कलिल

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दूध एक तरल पायसीकृत द्रव कलिल है जिसमे मक्खन की गोलिकायें एक जल-आधारित तरल मे परिक्षेपित रहती हैं।

कलिल या कोलॉइड एक रसायनिक मिश्रण होता है जिसमे एक वस्तु दूसरी वस्तु मे समान रूप से परिक्षेपित (dispersed) होती है। परिक्षेपित वस्तु के कण मिश्रण मे केवल निलम्बित रहते है ना कि एक विलयन की तरह (जिसमे यह पूरी तरह घुल जाते हैं)। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कलिल मे कणों का आकार विलयन मे उपस्थित कणों के आकार से बड़ा होता है - यह कण इतने छोटे होते हैं कि मिश्रण मे पूरी तरह परिक्षेपित हो कर एक समरूप मिश्रण तैयार करें, लेकिन इतने बडे़ भी नहीं होते हैं कि प्रकाश को प्रकीर्णित करें और ना घुलें। इस परिक्षेपण के चलते कुछ कलिल विलयन जैसे दिखते हैं। किसी कलिल प्रणाली की दो पृथक प्रावस्थायें होती हैं: पहली परिक्षेपण प्रावस्था (या आंतरिक प्रावस्था) और दूसरी सतत प्रावस्था (या परिक्षेपण माध्यम)। एक कलिल प्रणごま塩ですठोस, द्रव या गैसीय हो सकती है।

नीचे की तालिका मे एक समरूप और असमरूप मिश्रण मे कलिल के कणों का व्यास का तुलनात्मक विश्लेषण है।:

कण का आकार
10−9 मी से कम 10−9 – 10−6 मी 10−6 मी से अधिक
समरूप मिश्रण साँचा:center असमरूप मिश्रण

साँचा:clearleft

इसलिए, कलिलीय निलम्बन, समरूप और असमरूप मिश्रणों के मध्यवर्ती होते हैं।

परिचय

कलिल के लिए अँग्रेजी में कॉलायड (colloid) शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह शब्द ग्रीक भाषा के कोला शब्द से बना है जिसका अर्थ 'सरेस' (glue) होता है। सन्‌ १८६१ ई. में एक अँग्रेज वैज्ञानिक, टामस ग्राहम, ने देखा कि ऐल्ब्यूमिन, सरेस, गोंद, माँड़, सिलिसिक अम्ल और इसी प्रकार के अन्य पदार्थ जल में घोले जाने पर जैव झिल्ली के छिद्रों से छनकर नहीं निकल पाते। इसके विपरीत शर्करा, यूरिया, सोडियम, क्लोराइड इत्यादि के जलविलयन जैव झिल्ली के छिद्रों से निकल जाते हैं। पूर्व प्रकार के पदार्थ अधिकांश में अक्रिस्टलीय रूप में मिलते हैं इस गुण के आधार पर जल में विलेय पदार्थो का दो वर्गों में विभाजन किया गया: एक वे पदार्थ, जो क्रिस्टलीय थे और जल में विलयन के पश्चात्‌ जैव झिल्ली के छिद्रों से बहिर्गत हो सकते थे, क्रिस्टलॉयड (crystalloid) कहलाए और दूसरे वे, जो अक्रिस्टलीय थे और जल में घोलने पर जैव झिल्ली के छिद्रों से निकलने में समर्थ नहीं हो सकते थे, कलिल कहलाए। किंतु अब यह सिद्ध हो गया कि शर्करा और सोडियम क्लोराइड आदि क्रिस्टलीय पदार्थ भी उपयुक्त माध्यम में कलिल के रूप में प्राप्त किए जा सकते हैं।

कलिलावस्था में कलिल कण एक अविच्छिन्न माध्यम में बिखरे रहते हैं। इस प्रकार कलिलों में दो संघटक रहते हैं। नीचे की सूची में पहला नाम माध्यम का और दूसरा नाम वितरित पदार्थ का है :

  • १. ठोस + ठोस (माणिक के रंग का काँच, कुछ मिश्र धातुएँ)
  • २. ठोस + द्रव (जेली)
  • ३. ठोस + गैस (ठोस फेन)
  • ४. द्रव + ठोस (आलंबन या suspension)
  • ५. द्रव + द्रव (पायस)
  • ६. द्रव + गैस (फेन, झाग)
  • ७. गैस + ठोस (धुआँ, अंतरिक्ष धूलि)
  • ८. गैस + द्रव (कुहरा, बादल)

