घासीराम कोतवाल (नाटक)

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घासीराम कोतवाल
Ghashiram Kotwal play (1).JPG
घासीराम कोतवाल नाटक का एक दृश्य
निर्देशक जब्बार पटेल
लेखक विजय तेंदुलकर
अभिनेता मोहन अगाशे
संगीतकार भासकर चंदावरकर
छायाकार सतीश अलेकार
प्रदर्शन साँचा:nowrap 1972
देश साँचा:flag
भाषा मराठी

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घासीराम कोतवाल विजय तेंदुलकर द्वारा लिखित मराठी नाटक है। यह ब्राह्मणों के गढ़ पूना में रोजगार की तलाश में गए एक हिंदी भाषी ब्राह्मण घासीराम के त्रासदी की कहानी है। ब्राह्मणों से अपमानित घासीराम मराठा पेशवा नाना फड़नबीस से अपनी बेटी के विवाह का सौदा करता है और पूना की कोतवाली हासिल कर उन ब्राह्मणों से बदला लेता है। किंतु नाना उसकी बेटी की हत्या कर देता है। घासीराम चाहकर भी इसका बदला नहीं ले पाता। उल्टे नाना उसकी हत्या करवा देता है।

इस नाटक के मूल मराठी स्वरूप का पहली बार प्रदर्शन 16 दिसंबर, 1972 को पूना में ‘प्रोग्रेसिव ड्रामाटिक एसोसिएशन’ द्वारा भरत नाट्य मन्दिर में हुआ। निर्देशक थे डॉ॰ जब्बार पटेल

लेखक का वक्तव्य

‘घासीराम कोतवाल’ ऐतिहासिक नाटक नहीं है। वह एक नाटक है, सिर्फ नाटक ! नाटक सिर्फ नाटक ही होता है। एक साहित्यिक कलाकृति के सन्दर्भ में यह कहना कि वह ऐतिहासिक है, या पौराणिक है, या सामाजिक है, बेमानी है। समय बहुत जल्दी सामाजिक को ऐतिहासिक और ऐतिहासिक को पौराणिक बना देता है। फिर भी इस नाटक की सामग्री-कच्चा मसाला-इतिहास से बटोरी गई है। इतिहास का क्षीण-सा आधार अवश्य लिया गया है। पर, इसके आगे नाटक का इतिहास से कोई सम्बन्ध नहीं है। और यह कच्चा मसाला भी ठीक उसी तरह इतिहास से लिया गया है, जिस तरह समसामयिक जीवन-स्थितियों से भी लिया जाता है। महाराष्ट्र में पेशवाओं का राज था, नाना फड़नवीस पेशवा के प्रधान थे, कोई एक घासीराम था, ब्राह्मण थे, मराठा सरदार थे और वे सब ईकाइयाँ अपने-अपने दायरे में बँधी समय के प्रवाह में लकड़ी के लट्ठे की भाँति कभी सटकर तो कभी हटकर, कभी परस्पर को छूती तो कभी टकराती अप्रतिहत प्रवाहित हो रही थीं। उनका यह कार्य-करण उचित था या अनुचित या उनका मूलभूत अस्तित्व सार्थकतायुक्त था अथवा नहीं, इसकी खोजबीन करना इतिहास का शोध करनेवाले व्यक्ति का काम हो सकता है, नाटककार का नहीं। मैं इसी कारण ‘घासीराम कोतवाल’ को अनैतिहासिक नाटक मानता हूँ।

‘घासीराम कोतवाल’ एक किंवदन्ती, एक जनश्रुति एक दन्तकथा है। और दन्तकथा का एक अपना रचना-विधान होता है: झीने यथार्थ को जब हम अपनी नैतिकता से रंजित कर कल्पना की सहायता से पुनरुज्जीवित करते हैं तो एक दन्तकथा बन जाती है। दन्तकथा गप्प भी है और देखने की दृष्टि हो तो एक दाहक अनुभव भी। दाहक अनुभव ही रचनात्मक साहित्य बन पाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। परन्तु दन्तकथा क्या होती है और कैसी होती है, इससे ज्यादा महत्त्व की बात यह है कि हम उसे किस तरह लेते हैं, क्योंकि तभी हम अपनी जाँच-पड़ताल करते हैं। जाहिर है कि यही काम सबसे मुश्किल होता है, एक गहरी चुनौती है वह। उसे स्वीकारना अपनी साहित्य-निष्ठा का परिचय देना है।

