कूटस्थ

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

कूटस्थ, भारतीय दर्शन में आत्मा, पुरुष, ब्रह्म तथा ईश्वर के लिए प्रयुक्त शब्द। यह परम सत्ता के स्वरूप को व्यक्त करता है। कूटस्थ का अर्थ है कूट का अधिष्ठान अथवा आधार। जो वस्तु ऊपर से अच्छी प्रतीत होती है किंतु अंदर से दोषपूर्ण है, उसे कूट कहते हैं। दर्शन में कूट शब्द माया अथवा प्रकृति के लिए प्रयुक्त हुआ है; माया जीवों के जन्म, मरण, अज्ञान, दु:ख आदि का कारण होने से अनेक दोषों से परिपूर्ण है। माया का अधिष्ठान होने के कारण आत्मा, ब्रह्म अथवा ईश्वर कूटस्थ कहे गए हैं। कूटस्थ का एक दूसरा अर्थ यह भी है कि जो राशि अथवा ढेर की भाँति निष्क्रिय रूप से स्थित हो। माया आदि अनेक प्रकार से स्थित होने के कारण ब्रह्म कूटस्थ कहलाता है।

कूटस्थ होने के कारण ब्रह्म अचल और नित्य है। वह सदा एक रूप में रहनेवाला पारमार्थिक तत्व हैं। शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म में परिणाम अथवा परिवर्तन संभव नहीं है क्योंकि वह कूटस्थ है। वह बिना परिवर्तित हुए ही अपनी माया शक्ति द्वारा जगत्‌ आदि अनेक रूपों में व्यक्त होता है। संसार के सब पदार्थ देशकाल से सीमित तथा कारणसिद्धांत से नियंत्रित होते हैं, किंतु कूटस्थ ब्रह्म इनसे पूर्णरूप से स्वतंत्र है। वह समस्त विश्व को व्याप्त करता है किंतु उससे परे भी है। प्रकृति से उत्पन्न सभी पदार्थ क्षर तथा नश्वर हैं किंतु कूटस्थ ब्रह्म अक्षर अथवा अविनाशी है। वह शुद्ध चेतन है। वह केवल ज्ञाता है, ज्ञेय नहीं। इंद्रिय, वाणी, मन तथा बुद्धि के द्वारा उसका ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि वह इन सबका आधार है। उसी की चेतना के प्रकाश से ये सब भी प्रकाशित होते हैं। भगवद्गीता के अनुसार आत्मसाक्षात्कार होने से योगी कूटस्थ और जितेंद्रिय हो जाता है। जीवन के द्वंद्व उसे उस अवस्था में प्रभावित नहीं कर पाते। वह कर्मबंधन से सर्वथा मुक्त हो जाता है तथा मोक्ष प्राप्त कर लेता है।