केरल नटनम

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
केरल नटनम

केरल नटनम (केरल नृत्य) नृत्य की एक नई शैली है, जो अब भारतीय नृत्य नाटिका के एक रूप कथकली से विकसित एक अलग कला रूप के तौर पर मान्यता प्राप्त कर चुकी है। अच्छी तरह प्रशिक्षित एक कथकली कलाकार व भारतीय नर्तक गुरु गोपीनाथ और उनकी पत्नी थंकामणि गोपीनाथ, जो केरला कलामंडलम में मोहिनीयाट्टम की पहली विद्यार्थी थीं, ने भारत के शास्त्रीय नृत्य रूपों की शिक्षा और प्रदर्शन के लिए अद्वितीय संरचना विकसित की. उन्होंने एकल, युगल, नृत्य नाटक और पारंपरिक लोक नृत्यों की सामग्री चुनीं.

गुरु गोपीनाथ और थंकामणि के नृत्य कार्यक्रमों में पारंपरिक शैलियां और कई तरह के विषयों की प्रस्तुति के लिए वर्तमान संशोधित रूपों को अगल-बगल ही रखा गया। उनकी शैली काफी हद तक आंगिक अभिनय - शरीर की गतियों और इशारों - और सात्विक अभिनय - कथकली के चेहरे की अभिव्यक्तियों - पर आश्रित रहीं. गोपीनाथ ने हालांकि कथकली की प्रमुख मुद्रा को ज्यादा सुविधाजनक रूप में बदल दिया, जो त्रिभंग अवधारणा पर अब भी काफी आश्रित है।

एक अन्य महत्वपूर्ण विचलन था आहार्य अभिनय - पोशाक का रूप), जहां उन्होंने भूमिका के लिए उपयुक्त पोशाक और चेहरे का मेकअप अपनाया. इस तरह यीशु मसीह पर नृत्य के लिए नर्तक को मसीह की तरह कपड़े पहनने पड़ते हैं। सामाजिक नृत्य में कलाकार श्रमिकों, किसानों, आम लोगों आदि के कपड़े पहनते थे। इसी तरह श्रीकृष्ण, राजा, सांप पकड़नेवाले, शिकारी की भूमिकाओं के लिए भी उपयुक्तत पोशाक पहनने पड़ते थे। पहली बार समारोहों के लिए इस्तेमाल की गई कर्नाटक संगीत रचनाओं को गोपीनाथ द्वारा नृत्य रूपों में पेश किया गया था। परंपरागत कथकली और मोहिनीअट्टम के विपरीत उनकी प्रस्तुतियों से कई संगीत वाद्ययंत्रों को जोड़ा गया था।

हालांकि अपने जीवनकाल के दौरान गुरु गोपीनाथ ने अपनी शैली को कोई नाम नहीं दिया, पर उनके निधन के बाद उनकी शैली को एक नाम देने के आंदोलन ने रफ्तार पकड़ी. 1993 में तिरुवनंतपुरम में गुरु गोपीनाथ और केरल नटनम पर हुए वैश्विक सम्मेलन के दौरान उनके छात्रों द्वारा इस शैली की एक संस्कृत परिभाषा दी गई। केरलीय शास्त्रीय सरगाथमका नरीथ्थम- 'केरल मूल की एक परंपरागत रचनात्मक नृत्य शैली."

केरला नटनम की प्रस्तुति तीन तरह से की जा सकती है: एकमंगा नटनम यानी एकल, समंघा नटनम यानी समूह में, नाटका नटनम अर्थात एक कहानी का नृत्य नाटिका में अभिनय. पुरुष महिला की जोड़ी में नृत्य (युगल) भी केरल नटनम में एक अलग शैली है। इसलिए उन्होंने नृत्य नाटिका का समय 5 या छह घंटे लंबे नृत्य प्रदर्शन तक बढ़ा दिया, जिसे भारतीय बैले कहा गया।

केरल नटनम के प्रमुख कलाकार

' 1.गुरु चन्द्रशेखरन (1916 - 1998)

