क्लोमपाद

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Triops longicaudatus.jpg

क्लोमपाद (Branchiopoda) संधिपाद प्राणी समुदाय की क्रस्टेशिआ (Crastacea) श्रेणी की एक उपश्रेणी। इस उपश्रेणी के प्राणियों का शरीर वर्म से ढका रहता है। विभिन्न क्लोमपादों के वर्म की रचना में बड़ी भिन्नता होती है, किंतु उन सभी के पाद, जो किसी किसी में बहुसंख्यक होते हैं, चिपटे और मीनपक्ष (Fin) अथवा गलफड़ (gill) सदृश होते हैं। इसीलिए इस श्रेणी का नाम क्लोमपाद अथवा 'गलफड़ पाद' पड़ा हैं।

यद्यपि खोलकी प्राणियों की भाँति इनके प्रचलित नाम नहीं हैं, तथापि प्राकृतिक इतिहास के अनेक लेखकों ने इस उपश्रेणी के अनेक जीवों का नामकरण फ़ेयरी श्रिंप (Fairy Shrimp), अथवा परी चिंगट, बाल-मंडूक (Tadpole) चिंगट, क्लाम (Clam) चिंगट तथा जल पिस्सू (वाटर फ्ली, Water flea) इत्यादि किया है। प्राय: सभी क्लोमपाद प्राणी मधुरजलीय होते हैं और सभी अलैंगिक जनन के लिये उल्लेखनीय हैं। इनके अंडों की एक विशेषता यह है कि ये शीघ्र सूखते नहीं और शुष्कावस्था में भी दीर्घकाल तक जीवित रह सकते हैं। अतएव शुष्क प्रदेशों के जलकुंडों में भी ये बड़ी संख्या में उपलब्ध होते हैं।

वर्गीकरण

इस उपश्रेणी के अंतर्गत चार मुख्य वर्ग हैं :

(क) ऐनॉस्ट्राका (Anostraca),

(ख) नोटॉस्ट्राका (Notostraca),

(ग) कॉनकॉस्ट्राका (Conchostraca) तथा

(घ) क्लाडॉसरा (Cladocera)।

यद्यपि इन चारों वर्गों के प्राणियों की रचना एक दूसरे से बहुत भिन्न होती है तथापि इनके खंड (Segments) धड़ तथा शाखाएँ समान होती हैं।

ऐनॉस्ट्राका

इस वर्ग का प्रतिनिधि परी चिंगट अथवा फ़ेयरी श्रिंप है। यह पोखरे, तालाब और बरसाती गड्ढे में मिलता है। यह लगभग एक इंच लंबा, पारदर्शक और द्रुम तथा शाखाओं पर लाल होता है। कृमि की भाँति संपूर्ण शरीर खंडों में बँटा होता है। सिर के पीछे प्रथम ग्यारह खंडों में से प्रत्येक में गलफड़ सदृश युग्म शाखाएँ होती है। किंतु पश्च खंडों में अधिक शाखाएँ नहीं होती, केवल दो में विभाजित होकर पूँछ बन जाती है। सिरवाले भाग में दो चलायमान डंठलों पर काली एवं बड़ी बड़ी दो आँखें होती है और सामने दो पतले संस्पर्शक होते हैं। मादा के तलभाग में, शाखाओं के अंतिम जोड़े के ठीक पीछे, अंडे ढोने के लिए एक बड़ी थैली होती है। नर के सिरवाले भाग में एक जोड़ा आलिंगक (Claspers) होते हैं। प्रत्येक आलिंगक हाथ सदृश बना होता हैं, जिसमें झिल्लीदार अँगुलियाँ होती है। ये मादा का आलिंगन करने के काम आती है।

परी चिंगट प्राय: पीठ के बल तैरता है। तैरते समय पैर विशेष रीति और क्रम से चलते हैं। यह तैरनेवाले सूक्ष्म जंतुओं का भोजन करता है। भोजन पैर द्वारा उत्पन्न जलधारा के साथ पीछे से आगे की ओर मुख में पह़ुँच जाता हैं।

अनेक क्लेमपादों की भाँति परी चिंगट भी छोटे छोटे जलाशयों में, जिनके ग्रीष्म ऋतु में सूखने की संभावना रहती है, पाए जाते हैं। जलाश्य सूखने पर अंडे कीचड़ में सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं और वर्षा होने पर क्रियाशील होकर विकसित होने लगते हैं। डिंभ (larva) तीन बार त्वचाविसर्जन करता है। इसके फलस्वरूप शरीर लंबा और खंडयुक्त होता चलता है तथा शाखाएँ विकसित होने लगती है। अंतिम त्वचा विसर्जन के बाद डिंभ वयस्क में बदल जाता है। (चित्र १)

