कृष्णा कुमारी

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कृष्णा कुमारी (1794 - 21 जुलाई 1810) मेवाड़ (उदयपुर) की राजकुमारी [१] और भीम सिंह की बेटी थीं।[२] उनकी सगाई अल्पायु में ही जोधपुर के भीम सिंह से हुई थी किन्तु विवाह पूर्व ही उनके भावी पति भीम सिंह की १८०३ में मृत्यु हो गयी। उसके बाद जोधपुर के मान सिंह तथा जयपुर के जगत सिंह सहित कई लोगों ने उनसे विवाह का प्रस्ताव किया। उनसे विवाह करने के इच्छुक लोगों में इतनी प्रतिद्वंदिता हुई कि युद्ध की स्थिति आ बनी। उदयपुर, जोधपुर, जयपुर, ग्वालियर, इन्दौर, तथा टोंक के राजों में युद्ध की स्थिति बन आयी। अन्ततः सन १८१० में अमीर खान पिंडारी ने मान सिंह के तरफ उदयपुर पर आक्रमण कर दिया। इस स्थिति से निपटने के लिये १६ वर्षीय राजकुमारी कृष्णा ने विषपान करके प्राणान्त करने का निर्णय लिया और इस युद्ध का अन्त हुआ।

प्रारंभिक जीवन

कृष्णा कुमारी, भीम सिंह की बेटी थीं। उनकी कई बहनें थीं। उनके पिता भीम सिंह उदयपुर रियासत के राजा थे। १९०० में जब वे मात्र ५ वर्ष की थीं, तभी उनकी सगाई जोधपुर रियासत के राजा भीम सिंह से तय हो गयी। दुर्भाग्य से भावी वर का सन १८०३ में देहान्त हो गया। उस समय उनकी आयु मात्र नौ वर्ष थी।

व्यक्तिगत जीवन

कृष्णा के पिता महाराणा भीम सिंह ने तब अंबर (जयपुर) के जगत सिंह के साथ एक सगाई की व्यवस्था की। मारवाड़ के उत्तराधिकारी चचेरे भाई भीम सिंह, मारवाड़ के मान सिंह, इस फैसले के खिलाफ थे और कृष्ण कुमारी से शादी करना चाहते थे। जैसा कि जयपुर के जगत सिंह और जोधपुर के मान सिंह ने उदयपुर की ओर बढ़ते हुए, ग्वालियर के मराठा राजा दौलतराव शिंदे को मारवाड़ के मन सिंह के साथ सहभागिता करने के लिए प्रेरित किया, जिन्होंने न केवल उन्हें बहुत पैसा दिया बल्कि उनके वकील का पालन करने का वादा किया। शिंदे ने मांग की कि जयपुर की सभी सेना मेवार खाली कर दी गई, और जब यह मांग पूरी नहीं हुई, मेवार सेना को हराया और मेवाड़ का प्रभावी नियंत्रण मिला। मराठा राजा ने तब अपने हाथ को पटक दिया और खुद से कृष्णकुमारी से शादी करने के लिए कहा।

मेवाड़ राजकुमारी के हाथ से पूछते हुए शिंदे के उग्र व्यवहार ने संघर्ष में एक नया खिलाड़ी लाया, इंदौर के मराठा शासक यशवंतराव होलकर उनके साथ साथ उनके नेतृत्व में, पठान अमीरखां ने, जिन्होंने पहले जयपुर को सहयोग दिया था और तब महसूस किया कि उन्हें अपना कारण नहीं दिया गया था, जोधपुर की तरफ में बदल गया था। बीकानेर के महाराजा सूरत सिंह भी जयपुर की सहातार्थ आये। परबतसर के पास दोनों सेनाओं के मध्य युद्ध हुआ। राठौड़ों में आपसी फूट थी, सो महाराजा मानसिंह से असंतुष्ट राठौड़ सामंत जयपुर की सेना में मिल गए। जिसकी वजह से महाराजा मानसिंह को युद्ध के मैदान से भागकर जोधपुर किले में शरण लेनी पड़ी।

जयपुर की सेना ने जोधपुर किले को जा घेरा। इसी बीच नबाब अमीरखां पिंडारी को जोधपुर के महाराजा ने ज्यादा धन देकर अपनी ओर मिला लिया। फलस्वरूप महाराजा जगतसिंह को जोधपुर से घेरा उठाना पड़ा। इस बीच नबाब अमीरखां ने इस विवाह विवाद से भविष्य में होने वाले युद्धों की आशंका के चलते जोधपुर महाराजा मानसिंह को सलाह दी कि क्यों ना उदयपुर की राजकुमारी को मरवा दिया जाय ताकि भविष्य में जयपुर-जोधपुर के मध्य प्रतिष्ठा के नाम पर युद्ध होने की आशंका खत्म की जा सके। जोधपुर के महाराजा ने अमीरखां की बात मानते हुए इसका दायित्व भी अमीरखां को ही सौंप कर उसे उदयपुर के लिए रवाना किया।