कलिलकणों का आकार विशेष महत्वपूर्ण है। आकार में कलिलकण अणुओं से बड़े होते हैं, किंतु ऐसे सभी कणों से, जो सूक्ष्मदर्शी से देखे जा सकते हैं, ये आकार में छोटे रहते हैं। इनका विस्तार १०-५ सें.मी. से १०-७ सें.मी. तक होता है।

यद्यपि ऊपर दी गई सूची के प्रत्येक मेल के कलिल प्राप्त किए जा सकते हैं, फिर भी (४) और (५) प्रकार के कलिल अधिक प्रयुक्त होते हैं और इन्हीं का अध्ययन भी अधिक विस्तारपूर्वक किया गया है। जल के माध्यम में वितरित ठोस या द्रव के कलिल को सौल (Sol) कहा जाता है। कार्बनिक और अकार्बनिक दोनों प्रकार के पदार्थ अनेक रूपों में कलिलवस्था में पाए जाते हैं। वैज्ञानिक या प्राविधिक, कदाचित्‌ ही कोई ऐसी शाखा हो जिसमें कलिलों का महत्वपूर्ण उपयोग न होता हो। अपनी इसीमहत्ता के कारण कलिल विज्ञान विशेष रूप से होता गया है।

कलिलों का वर्गीकरण

कलिलों के गुणों में भेद होने की दृष्टि से उन्हें दो प्रधान वर्गों में विभाजित किया गया है। पहले वर्ग में धात्वीय प्रकार के कलिल, जैसे स्वर्ण कलिल आदि, हैं और दूसरे वर्ग में प्रोटीन प्रकार के कलिल हैं, जैसे जिलेटीन आदि। इनके विशेष गुण निम्नलिखित हैं :

क्रमांक धात्वीय प्रकार के कलिल प्रोटीन प्रकार के कलिल
(१) अप्राकृतिक अकार्बनिक कलिल प्राकृतिक कलिल
(२) सांद्रण, साधारण: तनु सांद्रण बढ़ाना संभव है।
(३) आस्थिर और विद्युद्विश्लेष्यों के प्रति संवदेनशील विद्युद्विश्लेष्यों के अधिक सांद्रण से अवक्षिप्त किए जा सकते हैं।
(४) अवक्षेपण पर रूक्ष कणों का निर्माण होता है। जेली के रूप में अवक्षेपण होता है।
(५) अवक्षिप्त पदार्थ को पुन: कलिल में परिवर्तित करना असंभव अवक्षिप्त पदार्थ को पुन: कलिल रूप देना संभव।
(६) कलिल माध्यम के प्रति विशेष बंधुता नहीं दिखाता। इससे फूलता नहीं। बंधुता दिखाता है और फूल जाता है।
(७) श्यानता लगभग वही होती है जो साधरणत: माध्यम की होती है। श्यानता माध्यम से अधिक होती है।
(८) तीव्र प्रकाशकिरण के प्रभाव से उच्च टिंडल प्रभाव दिखाता है। तीव्र प्रकाशकिरण के प्रभाव से विशेष टिंडल प्रभाव नहीं दिखाता।

इन दोनों प्रकार के कलिलों के लिए जिन शब्दों का विशेष प्रयोग होता है वे हैं जलसंत्रासी (hydrophobic) और जलप्रेमी (hydrophilic)। इन्हें अँग्रेजी में क्रमानुसार लायोफ़ोबिक (lyohoblic) और लायोफ़िलिक (lyophilic) भी कहा जाता है। यह वर्गीकरण पूर्णरूपेण संतोषजनक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कतिपय कलिलों के कुछ गुण दोनों चरम वर्गों के अपोक्षकृत गुणों के मध्यवर्ती होते हैं। इस प्रकार के जलकलिलों में कुछ धात्वीय आक्साइडें या हाइड्रॉक्साइडें, कुछ अविलेय फ़ास्फ़ेट, मॉलिब्डेट, टंग्स्टेट इत्यादि हैं। कुछ लोग कलिलों को आलंबाभ और पायसाभ के दो वर्गों में विभाजित करते हैं। इनके अतिरिक्त कलिलों का एक तीसरा वर्ग भी है जो अब विशेष महत्वपूर्ण हो गया है। यह वर्ग कलिलीय विद्युद्विश्लेष्य कहलाता है। साबुन का जलकलिल इसका लाक्षणिक उदाहरण है। इन जलकलिलों में विद्युच्चालकता भी होती है। परिष्कारकों के रूप में अब इनका अधिक उपयोग होने लगा हैं।