मेरी निगाह में ‘घासीराम कोतवाल’ एक विशिष्ट समाज-स्थिति की ओर संकेत करता है। वह समाज-स्थिति न पुरानी है और न नई। न वह किसी भौगोलिक सीमा-रेखा में बँधी है, न समय से ही। वह स्थल-कालातीत है, इसलिए ‘घासीराम’ और ‘नाना फड़नवीस’ भी स्थल-कालातीत हैं। समाज-स्थितियाँ उन्हें जन्म देती हैं, देती रहेंगी। किसी भी युग का नाटककार उनसे अछूता नहीं रह पाएगा। अपनी प्रकृति के अनुसार वह कभी भव्य-भीषण रूप देकर उन्हें मंच पर उतारेगा तो कभी नृत्य-संगीतमय बनाकर प्रस्तुत करेगा। मैंने जान-बूझकर दूसरी रीति अपनाई है। लोकनाट्य का लचीलापन विख्यात है और दन्तकथा के प्रस्तुतीकरण के लिए सबसे अधिक उपयोगी है। उसमें एक पात्र विशिष्ट मनोवृत्ति का प्रतिनिधि बनकर उभरता है और वह मनोवृत्ति एकदम प्रत्यक्ष तथा परिपूर्ण और अमिश्रित होती है। सतही संश्लिष्टता के रहते हुए भी वह आम दर्शक के सामने बराबर उजागर होकर रहती है। इसके अतिरिक्त उसका अपना एक भदेसपन भी होता है जो भाषा और तमाशा के स्तरों पर स्वयमेव अवतीर्ण होता है। लोकनाट्य की इस विशिष्टता को मैं क्यों छोड़ देता ?

लेकिन रचनाकार को अपनी रचना के विषय में ज्यादा नहीं बोलना चाहिए, रचना स्वयं बोलती है और वही सत्य है। विजय तेन्दुलकर

निर्देशक का वक्तव्य

इस नाटक में घासीराम और नाना फड़नवीस का व्यक्ति-संघर्ष प्रमुख होते हुए भी तेन्दुलकर ने इस संघर्ष के साथ-साथ अपनी विशिष्ट शैली में तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक स्थिति का मार्मिक चित्रण किया है। परिणामत: सत्ताधारी वर्ग और जनसाधारण की सम्पूर्ण स्थिति पर काल-अवस्थापन के अन्तर से विशेष वास्तविक अन्तर नहीं पड़ता। घासीराम हर काल और समाज में होते हैं और हर उस काल और उस समाज में उसे वैसा बनानेवाले और बनाकर मौका ताक उसकी हत्या करनेवाले नाना फड़नवीस भी होते ही हैं-वह बात तेन्दुलकर ने अपने ढंग से प्रतिपादित की है।

नाना ने घासीराम का उपयोग बड़ी धूर्तता से किया है। पर जब उनका रचा ‘राक्षस’ पलटकर उन्हीं को चुनौती देने लगता है तो नाना ही उसे नष्ट भी कर देता है। इस दृष्टि से यह नाटक नाना फड़नवीस का ही है, इसमें शक नहीं।

घासीराम एक प्रकार से एक प्रसंग मात्र है जिसे तेन्दुलकर ने अपने वक्तव्य की अभिव्यक्ति का एक निमित्त, एक साधन बनाया है। ‘घासीराम कोतवाल’ नाटक में नाना फड़नवीस और तत्कालीन पतनोन्मुख समाज के चित्रण द्वारा (जो समय और स्थान की सीमा में नहीं बँधे-जैसा मैं पहले कह चुका हूँ) कुछ राजनीतिक और विशेष सामाजिक स्थितियों के विषय में तेन्दुलकर को कुछ सत्य उजागर करने हैं, जो सनातन हो गए हैं।

इतिहास के नाना फड़नवीस बौद्धिक प्रखरता से तड़पती हुई शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हैं। किन्तु इस नाटक में केवल घासीराम कोतवाल के प्रसंग की सीमा में घिरे होने के कारण उनका व्यक्तित्व इकहरा दिखाई पड़ता है, उसके दूसरे आयाम सामने नहीं आते। अप्रत्यक्ष रूप से तेन्दुलकर ने इसका भी उसी तरह उपयोग किया है जैसा लोक नाटकों में होता है जहाँ चरित्र आमतौर पर एक या दो आयामवाले ही होते हैं। इसीलिए एक प्रसिद्ध मराठी समीक्षक ने इस नाटक को बहुत कुछ पारम्परिक भारतीय नाट्य-रूप उपरूपक जैसा बताया है।

