गति (धर्म)

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नरक, तिर्यंच, मानुष और देव लोक में बँटे संसार के व्यवस्थापक आठ कर्म हैं। अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य के पुंजीभूत इस आत्मा की श्रद्धा, ज्ञान, आदि का जिस प्रकार ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी कर्म विरूप करते हैं, उसी प्रकार छठा (नाम) कर्म विविध शरीरों का निर्माण कराता है और आत्मा के अनेक (मनुष्य, देव आदि) नाम रखता है। नामकर्म के प्रथम भेद का नाम गति है। यत: गति नामकर्म जीवों को अनेक रंगभूमियों पर चलाता है अतएव इसे गति कहते हैं (पंचसंग्रहगाथा, ५९)।

गति नामकर्म के मुख्य भेद नरक, तिर्यंच (पशुपक्षी), मनुष्य और देव ये चार हैं।

१. जो शरीर (द्रव्य), निवास (क्षेत्र), काल और आत्मरूप (भाव) से न स्वयं प्रसन्न रहें और न दूसरों को प्रसन्न रहने दें उन्हें नारकी कहते हैं। इनके लोक (पाताल) को नरक कहते है।

२- जिनके मन -वचन-कार्य ऋजु (सीधे) न हों, जो आहारादि संज्ञाओें के अधीन हों, अज्ञानी हों अतएव पापलीन हों उन्हें तिर्यच कहते हैं।

३- जो मन से भला बुरा सोचें, कुशल विवेकी हों, सबसे अधिक मन का उपयोग करते हों तथा मनुष्य की परंपरा में हों उन्हें मनुष्य कहते हैं।

४. जो अणिमा, लघिमा, आदि आठ ऋद्धियों के कारण आनंद से विहार करते हों, भले भावों में मग्न रहते हों तथा जिनके शरीर सदैव सतेज, कांतिमय और वीर्यवान्‌ रहते हों उन्हें देव कहते हैं।