कोथ
कोथ अंग्रेज़ी:गैंगरीन | |
मधुमेहजनित अल्सर जिसमें केन्द्रीय शुष्क कोथ और अंगूठे की ओर आर्द्र कोथ है | |
आईसीडी-१० | R02., I70.2, E10.2, I73.9 |
आईसीडी-९ | 040.0, 785.4 |
रोग डाटाबेस | 19273 |
एमईएसएच | D005734 |
जब किसी भी कारण से शरीर के किसी भाग अथवा बड़े ऊतक-समूह की मृत्यु हो जाती है तब उस व्याधि को कोथ (गेंग्रीन अथवा मॉर्टिफिकेशन, Gangrene or Mortification) कहते हैं। कोथ जानलेवा स्थिति का संकेत है। कोथ शब्द प्रायः उन बाहरी अंगों के ऊतकों की मृत्यु के लिये उपयोग किया जाता है जो हमको दिखाई देते है। इस रोग में ऊतक का नाश अधिक मात्रा में हो जाता है। धमनी के रोग, धमनी पर दबाव या उसकी क्षति, विषैली ओषधियों, जैसे अरगट अथवा कारबोलिक अम्ल का प्रभाव, बिछौने के व्रण, जलना, धूल से दूषित व्रण, प्रदाह, संक्रमण, कीटाणु, तंत्रिकाओं का नाश तथा मधुमेह आदि कोथ के कारण हो सकते हैं।
प्रकार
कोथ मुख्यतः दो प्रकार का होता है: शुष्क और आर्द्र। शुष्क कोथ जिस भाग में होता है, वहाँ रक्तप्रवाह शनै: शनै: कम होकर पहले ऊतक का रंग मोम की तरह श्वेत तथा ठंढा हो जाता है, तदुपरांत राख के रंग का अथवा काला हो जाता है। यदि ऊर्ध्व या अध: शाखा में कोथ होता है तो वह भाग पतला पड़कर सूख जाता है और कड़ा होकर निर्जीव हो जाता है। इसको अंग्रेजी मे मॉर्टिफ़िकेशन कहते हैं। आर्द्र कोथ जिस भाग में होता है वहाँ रूधिर का संचार एकाएक कट जाता है, परंतु उस स्थान में रक्त भरा होता है और द्रव भरे छाले दिखाई देते हैं। वहाँ के सब ऊतक मृत हो जाते हैं। मृत भाग सड़े हुए खुरंड (स्लफ, Slough) के रूप में पृथक् हो जाता है और उसके नीचे लाल रंग का व्रण निकल आता है। आरम्भ में ये असंक्रामक होता है। परन्तु बाद में इसमें दंडाणु का संक्रमण हो जाता है।
दोनों प्रकार के कोथ में शल्य आवश्यक है। पेनिसिलिन की सुई और सल्फोनामाइड तथा निकोटिनिक अम्ल हितकर सिद्ध हुए हैं।
कारण
- आघात : अत्यधिक आघात से उत्पन्न व्रण, पिच्चित व्रण, शय्याज व्रण, अवगाढ कुशा से उत्पन्न व्रण तथा विकत पोषण वाले रोगियो के आघातज व्रण ईत्त्यादि अवस्थाओ मे उक्तियो मे विघटन अर्थात कोथ उत्पन्न होती ह।
- रक्तवाहिनियो की व्यधियाँ : रक्तवाहिनियो मे अनेक रोग हो सकते ह जैसे बरजर क रोग, रेनाड का रोग, एवम सिराओ कि विकतिया आदि।
(क) बरजर का रोग (burger's disease)
यह व्याधि अधिक्तर पुरुषो मे पायी जाती ह। धुम्रपान से, अधिक उम्र मे calcium के जमा होने से तथा ह्र्द्यान्त्रावरण शोफ् से उत्पन्न अन्तः शल्यता आदि कारणॉ से धमनियो मे शोफ तथा एन्ठन उत्पन्न हो जाती ह्। इससे धमनियो मे सन्कोच होकर धमनियो का विवर कम हो जाता ह। इस रोग से प्रभवित स्थान पर रक्त कि न्युनता होकर कोथ उत्पन्न होती ह्।
(ख) रेनाड का रोग (raynaud's disease)
यह व्याधि प्रायः स्त्रियो मे होती है। शाखाओ कि धमनिया शीत के प्रति सूक्ष्म ग्राही होने पर धमनियो मे एन्ठन तथा सन्कोच उत्पन्न हो जाता ह। इससे रक्त प्रवाह मन्द पड जाता ह तथा रक्त्त वाहिका के अन्तिम पूर्ति प्रान्त मे रक्त न्युन्ता होकर कोथ उत्पन्न हो जाती है।