गुरु चन्द्रशेखरन एक महान भारतीय नर्तक और कोरियोग्राफर थे, जिनका जन्म केरल के तिरुवनंतपुरम में 1916 में हुआ था। उनके पिता एन.के. नायर (कुंजू कृष्णा कुरुप), एक उल्लेखनीय तैल चित्रकार थे। विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान उन्होंने अपने माता पिता को सूचित किये बिना नृत्य का अभ्यास शुरू कर दिया. उन्होंने गुरु गोपीनाथ के मार्गदर्शन में कथकली नृत्य का अध्ययन किया। उस अवधि के दौरान गोपीनाथ को त्रावणकोर शाही महल से संरक्षण मिला और सरकार ने त्रावणकोर के पूजापूरा में 'श्री चित्रोदया नार्था कलालयम' नाम के एक नृत्य स्कूल की स्थापना की. चन्द्रशेख्नरन उस स्कूल के पहले छात्रों में से एक थे। कुछ समय के बाद चन्द्रशेखरन ने नेडीमुडी नारायण कुरूप के मार्गदर्शन में कथकली सीखी, जो खुद भी महल के कथकली कलाकार थे। बाद में उन्होंने अपनी मंडली बना ली और भारत के विभिन्न भागों में प्रस्तुतियां कीं. उस अवधि के दौरान शास्त्रीय नृत्य में सामाजिक विषयों का शायद ही प्रयोग किया गया। उन्होंने नृत्य में कई सामाजिक विषयों को निर्देशित और नृत्यरचना में शामिल किया। 1943 में सरकार की ओर से एक निमंत्रण मिलने पर वे सैन्य मनोरंजन के लिए अपनी मंडली को अलेक्जेंड्रिया (मिस्र), मध्य पूर्व और इटली ले गये, क्योंकि भारतीय सेना द्वितीय विश्व युद्ध में लगी हुई थी। 1946 में युद्ध की समाप्ति के समय उन्होंने फिर से सुदूर पूर्व जाने की कोशिश की, लेकिन सीलोन में दौरा समाप्त हो गया।

उन्होंने पश्चिम बंगाल के शांतिनिकेतन में एक नृत्य प्रोफेसर, केरल विश्वविद्यालय सीनेट, केरल कलामंडलम शासी निकाय के निदेशक बोर्ड के सदस्य, मलयालम एन्साइक्लोपीडिया के सलाहकार समिति के सदस्य, स्वाति थिरूनल कॉलेज ऑफ म्यूजिक के विजिटिंग डांस प्रोफेसर और तिरुवनंतपुरम, बाला भवन के निदेशक बोर्ड के संस्थापक सदस्य के रूप में अपनी सेवाएं दी हैं।

चालीस के दशक के आखिर में अपने कुछ दोस्तों के आग्रह पर उन्होंने नृत्य रूप के एक राजनीतिक विषय 'वॉयस ऑफ त्रावणकोर' की संगीत रचना व प्रस्तुति की, जिसमें दीवान के निरंकुश शासन और उस पर सर सी. पी. रामस्वामी अय्यर और लोगों के प्रतिरोधात्मक आंदोलन को दर्शाया. हालांकि, सर सीपी चन्द्रशेख्नरन की कला के प्रशंसक थे। हालांकि, 1946 में तिरुवनंतपुरम में आयोजित अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन में चन्द्रशेखरन ने उनकी काफी सराहना प्राप्त की.

रिपोर्ट के अनुसार: "चन्द्रशेखरन द्वारा नटराज थांडवा को एक उल्लेखनीय ढंग से पेश किया गया। जब उन्होंने शिकारी नृत्य पेश किया, उनके द्वारा सर्वेक्षित पूरे जंगल का राजा होने के आनन्द की प्रस्तुति जीवंत हो उठी. उन्होंने काफी हद तक दुखद भावनाओं को जगाया, जब उन्होंने आत्मघाती पीड़ा का अनुभव किया, क्योंकि उन्हें एक सांप ने काट लिया था। जब उन्होंने अर्द्धनारीश्वर में प्रवेश किया, जैसे उनका शरीर शक्ति और विनम्रता के एक दोहरे आह्वान के जवाब के रूप में दिख रहा था। यह शायद उससे ज्यादा था, जो एक उदय शंकर कर सकते थे। " उनकी एक और रचना 'पोलिंजा दीपम' (प्रकाश जो बुझ गया) में महात्मा गांधी के दुखद अंत का चित्रण था, जो उन्होंने 1948 में खेला।

