कापालिक

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शैव परम्परा के अन्तर्गत कापालिक सम्प्रदाय का स्थान

कापालिक एक तांत्रिक शैव सम्प्रदाय था जो अपुराणीय था। इन्होने भैरव तंत्र तथा कौल तंत्र की रचना की। कापालिक संप्रदाय पाशुपत या शैव संप्रदाय का वह अंग है जिसमें वामाचार अपने चरम रूप में पाया जाता है। कापालिक संप्रदाय के अंतर्गत नकुलीश या लकुशीश को पाशुपत मत का प्रवर्तक माना जाता है। यह कहना कठिन है कि लकुलीश (जिसके हाथ में लकुट हो) ऐतिहासिक व्यक्ति था अथवा काल्पनिक। इनकी मूर्तियाँ लकुट के साथ हैं, इस कारण इन्हें लकुटीश कहते हैं। डॉ॰ रा.गो. भंडारकर के अनुसार पाशुपत संप्रदाय की उत्पत्ति का समय ई.पू. दूसरी शताब्दी है।

परिचय

कापालिक मत में प्रचलित साधनाएँ बहुत कुछ वज्रयानी साधनाओं में गृहीत हैं। यह कहना कठिन है कि कापालिक संप्रदाय का उद्भव मूलत: व्रजयानी परंपराओं से हुआ अथवा शैव या नाथ संप्रदाय से। यक्ष-देव-परंपरा के देवताओं और साधनाओं का सीधा प्रभाव शैव और बौद्ध कापालिकों पर पड़ा क्योंकि तीनों में ही प्राय: कई देवता समान गुण, धर्म और स्वभाव के हैं। 'चर्याचर्यविनिश्चय' की टीका में एक श्लोक आया है जिसमें प्राणी को वज्रधर कहा गया है और जगत् की स्त्रियों को स्त्री-जन-साध्य होने के कारण यह साधना कापालिक कही गई।

पाशुपत संप्रदाय से ही कालमुख और कापालिक शाखाएँ उद्भूत हुईं। कालमुख मुख्य रूप से राजदरबारों और नगरों में सीमित रहा किंतु कापालिक मत दक्षिण और उत्तर भारत में गुह्य साधना के रूप में फैला। कापालिकों के देवता माहेश्वर थे। गोरक्षसिद्धांतसंग्रह के अनुसार श्रीनाथ के दूतों ने जब विष्णु के चौबीस अवतारों के कपाल काट लिए तब वे 'कापालिक' कहलाए। इससे तथा बहुत सी अन्य कथाओं के द्वारा वैष्णव संप्रदाय से कापालिक या शैव संप्रदाय का विरोध लक्षित होता है। वैसे, डॉ॰ भंडारकर के अनुसार, भक्तिवाद का प्रभाव शैवधर्म पर पड़ा; आर्येतर जातियों में शिव जैसे देवता की उपासना प्रचलित थी किंतु बाद में वैदिक देवता इंद्र, रुद्र और आर्येतर स्रोत के देवता एक हो गए। भक्तिवादी उपासना में शिव उदार और भक्तवत्सल चित्रित किए गए। गुह्य साधनाओं में शिव का आदिम रूप न्यूनाधिक रूप में वर्तमान रहा जिसके अनुसार वे विलासी और घोर क्रियाकलापों से संबद्ध थे।

कापालिक और बौद्ध धर्म

बौद्ध संप्रदाय में सहजयान और वज्रयान में भी स्त्रीसाहचर्य की अनिवार्यता स्वीकार की गई है और बौद्ध साधक अपने को 'कपाली' कहते थे (चर्यापद ११, चर्या-गीत-कोश; बागची)। प्राचीन साहित्य (जैसे मालतीमाधव) में कपालकुंडला और अघारेघंट का उल्लेख आया है। इस ग्रंथ से कापालिक मत के संबंध में कुछ स्थूल तथ्य स्थिर किए जा सकते हैं। कापालिक मत नाथ संप्रदायियों और हठयोगियों की तरह चक्र और नाड़ियों में विश्वास करता था। उसमें जीव और शिव में अभिन्नता मानी गई है। योग से ही शिव का साक्षात्कार संभव है। शिव का शक्तिसंयुक्त रूप ही समर्थ और प्रभावकारी है। शिव और शक्ति के इस मिलनसुख को ही कापालिक अपनी कपालिनी के माध्यम से अनुभव करता है जिसे वह महासुख की संज्ञा देता है। सोम को कपालिक (स अ उमा) शक्तिसहित शिव का भी प्रतीक मानता है और उसके पान से उल्लसित हो योगिनी के साथ विहार करते हुए अपने को कैलासस्थित शिवउमा जैसा अनुभव करता है। मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मिथुन - इस पंचमकारों के साथ कापालिकों, शाक्तों और वज्रयानी सिद्धों का समानत: संबंध था और पूर्वमध्यकाल की साधनाओं में इनका महत्वपूर्ण स्थान था।

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