(ग) सिराओं की विकृति
गम्भीर सिराओ मे घनस्र्ता उत्पन्न होने से जैसे अपस्फित सिरा मे तथा सिर मे सुचिभेद से सिरशोथ उत्पन्न होने से सिराओ मे रक्त परिभ्रमण के अवरुध या अत्ति नयून हो जाने पर उक्तियो मे कोथ उत्पन्न हो जाता है।
(घ) अन्य रोग
मधुमेह के रोगियो मे परिसरियतन्त्रिका शोफ तथा उक्तियो मे अधिक मात्रा मे आ जाने से एवम धमनियों मे केल्शियम के जमने से धातुओ मे रक्त न्युन्ता आ जाती ह, इससे सन्क्रमण उक्तियो मे शिघ्रता से कोथ उत्पन्न करता है।
(च) संक्रमण
कोथ के जीवाणू प्रोटीन का विघटन करते ह तथा अमोनिया और सल्फ्युरेटेड हाइड्रोजन (sulphurated hydrogen) उत्पन्न करते हैं। इनका व्रण पर सन्क्रमण होने से उनसे उत्पन्न हुई गैस पेशियो मे भर जाती है। इसक रक्त वाहिनियो पर दाब पडने से उन्मे रक्त अल्पता उत्पन्न होकर कोथ उत्पन्न हो जाती है।
लक्षण
सार्वदेहिक
१) कोथ से प्रभावित अंग के क्रियाशिल होने पर, उक्तियो मे oxygen कि न्युन्ता हो जाती ह, इससे पेशियो मे एन्ठन आती ह तथा तीव्र वेदना होने लगती ह्।
२) रक्त सन्चार में मन्द्ता आ जाने से प्रभावित अंग मेंं विश्राम काल भी वेदना रेहती है।
३) सन्क्रमण जन्य कोथ मे विषाक्त्तता होने से ज्वर्, वमन तथा रक्त भार मे ह्रास इत्यादि।
- स्थानिक
१) प्रभावित अग मे विवर्णता
२) धमनियो मे स्पन्दन स्माप्त हो जाता ह तथ कोशिकाओ मे रक्त कि अनउपस्थिति हो जाने से त्वचा के रग मे कोइ परिवर्तन नही आता।
३) प्रभावित अग मे उष्मा का अभाव
४) प्रभावित अग मे क्रिया का अभाव
चिकित्सा
कोथ की चिकित्सा इसके उत्पादक कारणॉ तथा इसकी अवस्थाओ पर निर्भर करती ह, जैसे-
१) मधुमेह मधुमेह के रोगी मे कोथ उत्पन्न होने पर उसे मधुमेह कि चिकित्सा देनी चाहिये। प्रभावित अग को पूर्ण विश्राम दे तथा सन्क्रमण के अनुसार प्रति जिवाणू औषधि क प्रयोग करना चाहिये। सीमा निर्धारण रेखा के बनने पर उस रेखा से अग विच्छदन कर देना चाहिये।
२) प्रमेह पिडीका (carbuncle) यदि प्रमेह पिडिका आकार मे बढ रही हो तो इसक छेदन कर देना चाहिये तथा रोगी को antibiotics देते रहे। व्रण पर Mgso4+ glycerine) के घोल को लगाये और रोगी को खाने के लिये विटामिन तथा लोहुयुक्त पदार्थ देने चाहिये।
३) सिर अन्तः शल्य - सिर मे अन्तः शल्य (embolus) होने पर उसका छेदन कर्म कर दे। कटी हुइ धमनी का सन्धान कर दे। Heparin के सुचिवेध द्वारा रक्त्स्कन्दन कि क्रिया को दबाये रखे तथा धमानियो को प्रसारित अवस्था मे रखे (by ponicol i.e. Nicotinyl alcohol tartarate 25 to 50 mgs. orally 4 times daily)। सीम निर्धारण रेखा बनने पर amputation कर देना चाहिये।
४) यदि कोथ सन्क्रमण युक्त हो तो व्रण को eusol and hydrogen peroxide से प्रक्षलन करे। रोगी को inj. anti gas gangrene serum 50,000 to 100,0000 units दे। infection होने पर polyvalent antitoxin 12,500 units I.M दे या अन्य प्रतिजिवाणू औषधिया देनी चाहिये।
सन्दर्भ ग्रन्थ
- सुश्रुत सन्हिता,
- शल्य प्रदिपिका - डॉ स्वरूप शर्मा
- शल्य समन्वय- वैद्य अनन्त राम शर्मा, क्लिनिकल शल्यतन्त्र