गिनड़ी

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गिनड़ी
—  ग्रामीण  —
समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०)
देश साँचा:flag
राज्य राजस्थान
जनसंख्या ९९८ (साँचा:as of)
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साँचा:coord

गिनङी चूरू में एक गाँव है। यह जयपुर से 245, बीकानेर से 190 किमी और दिल्ली से 250 किलोमीटर से किमी दूर है।

स्थान

भारत के राजस्थान राज्य का चूरू जिला विश्व विख्यात थार मरुस्थल का उत्तर-पूर्वी प्रवेश द्वार है। यह् पूरे देश में अधिकतम-न्यूनतम तापक्रम के लिये प्रशिद्ध है। चूरू जिला मुख्यालया से २० किलोमीटर उत्तर, धोरों की तलहटी मॅ बसा छोटा सा खूबसूरत गाँव गिनङी है। यह २२५ घरों की बस्ती ५८ बीघा (४३ आबादी भूमी +१५ बीघा अतिक्रमित सरकारी भूमी) भूमी पर बसी हुई है। जाहिर है कि घर खुले-खुले बसे हुए हैं। इसमे हर दस घरों के बीच लम्बे चोङे गुवाङ (अहाते) तथा गाँव को बीचों-बीच चीरती चौङी गलियाँ हैं। हर घर तथा अहाते में छायादार पेङ हैं। यह सब सार्वाजनिक सुविधाओं से सुसज्जित एक सम्पन गाँव है। यह जयपुर, दिल्ली एवम बीकनेर से क्रमशः २४५ किमी,२५० किमी एवम १९० किमी दूर स्थित है।

भूगोल

यहां भूरे रँग की बालु मिट्टी का उबं-खाबं धराटल है;टिले एवम भरें (चौङे एवम ऊंचे टिलों की कतार) हैं। भोमिया, दूदाना, कुंडों, डोडवाली एवम बामञ-चूली नाम से प्रमुख भरें हैं। गर्मियों में यहां क तापक्रम ४७ डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, जिसे शान्त करने के लिये धूल भरी तेज आंधियां चल्ती हैं। काली- पीली आंधी बङी डरावनी होती है। गर्मियों के तप्त एवम नीरस वतावरण में कुदरत के करिश्में भी देखने को मिलते हैं। दोपहर में ' भँगुलिया'(हवा के भँवर में मिट्टी के कणॉ से निर्मित घूमता हुआ गगनचुम्बी स्तंभ) का गमन दर्शकों के अन्तर्मन में अनायास ही भय एवं आशंका जागृत कर देता है क्योंकि दन्तकथा अनुसार यह भूत का गमन माना जाता है। गर्मियों में मृग-मृचिका (पानी के धरातल का विम्ब) का दृष्य भी कम आशचर्यजनक नहीं होता है। यहां का द्यहरातलीय पानी खारा है। पश्चिमी विक्षोभ से जेठ माह में वर्षात शुरु हो जाती है जिसे 'दूंगङा'कहते हैं। यह यहां की प्रमुख फसल बाज्ररा के लिये वरदान शाबित होती है। मानसूनी वर्षा आसाढ माह के प्रथम सप्ताह में दस्तक देती है तब यहां की प्रमुख फसलों-बाज्ररा, मूंग, मोठ एवम गंवार की बिजाई शूरू होती है। वर्षा का औसत घनत्व मात्र १२५ मिमी है। सावन मास की रिमझिम तथा काली घटायें एवम भादवा की झङी यहां की तपती धरा को शान्त कर मौसम को खुशनुमा बना देती हैं। भादवा को जमाने का राजा कहा जाता है तो आसोज माह की वर्शा को मोती बरसना माना जाता है। यदि आसोज में वर्षा हो जाती है तो रबी की फसल में चने की बिजाई कर दी जाती है। मावठ् (माह महिने की वर्षात्) होने पर अच्छी किस्म के भरपूर चने का उत्पादन होता है जो पूरे देश में प्रसिद्ध है।

