गोविन्दगुप्त

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गोविंदगुप्त, गुप्तवंशी सम्राट् कुमारगुप्त के छोटे भाई थे। वैशाली से मिली कुछ मिट्टी की मुहरों से उनका महादेवी ध्रुवस्वामिनी और महाराजाधिराज चंद्रगुप्त द्वितीय का पुत्र होना प्रगट होता है। संभवत: अपने पिता के शासनकाल में वह तीरभुक्ति के प्रांतीय शासक थे और वैशाली केंद्र से शासन करते थे, किंतु कुमारगुप्त के शासन में उनका स्थानांतरण पश्चिमी मध्यप्रदेश में हो गया जान पड़ता है।

मंदसोर से प्राप्त 467-8 ई. (मालव संवत् 524) के प्रभाकर के एक अभिलेख से भी एक गोविंदगुप्त का पता चलता है। वहाँ भी उन्हें चंद्रगुप्त का ही पुत्र कहा गया है। उसमें गोविंदगुप्त जीवित थे या नहीं तथापि गोविंदगुप्त की शक्ति के प्रति इंद्र को भी ईर्ष्यालु कहा गया है जिससे भंडारकर जैसेकुछ विद्वानों ने उन्हें स्वतंत्र शासक माना है। परंतु जब तक अन्य कोई पुष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं होता, हम यह नहीं निश्चित कर सकते कि वैशाली की मुहरों के गोविंदगुप्त और मंदसोर के अभिलेखवाले गोविंदगुप्त एक ही व्यक्ति थे। दोनों के एक होने में सबसे बड़ा व्यवधान समय का प्रतीत होता है। चंद्रगुप्त द्वितीय की अंतिम ज्ञात तिथि 412-413 ई. है। गोविंदगुप्त उनके एक भुक्ति का शासन सँभालते थे, यह उनकी युवावस्था और अनुभव का द्योतक है। उसके बाद भी वह दो पीढ़ियों (कुमारगुप्त और स्कंदगुप्त) तक जीवित रहे, यह असंभव तो नहीं, पर असाधारण अवश्य जान पड़ता है। जो भी हो, 467-8 ई. तक वह काफी वृद्ध हो चुके होंगे और अपने शासन भार को पूर्ववत् वहन करते रहे होंगे, इसमें संदेह किया जा सकता है।