कालमेह ज्वर
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कालमेह ज्वर (Black water fever) अथवा मलेरियल हीमोग्लोबिन्युरिया (malarial hemoglobinuria) घातक तृतीयक मलेरिया के कई आक्रमण के उपरांत उपद्रव के रूप में होता है। इसमें मूत्र का रंग काला या गहरा लाल हो जाने से इसका नाम 'कालमेह ज्वर' रखा गया है।
परिचय
इस रोग में रक्त के कणों में से तीव्रता से हीमोग्लोबिन पृथक् हो जाता है (hemolysis), जिससे मूत्र काला हो जाता है, ज्वर आ जाता है, कामला और रक्तन्यूनता हो जाती है तथा वमन होने लगता है। ज्वर प्राय: सर्दी लगने पर होता है। कमर में पीड़ा और आमाशय में कुछ कष्ट हो जाता है। २४ घंटे में रक्त में ५० प्रतिशत की कमी हो जाती है और रक्तचाप कम हो जाता है।
रोग के दो रूप होते हैं—मृदु और तीव्र। मृदु में ज्वर जाड़ा लगकर आता है। मूत्र में रक्त होता है। ज्वर बहुत तीव्र नहीं होता। रोगी तीन चार दिन में ठीक हो जाता है और तब मूत्र निर्मल हो जाता है। तीव्र रूप में ज्वर बड़ी तीव्रता से आता है और बहुत अधिक हो जाता है। मस्तिष्क ठीक काम नहीं करता, रोगी मूर्छित हो जाता है (uremia) और अन्त में उसकी मृत्यु हो जाती है।
कालमेह ज्वर अधिकतर उन्हीं स्थानों में होता है जहाँ मलेरिया उग्र रूप में बराबर पाया जाता है, जैसे भारतवर्ष, उष्ण अफ्रीका, दक्षिण-पूर्वीय यूरोप, दक्षिणी अमरीका और दक्षिण-पूर्वीय ए॰िया तथा न्यूगाइना आदि।
यदि रोगी के रक्त की परीक्षा आक्रमण के आरम्भ में की जाए॰तो उसमें घातक तृतीयक मलेरिया के जीवाणु मिल जाते हैं। कहा जाता है कि कालमेह ज्वर कुनैन और कैमोक्वीन अधिक काल तक देने से हो जाता है। रिलैप्सिंग ज्वर और पीत ज्वरय से इसका भेद समझना चाहिए।
चिकित्सा
रोगी को बिस्तर पर रखना चाहिए। जब मलेरिया ज्वर हो तब उसकी पूर्ण चिकित्सा करनी चाहिए॰और कुनैन आवश्यक से अधिक मात्रा में न देकर पैत्युड्रिन का उपयोग करना चाहिए।