ब्राउनीय गति

कलिलों में अतिसूक्ष्मदर्शी (ultra-microscope) की सहायता से ब्राउनीय गति को देखा जा सकता है। विलयनों में यह क्रिया नहीं होती। जब एक त्व्रीा किरणपथ केंद्रित करके जलकलिल के मध्य से भेजी जाती है तब किरणपथ दुग्धाभ हो जाता है और बहिर्गत किरणें ्ध्राुवत्व प्राप्त कर लेती हैं। इसके कारण हैं कलिलकणों के आकार और प्रकाश के तरंगदैर्घ्य में समानता तथा वितरित पदार्थ के वर्तनांक और प्रकाश के तरंगदैर्घ्य में समानता तथा विपरित पदार्थ के वर्तनांक का अविच्छिन्न माध्यम के वर्तनांक से अधिक होना। शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी की सहायता से टिंडल के प्रभाव द्वारा कलिलकणों को देखा जा सकता है।

इस प्रकार देखे जाने पर कलिलकण प्रकाशित तारों की भाँति दिखाई पड़ते हैं। साथ ही इनकी गति त्व्रीा, अनियमित और निरंतर होती है। इस गति को ही ब्राउनियन गति कहते हैं। इसी गति से पदार्थो के गत्यात्मकता-सिद्धांत के विचारों की प्रायोगिक पुष्टि हुई है। आवोगाड्रो नियतांक को इस सिद्धांत के अनुसार निकालने पर यह सिद्ध हो गया है कि प्रायोगिक त्रुटि का विचार करके इस विधि से निकाले गए आवोगाड्रो-नियतांक के मान अन्य विधियों के निकाले गए इस नियतांक के मान से साम्य रखते हैं। पेरिन ने मैस्टिक गोंद के कलिल पर परीक्षा करके आवोगाड्रो नियतांक का मान ६.५१०E२३ निकाला है। प्रयोग में उपयुक्त मैस्टिक गोंद के कलिलकणों का अर्धव्यास ६.५ x १०-४ था।

कलिल-निर्माण-विधियाँ

अनेक प्राविधिक विधियों के लिए कलिल निर्मित करना आवश्यक है। जलसंत्रासी कलिल ही सरलता से बनाए जा सकते हैं, क्योंकि जलप्रेमी कलिल उत्क्रमणीय हैं। जलसंत्रासी कलिलों के निर्माण के लिए कई विधियाँ प्रयुक्त होती हैं। इन विधियों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है–(१) एकीकरण और (२) विघटन। पहली विधि में आणवीय आकार के कणों को धीरे-धीरे तब तक बढ़ाया जाता है जब तक वे कलिलों का आकार नहीं प्राप्त कर लेते और उनके अधिक बढ़ने की गति किसी स्थायित्व प्रदान करनेवाले पदार्थ की उपस्थिति से, अथवा किसी जलप्रेमी कलिल के मिला देने से, नियंत्रित कर दी जाती है। इस विधि से कई धातुएँ, हाइड्राक्साइडें, अविलेय लवण तथा फोटोग्राफी में काम आनेवाली रजत हैलाइडें कलिलावस्था में निर्मित की गई हैं। दूसरी विधि से बड़े-बड़े कणों को छोटे-छोटे कणों में विभाजित किया जाता है। ब्रेडिग विधि में धातुओं के बड़े टुकड़ों को विद्युत्‌ आर्क की सहायता से तोड़कर धात्वीय कलिल प्राप्त किए जाते हैं। इस कारण इस विधि को विघटन की विधि कहा जाता है, किंतु वास्तव में ये कलिल भी एकीकरण की विधि से ही बनते हैं। आर्क के उच्च ताप पर धातु वाष्पीकृत हो जाती है। फिर वाष्प के अति सूक्ष्म कण एकीकृत होकर कलिलकणों का आकार प्राप्त कर लेते हैं। वास्तव में विभाजन द्वारा कलिल बनाने का प्रमुख साधन कलिल-मिल है। इस यंत्र में दो प्लेटें, जो एक दूसरे के अत्यंत समीप रहती हैं, परस्पर विपरीत दिशा में घूमती है। वितरित किया जानेवाला पदार्थ उचित माध्यम के साथ इन दोनों प्लेटों के बीच से भेजा जाता है। इस प्रकार कण छोटे होकर कलिल कणों का आकार ग्रहण कर लेते हैं।