1949 में वे विश्वभारती विश्वविद्यालय (शांतिनिकेतन) में कथकली नृत्य के एक प्रोफेसर के तौर पर नियुक्त हुए. इस अवधि के दौरान उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर की प्रसिद्ध नृत्य नाटिकाओं, 'चित्रांगदा', 'चंद्रिका' आदि की नई दिल्ली और कोलकाता सहित उत्तर भारत के विभिन्न शहरों में संगीत रचना व चित्रण किया। विश्वभारती में उन्हें कांडी, बाली, बर्मा आदि से आये नृत्य रूपों सहित विभिन्न नृत्य रूपों से परिचित होने का मौका मिला. शांतिनिकेतन में इस अवधि के दौरान उन्हें प्रो हुमायूं कबीर, जाकिर हुसैन (भारत के पूर्व राष्ट्रपति) से परिचित होने का मौका मिला, जो उस समय अक्सर शान्तिनिकेतन आते रहते थे। इन सभी महान हस्तियों ने प्रदर्शन कला में उनकी प्रतिभा के लिए चन्द्रशेख्नरन की प्रशंसा की: "चन्द्रशेख्नरन में भारी अभिव्यक्तात्मकता है और वे सूक्ष्मता और शक्ति के साथ भावना के रंगों को अभिव्यक्त करने में सक्षम थे। ताल और नाटकीय व्याख्या की उनकी समझ उन्हें एक अलग तरह के कलाकार के रूप में चिह्नित करती है।"

कवि हरींद्रनाथ चटोपाध्याय ने 21 फ़रवरी 1952 को उनके बारे में लिखा था। "साहस यही है कि एकल इच्छाशक्ति रखें, बिना किसी मदद के अकेले निर्माण करते रहो, जो दिखाता है कि तुम्हारे पास भावनाओं की दृढ़ता है, दिल से तो तुम्हें शुभकामनाएं."

गांधी के एक शिष्य और दीनबंधु भवन, शान्तिनिकेतन के एक पूर्व निदेशक एसके जॉर्ज ने उनके बारे में लिखा: "श्री चंद्रशेखरन शान्तिनिकेतन में सेवाएं देने वाले कला के बेहतरीन शिक्षकों में से एक थे और उन्होंने देश के विभिन्न भागों से आये छात्रों के बीच इसके अध्ययन में रुचि जगाने के लिए काफी कुछ किया। अपने प्रवास के दौरान उन्होंने दुनिया के सभी भागों से शांति निकेतन आने वाले आगंतुकों को अपनी कला की तराशी गई तकनीक से खुश किया और उन्हें विश्व शांतिवादी सम्मेलन के प्रतिनिधियों सहित कइयों की ओर से प्रशंसापत्र मिले. ' चंद्रिका ', 'चित्रांगदा' और ' श्यामा' जैसी गुरुदेव की नृत्य नाटिकाओं की शान्तिनिकेतन और बाहर प्रस्तुतियां की गईं, जिनमें उन्होंने अग्रणी भूमिकाएं अदा कीं. "

कुछ साल बाद, वे विश्वभारती से वापस आ गये और प्रतिभा नृतकला केन्द्र नाम से तिरुवनंतपुरम में अपना खुद का स्कूल शुरू कर दिया. 1954 के दौरान उन्होंने मन्नू थिल्लाकुन्ना '(उबलती रेत) का प्रदर्शन किया, जिसमें कृषि क्रांति की वकालत का सामाजिक विषय था। इसने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और डॉ॰ राधाकृष्णन जैसी महान हस्तियों की ओर से व्यापक अभिनंदन प्राप्त किया।

चन्द्रशेखरन के रचनात्मक योगदान में 'वॉयस ऑफ त्रावणकोर,' मनीशादा', 'शिव तांडवम', 'गणेश नृथम', 'अर्द्धनारीश्वर', 'सूर्य नृथम', 'गीतोपदेशम,' कालिदास का 'कुमार संभवम', 'शकुंथलम' कुमारन आसन के ' चंदाला भिक्षुकी,' वल्लथोल की 'मगदलाना मारिया', 'गुरुवरम शिष्यनुम,' वयलार की 'आइशा,' चंगांपुझा की 'रमणम' और 'मार्कंडेयन', 'मोहिनी रुग्मांगदा', 'सावित्री', 'दक्षयंगम', 'एकलव्यन', ' चिलाप्पदिकरम, यूनानी कहानी 'पाइगामोलियन' चीनी कहानी 'फिशरमैन रिवेंज', जापानी कहानी 'इसाशियुवो', '(प्रपिदियान पथालाथी), बाइबिल की कहानी' सालोम ' जैसी रचनाएं और अन्य कई शामिल थीं। उन्होंने 'श्री गुरुवयुरप्पन,' 'कुमार संभवम,' 'श्री अयप्पन,' 'हृश्य श्रींगन' और 'श्री हनुमान' जैसे कई बैले नृत्यों की सफलतापूर्वक संगीत रचना की और उनका प्रदर्शन किया।