जांटी (खेजङी) यहां का प्रमुख पेङ है। यह छाया, इंधन, लकङी, खाद, चारा एवम सब्जी (सांगरी) देता है; वहीं गर्मियों में अपनी हरियाली से वातावरण को शीतल रखता है। नीम,पीपल, रोहिङा, शीशम,खैर,कीकर, बबूल,कन्केङा,जाळ, लेशवा,बूंदी, आदि यहां पाये जाने वाले अन्य पेङ हैं तो पीलवनी खेजङी के पेङ पर छायी सदबहार लता है। झाङी, फोग (बोझा), खींप, बुई, आक, कूंचा, कैर, इरना, अलाय, हिंगूण, सिणियां आदि प्रमुख झाङियां हैं। पीपल का पेङ परम पूज्य है क्योंकि यह चौबीसों घण्टे आँक्सीजान प्रदान करता है;रोहिङे की ईमारती लकङी पर गजब की फिनिशिंग आती है और इसके दीमक नहीं लगती है। गौरतलब है कि यहं के अधिकांश पेङ, इरना, फोग आदि गर्मियों में गाढे हरे रहतें हैं; इनकी पत्तियां पतली, नुकीली एवम छोटी होती हैं, ताकि कम पानी से काम चला सकें। साटा, घास (झेरनीयां लाम्पलिया, भरूंटिया, घन्टिलिया, सीवणा) डाब (कुशा) कागलहर, सोनफुली, बेकरिया, चिर्ङीमोठ, भांकङी, सुरेली, बुग्रा, कुनहरा, भुंगी, लूणियां आदि प्रमुख घास पायी जाती हैं। दाब कीटनाशक होने के कारण अनाज में रखी जाती थी। अंखफोङ करेलिया आदि मौसमी लताएं हैं तो मतीरा, काकङी। खोखा, बेर, लेशवा, गुनी आदि प्रिये फल। काचर, फळी (मोठ, ग्वार, चौळा) टींडसी, लोयिया, कोला, तॉऱाई, घिया स्थानीय सब्जियां हैं। फोगला एवम मीजर सुगंधित भुम्गार हैं। आज के इस कीटनाशक युग में कचर, सांगरी और कैर ही मत्र सब्जियां हैं जो कीटनाशक रहित हैं।

इस मरुस्थल की पुष्पावली भी अनूठी है। माघ माह के उतरते बसंत धरा के गर्भ में हलचल शूरु करने लग जाता है, बसंत के बधाईदार मरगौजे (पीत वरण पुष्प जङित जळयुक्त छङ) फूटना शूरु हो जाते हैं जो ग्वालों के लिये मौज मस्ती का आलम बनते हैं। कई-कई मरगौजे तो आधा फीट तृज्या एवम १०-१२ फीट लम्बाई तक के होते हैं। चैत्र मास में यहां का वनस्पति जगत चैतन्य हो उठता है। फोग का पुष्प (घिंटाळ) सारी रोही को सौंधी महक से सरोबार कर देता है और सारे धरातल को पीत वरण से आच्छादित कर देता है। सायंकाल टीले पर खङे होने पर घिंटाळ की महक मन को मोहित कर देती है, मौजी मन मग्न हो उठता है। इसी मास में भगवां रंग के बङे-बङे फुलों से ढके रोहिङे धरा के शृंगार का माध्यम बनते हैं तो बस्ती में नीम की मीजर महक बिखेरती है। वैशाख में खेजङी के पीले रंग के दानानुमा पुष्प धरा का मिजाज और नजारा ही बदल डालते हैं। बसंत जहां पेङ, लता एवम झाङियों को पुष्प दायक होता है वहीं वर्षा ऋतु तमाम घास, लताओं एवम धानों को पुष्पित-पलवित करती है। आसोज में सोनफुली के पीले फूल व अळाय के हरे-गलाबी फूल बङे ही आकर्षक होते हैं। कुल मिलाकर चैत्र एवम आसोज के समशीतोषण मौसम में यहां की बनस्पति परवान पर होती है। भूमि के बढते प्रयोग के कारण जंगली वनस्पति की सघनता बहुत कम हो गई है; निर्जान स्थानों का कौतुहल व भयपूर्ण नजारा आज की पीढी को नसीब नहीं। अब न वो जंगल और न उसमें रहने वले जंगली जानवर।

