कालबेलिया

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कालबेलिया नृत्य की प्रस्तुति देते हुए महिलाएं

कालबेलिया,

इस वंश के संस्थापक गुरु कानिफनाथ जी है ! कालबेलिया  दो शब्दों से मिलकर बना है ! काल + बेलिया काल स्वयं महाकाल बेलिया अर्थात उनका नंदी बैल ! कालबेलिया समाज नाथ सम्प्रदाय के अन्तर्गत आता है और

नाथ वंश के लोगों को भगवान भोलेनाथ का वंशज माना जाता है!

जोगी भोलेनाथ को अपना आराध्य मानते हैं उनके समान हेतु ही जोगी योगी या कालबेलिया कानो में कुंडल

भुजाओं मे रुद्राक्ष और भंगवे  वस्त्र धारण करते हैं जो की भगवान शिव का स्वरूप है  !

सांप महादेव का परमभक्त है इसलिए कालबेलिया सांपो का पालन पोषण करते हैं! और सर्प दंश का उपचार करते हैं!

इसलिए कालबेलिया को सपेरा नाम से भी जाना जाता है ! जिस सांप से दुनिया खौफ खाती है  उसे कालबेलिया अपनी बीन पे नचाते है!

कालबेलिया समाज का योगदान :-

आधुनिक चक्की के पहियों का निर्माण  जिसे  पहले घरटी कहा जाता था उसका सर्वप्रथम निर्माण इस समाज में किया गया था !

सांपों और जहरीले कीड़ों के उपचार हेतु सर्वप्रथम प्राकृतिक वनस्पति का निर्माण  इस समाज की सबसे बड़ी देन है!

कालबेलिया नृत्य के माध्यम से भारत को विश्व में प्रसिद्धि उपलब्ध कराना  गुलाबो सपेरा कालूनाथ इसके उदाहरण है !

कालबेलिया जनजाति

प्राचीन युग में यह जनजाति एक-जगह से दूसरी जगह घुमंतू जीवन व्यतीत करती थी। इनका पारंपरिक व्यवसाय साँप पकड़ना, साँप के विष का व्यापार और सर्प दंश का उपचार करना है। इसी कारण इस लोक नृत्य का स्वरूप और इसको प्रस्तुत करने वाले कलाकारों के परिधान में साँपों से जुड़ी चीज़ें झलकती हैं।

इन्हें सपेरा, सपेला जोगी या जागी भी कहा जाता है। यह अपनी उत्पत्ति को गुरु गोरखनाथ के १२वीं सदी के शिष्य कंलिप्र से जोड़ कर मानते हैं।

कालबेलिया जनजाति की सर्वाधिक आबादी राजस्थान के पाली जिले में है और इसके बाद क्रमशः अजमेर, चितौड़गढ़ और उदयपुर का स्थान आता है। ये एक खानाबदोश जीवन बिताते हैं और उन्हे अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है। [१][२]

परंपरागत रूप से कालबेलिया पुरुष बेंत से बनी टोकरी में साँप (विशेष रूप से नाग) को बंद कर घर-घर घूमते थे और उनकी महिलाएँ नाच-गा कर भीख मांगती थी। यह नाग साँप का बहुत आदर करते हैं और उसकी हत्या को निषिद्ध मानते और बताते हैं। गांवों में अगर किसी घर में नाग/साँप निकलता है तो कालबेलिया को बुलाया जाता है और वे बिना उसे मारे पकड़ कर ले जाते है।

आम तौर पर कालबेलिया समाज से कटे-कटे रहतें हैं और इनके अस्थाई आवास, जिन्हें डेरा कहा जाता है, अक्सर गावों के बाहरी हिस्सों में बसे होते हैं। कालबेलिया अपने डेरा को एक वृताकर पथ पर बने गावों में बारी-बारी से लगाते रहतें हैं। पीढ़ियों से चले आ रहे इस क्रम के कारण इन्हे स्थानीय वनस्पति और जीव-जंतुओं की ख़ासी जानकारी हो जाती है। इसी ज्ञान के आधार पर वे कई तरह की व्याधियों के आयुर्वेदिक उपचार के भी जानकार हो जातें हैं, जो उनकी आमदनी का एक और वैकल्पिक ज़रिया हो जाता है।