उन्होंने 1964 में भारत के इतिहास की पृष्ठभूमि में 'हिमवंते मक्कल' (हिमालय के बच्चे) नाम से एक अन्य बैले की रचना की, जो 1962 में भारत पर चीनी आक्रमण के साथ समाप्त हुआ। इसे देखने के बाद केरल के तत्कालीन राज्यपाल वी.वी. गिरि इतने खुश हुए कि उन्होंने चन्द्रशेखरन को राजभवन आमंत्रित कर सम्मानित किया। यहां उनकी प्रशंसात्मक टिप्पणी का एक अंश देखा जा सकता है।

"मैं त्रिवेन्द्रम के प्रतिभा नृतकला केन्द्र द्वारा राष्ट्रीय एकता पर आधारित और मशहूर और प्रतिष्ठित नर्तक चन्द्रशेखरन द्वारा निर्देशित नृत्य नाटिका की प्रस्तुति को देखकर बहुत प्रसन्न हूं. यह नाटक विभिन्न कालखंडों का वर्णन करता है, जिनसे हम वैदिक काल से आज तक गुजरे हैं। यह सर्वाधिक विचारोत्तेजक नाटक है और जो इस शो को देखेगा, वो उत्साहित और प्रभावित महसूस करेगा और इससे देशभक्ति और अपने देश के लिए बलिदान के प्रति प्यार की भावना मजबूत होगी. "

1965 में चन्द्रशेखरन ने एक ओपेरा की रचना की, जो मलयालम में और साथ ही किसी भी अन्य भारतीय भाषा में अपनी तरह की पहली रचना थी। यह ओपेरा महाभारत के चरित्र कर्ण पर आधारित था। खुद चन्द्रशेखरन ने कर्ण की भूमिका निभाई, जबकि दूसरे लगभग सौ लोगों ने इसमें हिस्सा लिया, जो त्रिवेन्द्रम में एक महीने से भी अधिक समय तक पेश किया गया था। यह ओपेरा कला निलयम के स्थायी थियेटर्स द्वारा निर्मित किया गया। बाद में चन्द्रशेखरन ने प्रतिभा ओपेरा हाउस नाम से अपना ही स्थायी मंच शुरू किया और महाभारत के नायक 'भीष्मर' शीर्षक से एक दूसरे ओपेरा का निर्माण किया, जो कलात्मक रूप से काफी सफल हुआ, पर आर्थिक रूप से असफल साबित हुआ, जिसने उन्हें दृश्यपटल से आंशिक रूप से हट जाने पर मजबूर किया। हालांकि, उन्होंने 1980 तक अपनी गतिविधियों को जारी रखा.

प्रो अयप्पा पणिक्कर की अध्यक्षता में तिरुवनंतपुरम में हसन मरीकर हॉल में षष्टाब्दिपूर्ति (60 वें जन्मदिन) के सिलसिले में आयोजित एक सार्वजनिक सभा में तिरुवनंतपुरम की जनता ने उन्हें 'गुरु' की उपाधि प्रदान की. 1976 में केरल संगीत नाटक अकादमी द्वारा एक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। चन्द्रशेखरन भारत के विभिन्न नृत्यों के बारे में पत्रिकाओं में कई लेख लिखे है। भरतनाट्यम पर उनकी नटीय निरीशनम शीर्षक पुस्तक एक अति उत्तम रचना है और यह भारत सरकार के सांस्कृतिक विभाग के फैलोशिप पुरस्कार के साथ किये गये अनुसंधान कार्य की परिणति है।

चन्द्रशेखरन ने अलंगद पारावुर की कलाप्पुरक्कल परिवार की बेटी मोहनावल्ली अम्मा से शादी की, जो पूर्व त्रावणकोर स्टेट के पुलिस अधीक्षक गोपाला पणिक्कर की बेटी हैं। उसकी पत्नी ने भी विभिन्न नृत्य प्रस्तुतियों में सक्रिय भागीदारी की. 5 अगस्त 1998 में 82 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया।