खोज का युग

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खोज युग अथवा खोजयात्राओं का युग वह समय था जब १५वीं शती -१७वीं शती के प्रारंभ तक यूरोपीय देशों ने व्यापार की खोज में समुद्र के रास्ते दुनिया के अनेक नए हिस्सों की खोज की। इस व्यावसायिक खोज का प्रमुख लक्ष्य सोना, चाँदी और मसालों की प्राप्ति था। धर्मयुद्धों के बाद यूरोप के नाविकों को जरुशलम जैसे तीर्थ स्थल तथा मसालों, मोतियों, रंगों जैसी चीज़ों के लिए अरब व्यापारियों की दया पर निर्भर रहना पड़ता था जो ईसाई यूरोपियों से मनचाहा दाम वसूल करते थे। इससे परेशान होकर पुर्तगालियों ने मोरक्को जैसे मूर अफ्रीक़ी तटों पर 1420 ईस्वी में आक्रमण करना शुरु किया। इसके बाद पूरब की तरफ व्यापार का रास्ता ढूढने के लिए उन्हें अफ्रीका के पश्चिमी तट पर नौवहन कर नए रास्तों पर निकलना पड़ा। इससे अन्वेषणों का एक नया दौर आरंभ हुआ।

पुर्तगाली राजकुमार हेनरी इनमें सबसे सफल हुआ।

खोज युग की मुख्य यात्राओं के मार्ग

पृष्ठभूमि

१४५३ में जब उस्मानिया साम्राज्य ने रेशम मार्ग और मसाला मार्ग को बन्द कर दिया तब वैकल्पिक मार्गों की खोज शुरू हुई।

पंद्रहवीं सदी की शुरुआत में पश्चिम स्पेनी राज्य पुर्तगाल के राजा जॉन के बेटे बड़े हो रहे थे और उस समय तक जेरुशलम समेत समूचे मध्य-पूर्व पर मुस्लिम शासकों का कब्ज़ा हो गया था। पूर्व (चीन, भारत और पूर्वी अफ़्रीक़ा) से आने वाले रेशम, मसालों और आभूषणों पर अरब और अन्य मुस्लिम व्यापारियों का कब्जा था - जो मनचाहे दामों पर इसे यूरोप में बेचते थे। सन् 1412 की गर्मियों में जॉन के तीन बेटों - एडवर्ड (उम्र 20 वर्ष), पीटर तथा हेनरी (18 वर्ष) ने विचार किया कि उन्हें राजकुमार और नाइट (यानि सामंत) के उबाते काम से अधिक कुछ रोमांचक तथा चुनौती भरा काम सौंपा जाना चाहिए। उन्होंने अपने पिता से ये कहा। जॉन का एक सेवक अभी स्युटा (उत्तरी अफ्रीकी तट) से मुस्लिम क़ैदियों के बदले धन लेकर लौटा था। पिछले सात सौ सालों में इस्लाम के शासन में आने के बाद अगर स्युटा को पुर्तगाली आक्रमण से परास्त किया जाय तो यह निश्चित रूप से एक चुनैती भरा काम होता। स्युटा ना सिर्फ एक व्यस्त पत्तन बाज़ार था, बल्कि उस समय मोरक्को, पिछले 30 सालों से अराजकता में फंसा था। काफी ना-नुकुर करने और रानी फिलिपा के आग्रह के बाद जॉन ने आक्रमण की एक योजना तैयार की। हॉलेंड पर आक्रमण की तैयारी के मुखौटे लगाकर स्युटा पर आक्रमण कर दिया। जुलाई 1415 में स्युटा को फतह कर लिया गया। हेनरी, एडवर्ड और पीटर तीनों ने इस युद्ध में सेनानी का काम किया। लेकिन आर्थिक रूप से कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ - मुसलमानों ने स्युटा के बदले टांजयर से व्यापार करना चालू किया और स्युटा के पत्तन खाली रहे। उस समय यूरोप में कई भ्रांतियाँ प्रचलित थी। उनमें से एक ये थी कि अफ्रीक़ा में, कहीं दक्षिण में, एक सोने की नदी बहती है। पर वहाँ पहुँचने का मतलब है सहारा मरुस्थल में मौजूद मुस्लम अरब और बर्बर सेना को हराना। हेनरी के विचार में ये करना संभव और जरूरी था - आख़िरकर सात सौ साल पहले उत्तरी अफ्रीका पर ईसाईयों (स्पेन, रोमन या ग्रीक) का कब्जा था। उसने अपने पिता से टैंजियर पर आक्रमण की योजना का अनुरोध किया लेकिन जॉन को ऐसा संभव नहीं लगा। टैंजियर दूर था और अधिक सुरक्षित। जान की मृत्यु के बाद हेनरी का भाई एडवर्ड (सबसे बड़े) का राज्याभिषेक 1433 में हुआ।

काफी अनुरोध के बाद हेनरी को टैंजयर पर आक्रमण की अनुमति मिल गई। नौसेनिके के समय पर ना पहुँचने के बावजूद हेनरी बची-खुची 7000 की सेना लेकर टैंजियर 1437 में पहुँच गया। जैसा कि प्रत्याशित था - उसे हार का मुँह देखना पड़ा। उसके सेनापतियों ने वापस निकलने की कीमत स्युटा को मोरक्कन हाथों में सौंपने की बात की। हेनरी को ये मंजूर नहीं था - वो अपने भाई फर्डिनांड को बंधक के रूप में रख आया। फर्डिनांड जेल में मर गया।