१९७२ के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के पारित होने के बाद से कालबेलिया साँप पकड़ने के अपने परंपरागत पेशे से वंचित हो गये हैं। वर्तमान में कला प्रदर्शन उनकी आमदनी का प्रमुख साधन हो गया है और उन्हे इसके लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिल रही है। फिर भी इसके प्रदर्शन के अवसर अत्यंत सीमित हैं और समुदाय के सभी सदस्य इसमे शामिल नहीं हो सकते, अतः इनकी आबादी का एक बड़ा भाग खेतों में काम करके और पशुपालन द्वारा आजीविका कमाता है। [३]

कालबेलिया नृत्य

कालबेलिया नृत्य

किसी भी आनंदप्रद अवसर पर किया जाने वाला कालबेलिया नृत्य इस जनजाति की संस्कृति का अभिन्न अंग है। यह नृत्य और इस से जुड़े गीत इनकी जनजाति के लिए अत्यंत गौरव की विषय हैं। यह नृत्य संपेरो की एक प्रजाति द्वारा बदलते हुए सामाजिक-आर्थिक परस्थितियों के प्रति रचनात्मक अनुकूलन का एक शानदार उदाहरण है। यह राजस्थान के ग्रामीण परिवेश में इस जनजाति के स्थान की भी व्याख्या करता है। प्रमुख नर्तक आम तौर पर महिलाएँ होती हैं जो काले घाघरे पहन कर साँप के गतिविधियों की नकल करते हुए नाचती और चक्कर मारती है। शरीर के उपरी भाग में पहने जाने वाला वस्त्र अंगरखा कहलाता है, सिर को ऊपर से ओढनी द्वारा ढँका जाता है और निचले भाग में एक लहंगा पहना जाता है।

यह सभी वस्त्र काले और लाल रंग के संयोजन से बने होते हैं और इन पर इस तरह की कशीदाकारी होती है कि जब नर्तक नृत्य की प्रस्तुति करते हैं तो यह दर्शकों के आँखो के साथ-साथ पूरे परिवेश को एक शांतिदायक अनुभव प्रदान करते हैं।

पुरुष सदस्य इस प्रदर्शन के संगीत पक्ष की ज़िम्मेदारी उठाते हैं। वे नर्तकों के नृत्य प्रदर्शन में सहायता के लिए कई तरह के वाद्य यंत्र जैसे कि पुँगी (फूँक कर बजाया जाने वाला काठ से बना वाद्य यंत्र जिसे परंपरागत रूप से साँप को पकड़ने के लिए बजाया जाता है), डफली, खंजरी, मोरचंग, खुरालिओ और ढोलक आदि की सहायता से धुन तैयार करते हैं। नर्तकों के शरीर पर परंपरागत गोदना बना होता है और वे चाँदी के गहने तथा छोटे-छोटे शीशों और चाँदी के धागों की मीनकारी वाले परिधान पहनती हैं। प्रदर्शन जैसे-जैसे आगे बढ़ता है धुन तेज होती जाती है और साथ ही नर्तकों के नृत्य की थाप भी.[४]

कालबेलिया नृत्य के गीत आम तौर पर लोककथा और पौराणिक कथाओं पर आधारित होते हैं और होली के अवसर पर विशेष नृत्य किया जाता है। कालबेलिया जनजाति प्रदर्शन के दौरान ही स्वतः स्फूर्त रूप से गीतों की रचना और अपने नृत्यों में इन गीतों के अनुसार बदलाव करने के लिए ख्यात हैं। ये गीत और नृत्य मौखिक प्रथा के अनुसार पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं और इनका ना तो कोई लिखित विधान है ना कोई प्रशिक्षण नियमावली। २०१० में यूनेस्को द्वारा कालबेलिया नृत्य को अमूर्त विरासत सूची में शामिल करने की घोषणा की गयी।

सन्दर्भ

  1. साँचा:cite book
  2. साँचा:cite book
  3. नॉमिनेशन फाइल नो. ००३४० फॉर इंस्क्रिप्शन न डी रिप्रेजेन्टेटिव लिस्ट ऑफ़ डी इनटंगईबले कल्चरल हेरिटेज इन २०१०. युनेस्को २०१०
  4. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।

बाहरी कड़ियाँ