दोनों में से किसी भी विधि से निर्मित कलिलों के शोधन के लिए उन्हें मणिभाभ पदार्थ से अपोहन (डायालिसिस, dialysis) द्वारा पृथक क्रिया जाता है। ऐसा करने के लिए कलिल को पार्चमेंट या सेलोफ़ेन के झोले में रखा जाता है। इस झोले को अब शुद्ध विलायक में रख दिया जाता है। यह विलायक ही कलिल का माध्यम होता है। वैद्युत अपोहन से शोधन अधिक पूर्ण और श्घ्रीा संपन्न किया जा सकता है।

कलिलों का स्थायित्व (Stability)

जलप्रेमी कलिल अत्यंत स्थायी होते हैं और विद्युद्विश्लेष्य की लघुमात्राओं के प्रति निष्क्रिय होते हैं। इनका स्थायित्व उनकी माध्यम में विलेयता के कारण होता है। इन कलिलकणों का बाह्य तल माध्यम के अणुओं से ढका रहता है। इस प्रकार बाह्यतल की मुक्त ऊर्जा नगण्य रहती है। इससे ये कण आकार में बढ़ने में असमर्थ रहते हैं। इसके अतिरिक्त यह देखा गया है कि जलप्रेमी कलिल माध्यम का अंतरतलीय तनाव कम कर देते हैं। इस प्रभाव से भी कलिलों का स्थायित्व नियंत्रित रहता है।

जलसंत्रासी कलिलों का स्थायित्व कलिलकणों पर स्थित आवेश के कारण होता है। कलिलकणों के बाह्य तल पर आवेश का सृजन उनके द्वारा अवशोषित आयनों के कारण होता है। किसी विद्युद्विश्लेष्य के मिलाने पर कलिलकणों के तल पर आवेश क्षीण हो जाता है और धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आ जाती है जब विद्युद्विश्लेष्य की निम्नतम सांद्रता पर कलिलकणों का तल एकीकरण की शक्तियों का विरोध कर पाने में असमर्थ हो जाता है। इस प्रकार विद्युद्विश्लेष्य का वह निम्नतम सांद्रण, जो किसी कलिल की एक निश्चित मात्रा के अवक्षेपण में समर्थ होता है, कलिल का अवक्षेपण मान कहा जाता है। साधारणत: विद्युद्विश्लेष्य के उस आयन की संयोजकता, जो कलिलकरण के आवेश के विपरीत हो, जितनी ही अधिक होती है, विद्युद्विश्लेष्य की अवक्षेपण शक्ति भी उतनी ही अधिक प्रबल होती है।

जलसंत्रासी कलिलों को विद्युद्विश्लेष्यों से सुरक्षित रखने के लिए उनमें जलप्रेमी कलिल मिला दिए जाते हैं। इस विधि को संरक्षण विधि कहते हैं। स्वर्णकलिल को जिलेटिन की सूक्ष्म मात्रा से अवक्षिप्त किया जा सकता है किंतु इस प्रोटीन की अधिक मात्रा इस कलिल को स्थायित्व प्रदान करती है।

जिगमोंडी के अनुसार किसी कलिल संरक्षक का स्वर्णमान कलिल संरक्षक के मिलीग्रामों की वह संख्या है जिसकी उपस्थिति में स्वर्ण के १० घन सेंटीमीटर प्रामाणिक कलिल को सोडियम क्लोराइड के ऐसे १घन सें.मी. विलयन द्वारा, जिसका सांद्रण १० प्रतिशत हो, अवक्षिप्त किया जा सके। कलिल का संरक्षण विशेष महत्व रखता है और अत्यंत प्राचीन समय से इसका व्यवहार होता रहा है।