मैंने अपनी प्रस्तुति में इसी बात को केन्द्रीय सूत्र के रूप में माना है। नाटक देखते समय दर्शकों के मन में अनजाने ही यह बात उतरती जानी चाहिए कि सारे-का-सारा समाज ही ढह रहा है, चुक रहा है। यह बात अप्रत्यक्ष नहीं होनी चाहिए। इस नाटक की रचना मराठी रंगमंच के लिए एकदम नई होने के कारण उसके अभिप्रेत अर्थ को मनचाही अप्रत्यक्ष पद्धति से व्यक्त करने में मुझे बड़ी सुविधा हुई।

किसी प्रतिष्ठित नाटककार ने लोकनाट्य के स्वरूप में कोई नाटक पहले ढाला नहीं था, इसलिए मैं लोकनाटक के लचीले लोचपूर्ण शिल्पतन्त्र का उपयोग कई प्रकार से खुलकर कर सका।

आदमियों के झूलते परदे की कल्पना रंगमंच के लिए अद्भुत है। इस नाटक की सबसे बड़ी युक्ति भी यही है। बारह ब्राह्मण कोरस के रूप में कथा-प्रवाह सँभालते हैं। आवश्यकतानुसार तात्कालिक इकहरी भूमिकाएँ भी निभाते हैं। यह परदा दो खंडों में बँटता है और क्षण-भर में समाज के कई-कई घटकों, ईकाइयों के प्रतिरूप में ढल जाता है। घासीराम को कोतवाल के रूप में स्थापित करनेवाला यही परदा घासीराम के वध के समय रुष्ट ब्राह्मणों के रूप में रंगमंच पर दीखता है। श्री गजराज नर्तन करैं गानेवाला यही परदा गणपति-वन्दना द्वारा लोकनाट्य से अपना सम्बन्ध जोड़ता है। कलाकार और भूमिका के बीच एक सूक्ष्म और तर सम्बन्ध लोकनाट्य की विशेषता है। मैंने अपने प्रदर्शन को किसी विशेष लोकशैली में नहीं बाँधा वरन् दशावतार, भारुड़, खेला, तमाशा, पोवाड़ा, वाध्यामुरली, कीर्तन आदि शुद्ध मराठी लोककलाओं का मिश्रित उपयोग किया है। सरस्वती, लक्ष्मी, गणपति द्वारा दशावतारी आरम्भ होता है। इस समय की आरती के थाल को ही बाद में कीर्तन के समय काले टीके (बुक्का) के लिए उपयोग कर इन विभिन्न शैलियों में साम्य दिखाने का मैंने प्रयत्न किया है।

ब्राह्मण-वेशधारी कलाकार प्रेक्षागृह से होकर रंगमंच पर आते हैं। इस प्रकार आत्मीयता उत्पन्न होने के कारण प्रदर्शन का लोकनाट्य-रूप दर्शकों के मानसिक स्तर तक अधिकाधिक सम्प्रेषित हो जाता है।

नाटक के पहले अंक की गति दूसरे अंक की अपेक्षा धीमी है। लोक नाट्य के बाह्य स्वरूप में ऐतिहासिक व्यक्ति को स्थापित होने में समय लगना स्वाभाविक ही है क्योंकि वह सर्वथा नया अनुभव है। नाना फड़नवीस सरीखे इतिहास-पुरुष का रंगमंच पर नृत्य-तालबद्ध होकर आना मराठी दर्शक के लिए निश्चय ही धक्का पहुँचानेवाला अनुभव था। इसलिए दर्शक को इस बात का विश्वास दिलाना था कि इस नाटक का पात्र नाना फड़नवीस एक लोकनाटकीय चरित्र मात्र है-ऐतिहासिक नाटकों का प्रामाणिक, सम्पूर्ण व्यक्तित्व नहीं। कुछ समीक्षकों की दृष्टि में यह बात बहुत धीमे-धीमे स्थापित हुई। किन्तु मुझे लगा कि खोखले समाज को निर्देशित कर उसमें नाना के स्थान और कोतवाली हासिल करने के लिए घासीराम द्वारा नाना के उपयोग की प्रक्रिया आदि का दिग्दर्शन विस्तारपूर्ण होना ही चाहिए था।

