गोविन्दगिरि

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
गोविंदगिरि

गोविन्दगिरि या गोविङ गुरु (1858-1931), भारत के एक सामाजिक और धार्मिक सुधारक थे जिन्होने वर्तमान राजस्थान और गुजरात के आदिवासी बहुल सीमावर्ती क्षेत्रों में 'भगत आन्दोलन' चलाया। [१] [२]

गोविन्द गुरु का जन्म 20 दिसम्बर, 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया (बेड़िया) गांव में गोवारिया जाति के एक बंजारा परिवार में हुआ था। बचपन से उनकी रुचि शिक्षा के साथ अध्यात्म में भी थी। महर्षि दयानन्द सरस्वती की प्रेरणा से उन्होंने अपना जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने अपनी गतिविधियों का केन्द्र वागड़ क्षेत्र को बनाया।

उन्होने न तो किसी स्कूल-कॉलेज में शिक्षा ली थी और न ही किसी सैन्य संस्थान में प्रशिक्षण पाया था। अंग्रेजी हुकूमत के दिनों जब भारत की आजादी में हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से योगदान दे रहा था तब अशिक्षा और अभावों के बीच अज्ञान के अंधकार में जैसे-तैसे जीवनयापन करते आदिवासी अंचल के निवासियों को धार्मिक चेतना की चिंगारी से आजादी की अलख जगाने का काम गोविंद गुरु ने किया। वे ढोल-मंजीरों की ताल और भजन की स्वर लहरियों से आम जनमानस को आजादी के लिए उद्वेलित करते थे।

गोविंद गुरु ने भगत आंदोलन 1890 के दशक में शुरू किया था। आंदोलन में अग्नि देवता को प्रतीक माना गया था। अनुयायियों को पवित्र अग्नि के समक्ष खड़े होकर पूजा के साथ-साथ हवन (अर्थात् धूनी) करना होता था। 1883 में उन्होने ‘सम्प सभा’ की स्थापना की। इसके द्वारा उन्होंने शराब, मांस, चोरी, व्यभिचार आदि से दूर रहने; परिश्रम कर सादा जीवन जीने; प्रतिदिन स्नान, यज्ञ एवं कीर्तन करने; विद्यालय स्थापित कर बच्चों को पढ़ाने, अपने झगड़े पंचायत में सुलझाने, अन्याय न सहने, अंग्रेजों के पिट्ठू जागीरदारों को लगान न देने, बेगार न करने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी का प्रयोग करने जैसे सूत्रों का गांव-गांव में प्रचार किया।[३]

कुछ ही समय में लाखों लोग उनके भक्त बन गये। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सभा का वार्षिक मेला होता था, जिसमें लोग हवन करते हुए घी एवं नारियल की आहुति देते थे। लोग हाथ में घी के बर्तन तथा कन्धे पर अपने परम्परागत शस्त्र लेकर आते थे। मेले में सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं की चर्चा भी होती थी। इससे वागड़ का यह आदिवासी क्षेत्र धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार तथा स्थानीय सामन्तों के विरोध की आग में सुलगने लगा।

17 नवम्बर, 1913 (मार्गशीर्ष पूर्णिमा) को मानगढ़ की पहाड़ी पर वार्षिक मेला होने वाला था। इससे पूर्व गोविन्द गुरु ने शासन को पत्र द्वारा अकाल से पीड़ित आदिवासियों से खेती पर लिया जा रहा कर घटाने, धार्मिक परम्पराओं का पालन करने देने तथा बेगार के नाम पर उन्हें परेशान न करने का आग्रह किया था; पर प्रशासन ने पहाड़ी को घेरकर मशीनगन और तोपें लगा दीं। इसके बाद उन्होंने गोविन्द गुरु को तुरन्त मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया। उस समय तक वहां लाखों भगत आ चुके थे। पुलिस ने कर्नल शटन के नेतृत्व में गोलीवर्षा प्रारम्भ कर दी, जिससे हजारों लोग मारे गये। इनकी संख्या 1,500 से तक कही गयी है। लेकिन इनकी एक थोड़ी सी गलती ये थी। की इन्होंने आदिवाशियो को मनुवादी विचारो के आधीन करना चाहा। जो एक आदिवाशियो के हित मे गलत था।।