अमीरखां ने उदयपुर पहुँच अपनी सेना में मेवाड़ के महाराणा की तरफ से नियुक्त वकील अजीतसिंह चुण्डावत के माध्यम से महाराणा को सन्देश भेजा कि- ‘या तो महाराणा राजकुमारी का विवाह जोधपुर के महाराजा मानसिंह से कर दें या फिर राजकुमारी को मरवा डाले।’ सन्देश के साथ अमीरखां की धमकी भी थी कि ‘उसकी बात ना मानने की दशा में वह मेवाड़ को अपनी लूटपाट से बर्बाद कर देगा।’ मेवाड़ के महाराणा पहले से ही मराठों की लूटपाट और उपद्रव से तंग थे। उनके काल में मेवाड़ की शक्ति भी क्षीण हो चुकी थी। फिर अजीतसिंह चुण्डावत जैसे गद्दार ने अमीरखां का डर दिखाकर महाराणा की मनोदशा को ओर निर्बल कर दिया, सो लाचारी में मेवाड़ के महाराणा ने राज्य हित ने अपनी राजकुमारी का बलिदान देने का निश्चय कर, उसे जहर मिला शरबत पीने के लिए भिजवा दिया।

आत्मबलिदान

मेवाड़ महाराजा भीम सिंह की राजकुमारी कृष्णा कुमारी के विवाह के विवाद में जयपुर राज्य के महाराजा जगतसिंह की सेना, पिंडारियों व अन्य सेनाओं ने संयुक्त रूप से जोधपुर पर मार्च 1807 में आक्रमण राज्य कर दिया तथा अधिकांष हिस्से पर कब्जा कर लिया।

राजकुमारी की माता महाराणी चावड़ी को यह पता चला कि उसकी पुत्री को जहर का प्याला भिजवा गया है, तो वह दुःख से विह्हल हो विलाप करने लगी। तब राजकुमारी ने विषपान से पहले अपनी माता को दिलासा देते कहा- ‘माता ! आप क्यों विलाप कर रही है? आपकी पुत्री मौत से नहीं डरती। फिर राजकन्याओं व राजकुमारों का जन्म भी तो अपनी प्रजा व राज्य हित में आत्म-बलिदान के लिए ही होता है ना ! यह मेरे पिता का अनुग्रह है कि अब तक मैं जीवित हूँ। प्राणोत्सर्ग द्वारा अपने पूज्य पिता के कष्ट दूर कर राज्य व प्रजा की रक्षा में अपने जीवन को सफल एवं सार्थक बनाने का मौका आज मुझे मिला है, जिसे मैं हाथ से कतई जाने नहीं दूंगी।’ कृष्णा कुमारी का जन्म 16 जुलाई, 1810 को अपने वंश को बचाने के लिए, 16 वर्ष की उम्र में जहर पीने के बाद 21 जुलाई को हुआ।.[३] कृष्णा कुमारी की मौत के एक दशक के भीतर, उस जटिल और परिहार्य त्रासदी के सभी राजाओं, चाहे राजपूत या पठान, शिंदे या होल्कर, ने ब्रिटिश शासन को स्वीकार कर लिया था।

राजकुमारी के आत्मबलिदान के बाद उसकी माता महाराणी चावडी ने अन्न-जल छोड़ दिया। तदुपरांत कुछ समय बाद उनकी भी दुखद मौत हो गई। इन दोनों मौतों के षड्यंत्र में अमीरखां का साथ देना वाले पापी, गद्दार अजीतसिंह चुण्डावत को उसके कुकृत्य पर संग्रामसिंह शक्तावत ने लताड़ते हुए, सिसोदिया कुल पर उसे कलंक बताते हुए श्राप दिया था कि उसका भी वंश नष्ट हो जायेगा और वो शीघ्र मृत्यु को प्राप्त को प्राप्त होगा। संग्रामसिंह का श्राप महीने भर में ही सच हो गया। अजीतसिंह चुण्डावत की पत्नी व दो पुत्र एक माह के भीतर ही मर गए। उनकी मृत्यु के बाद अजीतसिंह पाप के प्रायश्चित के लिए विक्षिप्त सा राम नाम जपता हुआ एक मंदिर से दूसरे मंदिर में चक्कर लगाते हुए मर गया।

कृष्णा महल अब सिटी पैलेस, उदयपुर में राजकुमारी कृष्णा कुमारी का स्मारक है।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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