दूसरे अंक की गति तेज थी। पूना के ब्राह्मणों पर अत्याचार करनेवाला घासीराम, उसका प्रतिशोध, उस प्रतिशोध के कारण घासीराम का राक्षस में रूपान्तरित होना, आदि अग्निपरीक्षा के दृश्य तक जाकर स्थापित होता है।

नाना के विवाह से लेकर गौरी की मृत्यु तक घासीराम बहुत बेचैन है लेकिन उसकी बेचैनी नराधम की है। वह ब्राह्मणों को कोठरी में घोंट कर मारना नहीं चाहता था लेकिन नराधम घासीराम की हत्या उसके अप्रत्यक्ष अपराध का ही फल है-नियति के इस विरोधाभास को तेन्दुलकर ने प्रभावशाली ढंग से निरूपित किया है। नियति का ऐसा प्रतिशोध अनेक ऐतिहासिक खलनायकों के प्रसंग में मिलता है।

घासीराम की हत्या के बाद नाना का चतुराई-भरा भाषण धूर्त्तता और कूटनीति से पूर्ण होने के कारण उनके प्रभुत्व का विलक्षण प्रभाव उत्पन्न करता है और नाना फड़नवीस पुन: नाटक के केन्द्र में आ जाते हैं।

इस नाटक का अंग्रेज पात्र एक दर्शक मात्र है। नाटक के अन्त में वह पिछली चौकी पर बाईं ओर प्रकाशवृत्त में खड़ा है। नीचे घासीराम की हत्या के बाद सामूहिक उत्सव हो रहा है। यह पूना के भावी इतिहास का महत्त्वपूर्ण पूर्वाभास है। यही अंग्रेज घासीराम के कोतवाली प्राप्त करने के समारोह के समय भी एक कोने में ख़ड़ा होकर उसका साक्षी बनता है। मैंने पहली बार जब यह नाटक पढ़ा तो लगा यह नाटक संवाद-प्रधान नहीं, अपेक्षाकृत दृश्य-प्रधान है। मुझे ऐसे ही दृश्य-बिम्बों (विजुअल्स) द्वारा प्रभाव उत्पन्न करनेवाले नाटक की तलाश थी। दूसरी बात बहुत दिनों से मेरे मन में यह थी कि फिल्मों में दूरवर्ती (लौंग-शॉट) मध्यवर्ती (मिड शॉट) और समीपवर्ती (क्लोज-अप) चित्रों की तीन-चार दूरियों और उनके सम्मिश्रण के शिल्प और चातुर्य से जो विशेष प्रभाव उत्पन्न किया जाता है, वह रंगमंच पर भी क्यों न हो ? यह नाटक संवाद, नृत्य, संगीत, गति, पात्र, दृश्य आदि अनेक खंडों के योग से अग्रसर होता है। इन सबको जोड़नेवाला सूत्र भी जबरदस्त है। इन सब तत्त्वों के साथ ही यह नाटक ‘पूर्ण’ लगता है, अतएव काल्पनिक कैमरा हाथ में लेकर ही मैंने इसे साकार करने का प्रयत्न किया। प्रकाश-योजना द्वारा रंगमंच को विभाजित कर दूर और पास के अनेक वांछित प्रभाव रंगमंच पर उत्पन्न किए।

गति और समूहन आदि को मैंने कागजी तैयारी में ही निर्धारित कर लिया था। मेरी पद्धति में नाटक की प्रदर्शन-प्रति के हर पृष्ठ पर प्रसंग के रेखाचित्र पहले से तैयार रहते हैं। इस नाटक के साठ-पैंसठ पात्रों की गतियाँ स्वत:स्फूर्त न हों वरन् नियोजित रहें, इसके लिए मैं पूरी तरह तैयार था। इन पात्रों की गति-शैली कठपुतलियों की तरह अपेक्षित थी। चरित्र की दृष्टि से मैंने जो घासीराम चुना, वह कद में छोटा था। आसपास के ‘प्रचंड’ व्यक्तियों में वह बौना ही लगना भी चाहिए था। नृत्य-गतियाँ सरल और सहज किन्तु लयबद्ध थीं। शास्त्रीय नृत्य का प्रयोग इस लोकनाट्य में जटिल और अतिपरिष्कृत लगा। नृत्य-गतियों में लोकनाट्य की अनगढ़ ऊर्जा का होना आवश्यक था। घासीराम की नृत्यमय मृत्यु-मात्र को ही स्वत: स्फूर्त (इम्प्रोविजेशन) ढंग से प्रस्तुत किया गया। ढोल और नगाड़े की प्रबल ताल को चन्दावरकरजी1 ने आगे जाकर विशेष ढंग से बढ़ाया, जिससे दृश्य की भीषणता बढ़ी। नाना की नृत्य-गतियों में संयम और प्रभुता का पुट बरकरार था। मुलगन्दजी2 ने लावणी को बैठकी लावणी के पदन्यास में ढाला था जो पूरे मराठी रंगवाली थी।---- 1.संगीत-निर्देशक। 2.नृत्य-निर्देशक।