पुलिस ने गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर पहले फांसी और फिर आजीवन कारावास की सजा दी। 1923 में जेल से मुक्त होकर वे भील सेवा सदन, झालोद के माध्यम से लोक सेवा के विभिन्न कार्य करते रहे। 30 अक्तूबर, 1931 को ग्राम कम्बोई (गुजरात) में उनका देहान्त हुआ। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को वहां बनी उनकी समाधि पर आकर लाखों लोग उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं।

गोविन्द गुरू ने अपने सन्देश को लोगों तक पहुंचाने के लिए साहित्य का सृजन भी किया। वे लोगों को गीत सुनाते थे। उदाहरण के लिए, निम्नलिखित पंक्तियों में गोविन्द गुरू अंग्रेजों से देश की जमीन का हिसाब मांग रहे हैं और बता रहे हैं कि सारा देश हमारा है। हम लड़कर अपनी माटी को अंग्रेजों से मुक्त करा लेंगे।

तालोद मारी थाली है, गोदरा में मारी कोड़ी है (बजाने की)
अंग्रेजिया नई मानू नई मानूं
अमदाबाद मारो जाजेम है -2 कांकरिये मारो तंबू हे
अंग्रेजिया नई मानू नई मानूं
…….. धोलागढ़ मारो ढोल है, चित्तोड़ मारी सोरी (अधिकार क्षेत्र) है।
आबू में मारो तोरण है, वेणेश्वर मारो मेरो है।
अंग्रेजिया नई मानू. नई मानूं
दिल्ली में मारो कलम है, वेणेश्वर में मारो चोपड़ो है,
अंग्रेजिया नई मानू. नई मानूं
हरि ना शरणा में गुरु गोविंद बोल्या
जांबू (देश) में जामलो (जनसमूह) जागे है, अंग्रेजिया नई मानू. नई मानूं।।

गोविंद गुरू अंग्रेजों की नीतियों को खूब समझते थे और उन्हें वे 'भूरिया' कहते थे । वे इस बारे में लोगों यह गीत गाकर बताते थे–

दिल्ली रे दक्कण नू भूरिया, आवे है महराज।
बाड़े घुडिले भूरिया आवे है महराज।।
साईं रे भूरिया आवे है महराज।
डांटा रे टोपीनु भूरिया आवे हैं महराज।।
मगरे झंडो नेके आवे है महराज।
नवो-नवो कानून काढे है महराज।।
दुनियां के लेके लिए आवे है महराज।
जमीं नु लेके लिए है महराज।।
दुनियांं नु राजते करे है महराज।
दिल्ली ने वारु बास्सा वाजे है महराज।।
धूरिया जातू रे थारे देश।
भूरिया ते मारा देश नू राज है महराज।।

वैेसे कहने को तो यह एक भजन है और “राजा है महराज” जैसे टेक के होने के कारण यह समूह गीत की तरह गाया जाता था। परन्तु यह भजन कम, राजनीतिक ककहरा ज्यादा है, जिसे स्कूल के मास्टर की तरह गोविंद गुरू सभी को रटाते थे। खास बात यह कि वे व्यापक एकता चाहते थे और इस कारण वे राजस्थानी हिंदी का उपयोग करते थे। वे जानते थे कि उनके सांस्कृतिक संदर्भ में यही (हिंदी) भाषा जनांदोलन की भाषा हो सकती है। [४]

क्रांतिकारी संत गोविंद गुरु के बड़े बेटे हरिगिरि का परिवार बांसिया में छोटे बेटे अमरूगिरि का परिवार बांसवाड़ा जिले के तलवाड़ा के पास उमराई में बसा है। गोविंद गुरु के जन्म स्थान बांसिया में निवासरत परिवार की छठी पीढ़ी उनकी विरासत को संभाले हुए है। गोविंद गुरु के पुत्र हरिगिरि, उनके बेटे मानगिरि, उनके बेटे करणगिरि, उनके बेटे नरेंद्र गिरि और छठी पीढ़ी में उनके बेटे गोपालगिरि मड़ी मगरी पर रहकर गुरु के उपदेशों को जीवन में उतारने का संकल्प प्रचारित कर रहे हैं।

इन्हें भी देखें

संदर्भ

  1. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  2. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  3. अमर बलिदान का साक्षी मानगढ़ धाम
  4. मानगढ़ में भील आदिवासियों का विद्रोह