ऊंट, गाय, भैंस, भेङ, बकरी एवम गधा गांव के प्रमुख पालतु पशु हैं। रहीश लोग घोङा/घोङी भी रखते हैं। ऊंट हळ जोतने, सवारी करने व बोझा ढोने में विशेष सहायक होने के कारण किसान का मित्र माना जाता है तो गाय सात्विक, पौष्टिक एवम गुणकारी दूध, बछङा, जूतों के लिये चमङा, रस्से के लिये बाल, खाद व दवाइयों के लिये हडियां, खाद व घर लीपने के लिये कीटनाश्क गोबर, शुद्धता व निदान के लिये मुत्र प्रदान करने के कारण गोमाता कहलाती है। इसे मारना तो दूर पैर ल्गाना भी पाप मना जाता है; गो- हत्यारे को गंगाजी जाना पङता है। प्रंतु अब ऊंट लुप्तप्राय हो चला है तो दर-दर की ठोकरें खाती गाय लुप्त होने के कंगार पर है;अब किसी को भी गाय की कोई भी चीज की दरकार नहीं रह गई लगती है तो वह माता कितने दिन रहेगी! देसी गाय को मात्रात्मक आधार पर भैंस व वरणशंकर गाय ने पछाङ दिया है। हां, कुछ लकीर के फकीर या ढोंगी लोग स्वार्थ सिद्धि के लिये गाय संरक्षण के नाम पर यदा-कदा हल्ला मचाते जरूर नजर आते हैं। विशेष-पशु जातीनाम मेंअधिक लाभदायक लिंग को प्रधानता दी गई है यथा-गाय, भैंस, भेङ, बकरी जातिनामों में उनके पुलिंग क्रमशः बैल, भैंसा, मेंढा व बकरा निहित हैं तो ऊंट व गधा में ऊंटनी व गर्धभि निहित हैं। गाय व भैंसों के प्रजनन हेतु सार्वजनिक साण्ड व झोटे की व्यवस्था ग्रमीण ही करते हैं।

आज से पच्चासों वर्ष पूर्व गांव की रोही में जर्ख, गीदङ, नाहरिया, फोह-गादङी, बौडबिल्ली, लोमङी, खरगोस, बूच नेवला, भूरङा आदि चोपाये जानवर बहुतायत में पाये जाते थे। जर्ख बङा धूर्त माना जाता था;चलते समय उसके नळों से निकलती 'कटक-कटक' आवाज बहुत दूर से ही सुन जाती थी;वह उल्टे पांव पेङ पर चढता था; रात्रि में आदमी/पालतू पशु पर आक्रमण के समय उलटे मुंह पिछले पांवों से धूल फेंक कर बचाव के रास्ते बंद कर के शिकार को पीठ पर लाद कर ले भगता था;बङे पशु का कान पकङ कर घसीट ले जाता। दो जर्ख एक साथ आक्रमण कर बङे से बङे पशु के एक झटके में दो टुकङे कर ले भगते। फोह गादङी का सायंकाल गांव के गौरवे बोलना अपशकुन माना जाता था; बोलते समय उसके मुंह से निकलती आग की लपटें व डरावनी आवाज सुन कर बच्चे डर जाते थे; औरातें उलटी चक्की फेरती थीं। बूच लोमङी से थोङी बङी, लम्बी तीखी गर्दन वाला जान्वर होता था; अम्धाधुंध हो कर शिकार पर झपटता और तकङी से तकङी बाङ में सीधा निकल सक्ता था। सृपधारी वर्ग में सांप (काला नाग, रगदपंछी, बांडी, पीवणा, कुम्हारिया, सिटकळ), चनणगोह, पाटङागोह, गोइरा, सांडा, किरकांट, छिपकली दूध गन्डोळा, कंछळा, बिलबामणी आदि पाये जाते हैं; सांप के अलावा अन्य सभी के पैर होते हैं। कहते हैं गोइरा के बिना किसी को काटे पेशाब नहीं उतरता और उसका काटा पानी नहीं मांगता। सांडा पके ताल में उर्धव बिल खोदता है और उसके मुंह पर डाट लगा सकता है। सांडे का तेल बेशकीमती होता है। सांपों की लङाई रोमांचक होती है; बश में आने पर एक सांप दूसरे को पूरा निगल जाता है। सांप और नेवले की लङाई भी भयंकर होती है।