भास्कर चन्दावरकरजी ने संगीत के लिए सिर्फ चमड़े के साज ही लिए और वे भी प्रदर्शन के साथ-साथ बजवाकर, पहले से रिकार्ड करके नहीं। उसमें अपवाद मात्र सुन्दरी वाद्य ही था। नाना-गौरी के बाग के दृश्य में और नाना के विवाह के समय सुन्दरी अलग-अलग ढंग से बजाई गयी थी। चन्दावरकरजी ऑर्गन नहीं चाहते थे क्योंकि उससे प्रचलित संगीत नाटकों का सा असर लोक-संगीत में आ जाता। नमन, लावणी, पोवाड़ा, वाध्यामुरली, भारुड़ आदि अपने प्रकृत अनगढ़ ओज के साथ ही गाए गए। गुनगुनाने का उपयोग मराठी रंगमंच पर पहली बार चन्दावरकरजी ने किया। मनुष्यों के हिलते परदे की गुनगुनाहट द्वारा भिन्न-भिन्न भावावेग व्यक्त किए गए।

घासीराम की हत्या के बाद उत्सव होता है और फिर मनुष्यों का परदा सामने आता है। कथा समाप्त हो चुकी है, इसलिए नाना की भूमिका करनेवाला अभिनेता भी इस परदे में सम्मिलित हो जाता है। घासीराम मरा पड़ा है, पर उस अभिनेता के उठने से रसभंग न हो, इसलिए उसे अपवादरूप यथास्थान ही रहने दिया जाता है। तभी सूत्रधार आगे बढ़कर श्री गजराज नर्तन करैं ध्रुपद को भैरवी के करुण स्वर में गाकर उस ‘कलाकार’ को श्रृद्धांजलि अर्पित करता है। एक प्रकार से लोकनाटक का पूर्ण शिल्प यहाँ दीखता है और नाना जैसे सत्ताधारी व्यक्ति का पंक्ति में आना भी विशेष अर्थ का द्योतक हो जाता है, क्योंकि जैसे पहले बताया गया, अंग्रेज पीछे खड़ा यह सब देख रहा है। मगर लोकनाट्य शिल्प से भी अधिक नाटक का यह रूप अधिक गहरे सोचने को विवश करता है।

घासीराम दर्शकों से सीधे बात करता है, प्रभाव को गहन करने के लिए जो कि ब्रेख्त के विपरीत है, क्योंकि यहाँ घासीराम कथा-सूत्र में बाधा नहीं डालता, न ही वह प्रभाव को मिटाने का यत्न करता है। यहीं रूढ़ लोकनाट्य से भिन्न शिल्प का प्रयोग तेन्दुलकर ने किया है। वेशभूषा में ऐतिहासिक प्रामाणिकता का आग्रह नहीं बरता गया इससे भी लोक-शैली का प्रभाव जमा रहा। रंगों का चुनाव अवश्य सावधानी से किया गया जिससे समूहन आदि में रंग-मिश्रण की सम्भावना रहे। अभ्यास तीन-साढ़े तीन महीनों तक हर दिन किया गया। नृत्य, गीत, संवाद सभी का तालमेल साथ-साथ ही चला। मंडली का कोई भी कलाकार व्यावसायिक नर्तक या गायक नहीं था। सभी शौक से आते थे-शौकिया थे। यही नहीं, साठ में से पच्चीस तो ऐसे थे जिन्होंने मंच पर इससे पहले कभी पाँव न रखे थे। किन्तु इनका श्रम, लगन और आत्मविश्वास प्रबल था। लगनशील, कलाकार, नृत्य-निर्देशक, संगीत-निर्देशक और निर्देशक के सहयोगी प्रयासकर्म से ही यह अलग ढंग की प्रस्तुति हो सकी। 1 -डॉ॰जब्बार पटेल

सन्दर्भ

[१]