इसी बीच इस्तांबुल पर उस्मानी तुर्कों का अधिकार मई 1453 में हो गया। तुर्क सुन्नी मुस्लिम थे और इस तरह यूरोपियों के पूर्व के व्यापार का रास्ता संपूर्ण रूप से मुस्लिम हाथों में चला गया। वेनिस और इस्तांबुल के बाज़ारों में चीज़ों के भाव बढ़ने लगे। इसके बाद स्पेनी और पुर्तागली (और इतालवी) शासकों को पूर्व के रास्तों की सामुद्रिक जानकारी की इच्छा और जाग उठी।

आरंभिक प्रयास

1487 में बार्तोलोमेयो दियास का यात्रा मार्ग

तेरहवीं सदी में मार्को पोलो मंगोलों के साम्राज्य होते हुए चीन तक पहुँच गया था। उसने लौटने के बाद अपने जेल के साथी को बताया कि हिन्दुस्तान पूर्व में है। सन् 1419 में वेनिस के निकोलो द कोंटी ने अरबी और फारसी सीखी और अपने को मुस्लिम व्यापारी भेष में छिपा कर भारत की खोज में निकल पड़ा। उसने 25 सालों तक पूर्व की यात्रा की, भारत पहुँचा और कई महत्वपूर्ण जानाकारियाँ दी - जिनमें भारत के पत्तनों पर चीन से बड़े जहाजों का आने की घटना एकदम अप्रत्याशित थी। सन् 1471 में अंततः टैंजियर पर पुर्तगाली अधिकार हो गया लेकिन हेनरी सन् 1474 में मर गया। पुर्तगाल के अब राजा जॉन ने डिएगो साओ को अफ्रीकी तटों पर यात्रा करने के लिए भेजा। सन् 1486 में डिएगो नामीबिया तक पहुँच गया।

यूरोप में प्रचलित भ्रांतियों में से एक ये भी थी कि पूर्व में कहीं एक प्रेस्टर जॉन नाम का राजा रहता है जो ईसाई है और अपार सपत्ति का मालिक है। पुर्तागालियों को भरोसा था कि ये राजा भारत का राजा है। इसका पता लगाने के लिए पुर्तगालियों के राजा जॉन ने दो गुप्तचरों को पूर्व की जमीनी यात्रा पर भेजा। लेकिन जेरुशलम पहुँचने के बाद उन्हें मालूम हुआ कि अरबी सीखे बिना आगे बढ़ना संभव नहीं है - वे लौट गए। इसके बाद सन् 1487 में पेरो दा कोविल्हा और सेरा दा एस्त्रेला को गुप्त यात्रा पर भेजा। वे मिस्र में सिकंदरिया और काहिरा पहुँच गए और उनमें से एक पूर्वी अफ्रीका भी पहुँच गया। उनमें से पेरो अदन, लाल सागर होते हुए कालीकट (भारत) पहुँच गया। व्यापार और मार्गों को उसने निरीक्षण किया और काहिरा लौट गया। वहाँ उसे दो पुर्तगाली यहूदियों से मुलाकात हुई जो राजा जॉन ने भेजा था। जानकारियों का आदान प्रदान हुआ और कोविल्हा दक्षिण की ओर इथियोपिया चला गया। वहाँ से वो लौटना चाहता था लेकिन उसके विश्व-ज्ञान को देखकर राजा सिकंदर ने अपना सलाहकार नियुक्त किया और बाद में पुर्तगाल भेजने का वादा किया। लेकिन वो जल्दी मर गया और उसके बेटे में उसकी ये कामना पूरी नहीं की।

भारत के लिए मिशन

सन् 1487 के अगस्त महीने में ही पुर्तगाली राजा ने बर्तोलोमेयो डियास (या डियाज़) नाम के नाविक को अफ्रीका का चक्कर लगाने के लिए भेजा। वो पहला यूरोपियन नाविक था जो दक्षिणतम अफ्रीका के तट - उत्तमाशा अंतरीप - के पार पहुंचा। लेकिन भयंकर समुद्री तूफान से परास्त होकर वापस लौट गया। लेकिन उसके पश्चिम से पूरब की तरफ जा सकने से यह साबित हो गया कि अफ्रीका का दक्षिणी कोना है और दुनिया यहीं ख़त्म नहीं हो जाती।

कोलंबस को यकीन था कि दुनिया गोल है और पूर्व जाने के लिए अगर पश्चिम की ओर जाया जाय तो भारत या चीन पहुँच सकते हैं। सन् 1492 में वो पश्चिम की तरफ यात्रा पर निकला और जमीन का पता लगाकर 2 महीनों के बाद वापस लौटा। उसको यकीन था कि वो भारत पहुँच गया है - हांलाकि वो जहाँ पहुँचा था उसे आज वेस्टइंडीज़ के नाम से जाना जाता है।

गामा का नौपथ - अफ्रीकी तट पर


इसी बीच राजा ने भारत के लिए एक चार नौकाओं वाले दल का विचार रखा। इस दल का कप्तान गामा को चुना गया। कई लोग इससे चकित थे - क्योंकि आसपास की लड़ाईयों के अलावे गामा को किसी बड़े सामुद्रिक चुनौती का अनुभव नहीं था। लेकिन अनुशासन और राजा के विश्वस्त होने के कारण उसे नियुक्त कर लिया गया।


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