पक्षियों में कौवा, कमेङी, कबूतर, टिटुङी, लीलटांश, मौर, तीतर, चील, ढींकङा (पीळी चोंच का सफेद गिद्ध), गिद्ध, कोडाळी (लाल किलंगी वाला गिद्ध), शिकरा (सबसे शक्तिशाली श्कारी पक्षी), चूसमार, कागडोड (बङा काळा जंगली कौवा जो अपने खाद्य को जमीन में गाङ कर आगामी दिनो के लिये सुरक्षित रखने के लिय्र प्रासिद्ध है) खुङिया खाती (काली, पीली, लाल, सफेद पट्टी वाले पंख व सिर पर किलंगी तथा चोंच की टक-टक से पेङ के तने में बिल खोदने के लिये मशहूर है) पिदिया (बैया-जमीन पर आकाश की तरफ पैर करके सोने के लिये, पार्श्व द्वार वाला खङा, नरम, सुंदर घौंसला बनाने के लिये व आकाश में बिना पंख हिलाये काफी देर तक एक जगह स्थिर रहने के लिये जाना जाता है) काली चीङी, सोन चीङी (शगुन के लिये प्रसिद्ध) घरेलु काली चीङी, जंगली तूंतली चीङी, राळ(जंगली चीङियों का कफी बङा झुंड), घरेलु चीङी, बटबङ (तिलौर- श्रेष्ट मांस के लिये व जमीन पर छुपे रहने के कारण अचानक उङने/पैर तले दब जाने के लिये नामी), गोलियाँ अदि स्थानीय पंखेरु पाये जाते हैं। चूसमार का आसमान से सनसनाहट के साथ सीधा गौता लगा कर जमीन पर चूहे का शिकार करना, काली चीङी का उङते चूसमार के ऊपर बैठ कर चौंच मार-मार कर छकाना, चील का पंजोँ में सांप लिये आकाश में उङना, सारे मौरों का रात में एक साथ गळाना (प्राकृतिक आपदा का सूचक होने के कारण भयावह व डरावना), थोङेसे भी खतरे का आभास होने पर टिटुङी का रात भर च्हकते रहना व अन्य अनेकानेक लीलाएं बङी आकर्षक होती हैं। कई पक्षियों की प्रेमलिलायें तो रहस्य के गर्भ में ही छुपी हुई चाली आ रही हैं। कौवे और मौर को संभोग करते हुए शायद ही किसी ने देखा हो! अविशवशनीय किंवदन्तियां ही सुनने को मिलती हैं। कहा जाता है कि मौर जब मग्न होकर नाचता है तो प्रेमविहल मौर के नयनों से टपके हुए अश्रु को मौरनी चुग लेती है और उसी से गर्भवती हो जाती है!

ग्राम्य आंचल के कीङे-मकोङे व कीटपतंगों की दुनियां भी बङी रंगरंगीली है। टिटण, भूंडिया (गुङबाणियां), घेंघा आदि प्रमुख कवचधारी कीट हैं। लंबेवाली टिटण पकङने पर हाथ में मूत देती है जिसकी तीव्र गंध घंटों तक नहीं जाती। भैंस को पाळी में लाने के लिये लंबी टिटण खिलाई जाती है। 'भूंडिया रगङना' मारवाङी की प्रचलित कहावत है। घेंघे (बङे काले भूंड) वर्षा ऋतु में अपने वजन से दुगुने भार के गोबर के गोले बनाकर फुरती से पीछे धकेलते हुए दूर अपने बिल में संग्रह हेतु अथक प्रयासरत देखे जाते हैं। जू, ढेरा, चींचङी, गोयङ आदि परजीवी कीट हैं। 'जुंआं खातर किस्यो घाघरियो बगायो जा है', 'चींचङी सो चिपग्यो', 'खा-खा के गोयङ सो हो रह्यो है' आदि जन कहावातें हैं। कौवे, गुरसली आदि कीट भक्षी जब ऊंट, भैंस आदि की बगलों में चोंच मार-मार कर इन कीटों को खातें हैं तोभी वे शांत सोये रहते हैं; दृश्य देख कर पशु पक्षियों के 'परस्पर लाभप्रद संबंध' (सिंबायोटिक रिलेशनशिप) सहज ही साकार हो उठते हैं।

जनसांख्यिकी

यातायात

वायु मार्ग

नजदीकी हवाई अड्डा जयपुर है। दिल्‍ली और मुंबई से यहां के लिए नियमित उड़ानें हैं।

रेल मार्ग

निकटतम रेलवे स्‍टेशन भी चूरू है। यहां के लिए सभी प्रमुख शहरों से रेलगाडि़यां उपलब्‍ध हैं।

सड़क मार्ग

चूरू से केवल २५ किलोमीटर दूर है। यह स्‍थान देश के प्रमुख शहरों से सड़कों के जरिए जुड़ा हुआ है।

आदर्श स्थल

शिक्षा

सन्दर्भ

चित्र दीर्घा

गिनङी में हवेली

टिप्पणी

बाहरी कड़ियाँ

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