कलिलों का वैद्युत गुण

यह पहले ही कहा जा चुका है कि कलिल कणों पर आवेश रहता है। कलिल पर आवेश का प्रकार ज्ञात करने के लिए सरल अवशोषण प्रयोग किए जा सकते हैं। धनात्मक कलिल सिलिका जेली द्वारा और ऋणात्मक कलिल ऐल्यूमीनियम हाइड्राक्साइड द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं। जलसंत्रासी कलिल के स्थायित्व के लिए आवेश का स्थान प्रमुख है। आवेश का प्रकार पदार्थ के भौतिक स्वभाव पर और कलिल को स्थायित्व प्रदान करनेवाले विद्युद्विश्लेष्य पर निर्भर रहता है। उदाहरणार्थ यदि रजत आयोडाइड के सौल को लें तो उसपर आवेश का प्रकार धनात्मक या ऋणात्मक दोनों ही हो सकता है। यदि कलिल में रजत नाइट्रेट का सूक्ष्म आधिक्य हुआ तो सौल धनात्मक होगा। इसके विपरीत यदि पोटैसियम आयोडाइड का आधिक्य हुआ तो सौल ऋणात्मक हो जाएगा। यह देखा गया है कि धनात्मक रजत आयन के अभिमान्य अधिशोषण के कारण रजत आयोडाइड कलिल का आवेश धनात्मक और आयोडाइड के ऋणात्मक आयन के अधिशोषण के कारण इस कलिल का आवेश ऋणात्मक हो जाता है।

कलिलीय तल पर आवेश की मात्रा और विभव धन-विद्युत-संचारण (कैटाफ़ोरेसिस, cataphoresis) द्वारा परिमापित किए जाते हैं। सौल को यू नली में भरा जाता है जिसमें दो प्लैटिनम के विद्युदग्र रहते हैं। अब सौल में दिष्ट विद्युद्धारा प्रवाहित की जाती है। यदि कण धनाग्र की ओर बढ़ते हैं तो उनपर ऋणात्मक विद्युत्‌ आवेश रहता है। विद्युत्‌ क्षेत्र में कणों की इस प्रकार की गति धन-विद्युत्‌-संचारण कहलाती है। यह गति उपयुक्त प्रकाशीय विधियों द्वारा सुविधापूर्वक मापी जा सकती है। वेग के मापन द्वारा विद्युद्विभव की गणना की जा सकती है। इस विभव को साधारणत: वैद्युत-गत्यात्मक-विभव कहा जाता है। यह विद्युतगत्यात्म्क विभव उस समय भी देखा जाता है जब विद्युद्विश्लेषीय विलयन को किसी संर्ध्रा तनुपट से होकर भेजा जाता है। दो अन्य संबंधित क्रियाओं पर भी अनुसंधान किए गए हैं। ये हैं धाराविभव और अवक्षेपण विभव।

वैद्युतिक गत्यात्मक विभव नर्न्स्ट विद्युत रासायनिक विभव से भिन्न है। अब सिद्ध हो गया है कि वैद्युतिक रासायनिक विभव वह विभव है जो वितरित कला (फ़ेज़) और वितरण माध्यम के मुख्य आयतन के बीच होता है। वैद्युतिक-गत्यात्मक विभव वह विभव है जो उस वितरित कला से संलग्न द्विक तल के स्थिर भाग में वितरण माध्यम के मुख्य आयतन के बीच होता है। वितरित कला से संलग्न द्विकतल का वास्तविक स्वभाव अब भी कल्पना का विषय है। फिर भी यह ज्ञात कर लिया गया है कि वैद्युत-गत्यात्मक-विभव उपस्थित आयनों से विशेष प्रभावित होता है।

कलिलों की रसाकर्षण दाब (ऑस्मॉटिक प्रेशर, osmotic pressure)

गैस के नियम कलिल विलयनों पर ठीक बैठते हैं, इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। किसी कलिल की रसाकर्षण दाब की गणना नीचे लिखे समीकरण द्वारा की जा सकती है:

परासरणी दाब = n x (c/M) x RT

जहाँ:

  • n is the number of particles into which the substance dissociates (n = 1 for plasma proteins)
  • c is the concentration in G/l
  • M is the MW of the molecules
  • c/M is thus the molar concentration of the substance
  • R is the universal gas constant
  • T is the absolute temperature (K)

अब चूँकि रसाकर्षण दाब कण के आकार का प्रतिलोमानुपाती होता है इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कलिल की रसाकर्षण दाब कम होनी चाहिए और वितरण की मात्रा के आधिक्य के साथ इनकी मात्रा भी बढ़नी चाहिए। इस प्रकार साधारणत: सौलों की रसाकर्षण दाब कम ही होती है और जब रसाकर्षण दाब अधिक हो जाती है तो वह मुख्यत: अशुद्धियों के कारण ही होती है।

रसाकर्षण दाब का मापन अर्धपारगम्य झिल्ली की सहायता से किया जाता है। विद्युद्विश्लेषण के असमान वितरण से कुछ कलिलों में डोननसंतुलन नामक क्रिया के कारण जटिलता उत्पन्न होती है। इस तनुपट संतुलन की क्रिया का अध्ययन कांगो रेड नामक रंग, साबुन तथा अन्य कई कलिलीय विद्युद्विश्लेष्यों पर किया गया है। इन स्थितियों में कलिलीय पदार्थ विद्युद्विश्लेष्य के समान व्यवहार करता है। जब किसी आयन का आकार कलिलकणों के आकार के समान होता है जब तनुपट (membrane) के दोनों ओर विभव का सृजन होता है, जिसे तनुपट विभव कहते हैं। कई प्रोटीन सौलों में तनुपट-विभव सदैव ही उत्पन्न हो जाता है और जीवित सेलों पर आवेश इस तनुपट संतुलन के कारण ही होता है।

कलिलकणों का आकार और रूप

अति सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखने से कलिलकणों का आकार या रूप नहीं देखा जा सकता। फिर भी कलिलकणों की संख्या गिनी जा सकती है; तब वितरित पदार्थ के पूर्ण आयतन के मान से एक कण का औसत आयतन ज्ञात किया जा सकता है। किंतु जब सौल निर्माण किया जाता है तब उसमें कई आकार के कण उपस्थित रहते हैं।

कलिलकणों का रूप गोलाकार, दंडाकार, दीर्घवृत्ताकार या परतदार हो सकता है। कलिलकणों का रूप ज्ञात करने के लिए कई विधियाँ विकसित की गई हैं जो प्रकाशीय गुणों पर आधारित हैं।

जलप्रेमी कलिलों के गुण

इन कलिलों की विशेषता है वितरण माध्यम की श्यानता पर प्रभाव डालना। श्यानता अधिकतर बढ़ जाती है और वितरित पदार्थ की मात्रा की वृद्धि के साथ श्घ्रीाता से बढ़ती जाती है। एक विशेष सांद्रण के पहुँचने पर श्यानता इतनी बढ़ जाती है कि कलिल जेली का रूप ग्रहण कर लेता है। सौल के अवक्षेपण से भी जेली प्राप्त की जा सकती है। जेली का उपयोग सीमित सा है और जिलेटिन, ऐगर ऐगर, स्टार्च आदि के सौलों को शीतल करके जो अर्धपारदर्शक जेलियाँ बनाई जाती हैं उन्हें ही जेली की संज्ञा दी जाती है। अधिकांश जलप्रेमी कलिल शीतलीकरण पर या गर्म करने पर जेली बनाते हैं। कई अकार्बनिक जलसंत्रासी कलिल भी विशेष परिस्थितियों में जेली के रूप में प्राप्त किए जा सकते हैं। इस प्रकार से कई जलीय हाइड्राक्साइडों, अविलेय फ़ास्फ़ेटों, मोलिब्डटों की जेलियाँ प्रयोगशाला में बनाई जाती हैं। जेली साधारणत: तरलमोचन का गुण प्रदर्शित करती है। अधिक समय तक रखने पर जेली सिकुड़ती तथा चटक जाती है और जेली में बँधा हुआ जल बाहर निकल आता है।

