हुआ है।

कृषि उत्पादन में वृद्धि : कृषक जोतों के एक स्थान पर संहत हो जाने से अपने सीमित संसाधनों को प्रभावी ढंग से उपयोग कर पाने में समर्थ हो पाते हैं, जिससे कृषि कार्य में सुविधा के साथ-साथ कृषि उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

भू-वादों में कमी : कृषकों के खातों एवं गाटों के सम्बंध में उपजे विवादों का ग्राम में सार्वजनिक स्थान पर अदालतें लगाकर निस्तारण करने से भू-वादों में कमी आयी है।

कृषि यांत्रिकीकरण में वृद्धि : चकबन्दी प्रक्रिया के दौरान सिंचाई के लिये प्रत्येक चक को नाली एवं आवागमन की सुविधा के लिये चकमार्ग की सुविधा प्राप्त होती है, जिससे कृषकों को फसलोत्पादन में सुविधा हुई है।

सार्वजनिक उपयोग यथा आबादी, स्कूल, अस्पताल आदि हेतु भूमि की उपलब्ध्ता : चकबन्दी प्रक्रिया के दौरान भूमिहीन, निर्बल व दलित वर्ग को आबादी प्रदान करने के साथ अन्य सार्वजनिक प्रयोजन जैसे पंचायत घर, खेल का मैदान, खाद के गड्ढे, स्कूल, अस्पताल आदि के लिये यथा आवश्यक भूमि आरक्षित की जाती है।

पर्यावरण पर प्रभाव : चकबन्दी के दौरान वृक्षारोपण हेतु भी भूमि आरक्षित की जाती है। वृक्षारोपण संतुलन में सहायक हुआ है।

बाहरी कड़ियाँ