परी चिंगट की भाँति एक और चिंगट होता है जिसे खारे जल का चिंगट (Brine shrimp) कहते हैं। यह ऐसे खारे जल में मिलता हैं जिसमें अन्य जीवों का जीना कठिन होता हैं। यह परी चिंगट से आधा और हल्के लाल रंग का होता है। यह इतनी संख्या में पाया जाता है कि जल लाल रक्तमय दिखाई पड़ता है। खारे जल के चिंगट की एक विशेषता यह है कि कहीं कहीं मादाएँ ही पाई जाती हैं और उनमें अलैंगिक जनन होता है।

नोटॉस्ट्राका

इस वर्ग के प्राणियों की पीठ चौड़ी ढाल अथवा वर्म से ढकी रहती है। वर्म घोड़े के पादचिह्न के आकार का होता है जिसके अग्रभाग के मध्य में एक जोड़ा अर्द्धचंद्राकार आँखें होती है। शरीर के खंडों की संख्या बहुत अधिक होती हैं और युग्म पत्राकार शाखाओं की संख्या और भी अधिक होती है। शरीर के अंतिम छोर पर परी चिंगट की भाँति द्विशाखीय पूँछ पर चाबुकनुमा अवयव होते हैं। इस वर्ग में नर विरले ही होते हैं। इनकी संतानोत्पत्ति अलैंगिक रीति से होती हैं। एपस (Apus) इस वर्ग का मुख्य गण है जो दो अथवा तीन इंच लंबा होता है (चित्र २)।

कॉनकॉस्ट्राका (Conchostraca) या क्लाम चिंगट

इनमें वर्म सीपी की भाँति द्विपाटिक खोली होती हैं। क्लाम चिंगट का संपूर्ण शरीर और शाखाएँ खोली से ढकी होती है। शंबुक की भाँति कपाटों पर एक केंद्रीभूत होकर वृद्धि के स्तर होते हैं। युग्म नेत्र डंठन विहीन तथा एक दूसरे में समाहित होते हैं।

क्लाडॉसरा

इस वर्ग के सदस्य जलपिस्सू (Water-flea) कहलाते हैं और सभी स्थानों के गड्डों और पोखरों में पाए जाते हैं। ये सभी सूक्ष्म होते हैं और केवल सूक्ष्मदर्शी द्वारा ही इनका अध्ययन किया जा सकता हैं। कॉनकॉस्ट्राका की भाँति इनका वर्म द्विपाटिक खोल होता है, जिसका भीतर से सिर भाग, जिसमें एक जोड़ा द्विशाखीय संस्पर्शक लगे होते हैं, आगे की ओर निकला होता हैं। संस्पर्शकों द्वारा पीछे की ओर बार बार थपेड़े देकर यह विचित्र उछाल के साथ तैरता है। इसी कारण इसका नाम जलपिस्सू पड़ा है। शरीर पारदर्शक होने के कारण इसकी अंत:रचना का अध्ययन जीवित अवस्था में सूक्ष्मदर्शी द्वारा किया जा सकता है। पाँच या छह जोड़ी शाखाओं की गति के कारणा इसके शरीर के मध्यतलीय भाग में जल की एक धारा भोजन कुल्या (Food groove) में प्रवाहित होती है। इस जलधारा के साथ आया हुआ अपना विशेष प्रकार का भोजन यह अपने पंखदार शुंडों द्वारा छानकर ग्रहण कर लेता है।

सिर के अग्रभाग मेंकेवल एक बड़ी आँख होती है। पीठ के समीप हृदय की धड़कन देखी जा सकती है। इसके ठीक पीछे शरीर और खोल के बीच एक स्थान होता है जो मादा में अंडे सेने की थैली का काम करता है और प्राय: अनेक विकसित अंडों से भरा रहता है। वर्ष के अधिकांश भाग में नर नहीं पाए जाते। अतएव मादा ऐसे अंडे देती है जिनका विकास बिना गर्भाधान के होता हैं, किंतु वर्ष की किसी विशेष ऋतु में नर के प्रकट होने पर मादा ऐसे अंडे देती है जिनके विकास के लिये गर्भाधान की आवश्यकता होती है। ये अंडे मोटी खोल के भीतर बंद होते है और जब खोल का विसर्जन हो जाता है तब उनपर रक्षात्मक आवरण बन जाता है। वह कुछ दिनों तक निष्क्रिय पड़े रहते हैं। सूखने पर भी इन्हें कोई हानि नहीं पहुँचती। इस अवस्था में चिड़ियों के पंख में फँसकर अथवा हवा के साथ उड़कर वे एक जलाशय से दूसरे में भी पहुँच जाते हैं। अन्य क्लोमपादों की भाँति क्लॉडॉसरा में नियमत: डिंभावस्था नहीं होती और बच्चा छोटे पैमाने के वयस्क जैसा ही अंडे के बाहर निकलता है। जलपिस्सू की कुछ जातियों की लंबाई एक इंच के सौवे भाग से भी कम होती है। अतएव यह विद्यमान खोलकियों में सबसे छोटो होता है।