जेलियाँ

जेलियों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है: प्रत्यास्थ तथा दृढ़। प्रत्यास्थ जेलियाँ साधारणत: जिलेटिन, ऐगर आदि प्राकृतिक कलिलों से बनती हैं, किंतु अधिकांश अकार्बनिक जेलियाँ, जिनमें सिलिसिक अम्ल भी रहता है, दृढ़ व्यवहार दिखाती हैं। कुछ जेलियों का स्वभाव विचित्र होता है। वे हिलाने पर, आंदोलित करने पर या कर्णातीत तरंगों के प्रभाव से पुन: सौल में परिवर्तित हो जाती हैं। किंतु यदि अब उन्हें स्थिर रख दिया जाए तो वे फिर जेली बन जाती हैं। यह क्रिया कई बार दुहराई जा सकती है। इस क्रिया को स्पर्शबोध (थिक्सोट्रॉपी, thixotropy) कहते हैं।

जलप्रेमी कलिलों में प्रोटीनों के सौलों पर विशेष खोजें हुई हैं। इसका कारण है इनका शरीरिक रसायन शास्त्र में महत्व। प्रोटीनों के जो सौल प्राकृतिक अवस्था में पाए जाते हैं वे साधारणत: ऋणात्मक आवेशवाले होते हैं। अधिकांश सौल अम्लीय बनाए जाने पर धनात्मक आवेश प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार एक विशेष पी एच पर प्रोटीन के सौल पर कोई भी आवेश नहीं होगा। इसे समविद्युत्‌ विंदु (आइसो-इलेक्ट्रिक-प्वाइंट, Iso-electric point) कहते हैं। इसी से प्रोटीन की पहचान हाती है। रासायनिक गुणों में प्राचीन उभयधर्मी (एंफ़ोटेरिक, amphoteric) होता है क्योंकि इसमें (NH2) और (COOH) बोनों समूह रहते हैं। इस गुण के कारण प्रोटीन बफ़र का काम देता है। जंतुओं के जीवन में इस गुण का विशेष महत्व है। प्रोटीनों में जलसंत्रासी कलिलों को स्थयित्व प्रदान करने का सामर्थ्य रहता है और इनकी स्वर्णसंख्या की सहायता से कई रोगों के निदान में सहायता मिलती है।

उपयोग

कलिलों के समस्त उपयोगों की गणना संभव नहीं। अधिकांश जैविक तरल पदार्थ, जैसे रक्त आदि, स्वभाव के होते हैं। कैल्सियम-साबुन के रूप में कैल्सियम, स्वर्ण, लौह, वंग (राँगा), मैंगनीज़, रजत इत्यादि धातुएँ, या उनके अविलेय यौगिक, कलिल के रूप में ओषधियों में प्रयुक्त होते हैं।

आहार विज्ञान में कलिलीय पदार्थों पर विचार करना पड़ता है। ह्यूमस और चिकनी मिट्टी के कलिलीय गुण भूमि की उर्वरता और उसके भौतिक गुणों पर विशेष प्रभाव डालते हैं। रेशे कार्बनिक कलिल हैं और कपड़ा उद्योग भी कलिलीय उद्योग ही है। छींट के निर्माण में प्रयुक्त होनेवाले रंग और छपाई कलिलीय गुणों के कारण ही संपन्न होती है। कुछ अभिकारकों में सेल्युलोसीय पदार्थ के कलिलीय गुणों पर कृत्रिम रेशम का निर्माण आधारित है। साबुन और अपक्षालक कलिलीय पदार्थ हैं और अनेक वस्तु-समूह, यथा चिकानेवाले पदार्थ, प्लास्टिक, रबर, स्नेहक पदार्थ, तैल रंग इत्यादि में कलिलीय गुण पाए जाते हैं। काँच, मृत्तिका तथा सीमेंट उद्योग कलिलीय विज्ञान से विशेष रूप से संबद्ध हैं। हमारे अधिकांश आहार, जैसे प्रोटीनें, स्टार्च के रूप में कार्बोहाइड्रेट वसा आदि भी गुण में कलिलीय हैं। कलिल रसायन की तकनीक हमारे अनेक भोज्य पदार्थ बनाने में आवश्यक होती है जैसे पावरोटी, मक्खन, जेली, जाम, पेय, आइसक्रीम आदि।

इन्हें भी देखेँ

सन्दर्भ

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