कांगो ज्वर
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कांगो ज्वर (Crimean–Congo hemorrhagic fever (CCHF)) एक विषाणुजनित रोग है। यह विषाणु (वाइरस) पूर्वी एवं पश्चिमी अफ्रीका में बहुत पाया जाता है और ह्यालोमा टिक (Hyalomma tick) से पैदा होता है। यह वायरस सबसे पहले 1944 में क्रीमिया नामक देश में पहचाना गया। फिर 1969 में कांगो में रोग दिखा। तभी इसका नाम सीसीएचएफ पड़ा। फिर 2001 में पाकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका एवं ईरान में भी इसका प्रकोप बढ़ा।
- पशुओं के साथ रहने वालों को खतरा
पशुओं की चमड़ी से चिपके रहने वाला ‘हिमोरल’ नामक परजीवी रोग का वाहक है। इसलिए इसकी चपेट में आने का खतरा उन लोगों को ज्यादा है जो गाय, भैंस, बकरी, भेड़ एवं कुत्ता आदि के संपर्क में रहते हैं। डीएनए नहीं आरएनए पर हमला
डॉक्टर शर्मा बताते हैं कि स्वाइन फ्लू आदि बुखार में विषाणु डीएनए (डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड) पर हमला करते हैं, जिसमें दवाओं के सहारे एंटीबॉडीज को पैदा कर लिया जाता है और बीमारी ठीक हो जाती है। हालांकि, यह हाईलोमा टिक के वायरस आरएनए (राइबोन्यूक्लिक एसिड) पर हमला करने वाले विषाणु हैं। इसको संक्रमण के बाद मरीजों में रोग प्रतिरोधक क्षमता खत्म होने लगती है। दूसरा कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता को देखकर शरीर के भीतर खराब बैक्टीरिया भी प्रहार करने लगते हैं। ऐसे में मरीज विषाणु और जीवाणु दोनों की मार झेलता है। उन्होंने बताया कि खासतौर से अफ्रीका, यूरोप, रूस और पूर्वी एशिया में तीसरे स्टेज का वायरस सक्रिय है।
बचाव के लिए राईबोवेरिन एकमात्र दवा
डॉ नागेंद्र शर्मा ने बताया कि जो जानवर इस विषाणु के कारण मर गया है और यदि उसे मांस भक्षण करने वाले पक्षी खाते हैं तो यह वायरस उनसे होते हुए हमारे घरों तक भी पहुंच सकता है। ऐसे में इस वक्त संदेह वाले इलाकों में राइबोवेरिन दवाएं बचाव के तौर पर खिलाई जाती हैं। इस वक्त यह खिलाई जा रही है। हालांकि, समय रहते यदि इलाज नहीं हुआ तो पूरी तरह मरीज को ठीक नहीं किया जा सकता। मरीज को अकेले रखकर पूरी सुरक्षा के साथ इलाज करना ही अभी इसका उपाय है। मरीज के संपर्क में आने से बचने के लिए पूरी सुरक्षा जरूरी है। वहीं, मृतकों के शवदाह में भी संक्रमण न फैलने पाए इसका पूरा ख्याल रखना पड़ता है।
बाहरी कड़ियाँ
डीएनए नहीं आरएनए पर हमला
डॉक्टर शर्मा बताते हैं कि स्वाइन फ्लू आदि बुखार में विषाणु डीएनए (डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड) पर हमला करते हैं, जिसमें दवाओं के सहारे एंटीबॉडीज को पैदा कर लिया जाता है और बीमारी ठीक हो जाती है। हालांकि, यह हाईलोमा टिक के वायरस आरएनए (राइबोन्यूक्लिक एसिड) पर हमला करने वाले विषाणु हैं। इसको संक्रमण के बाद मरीजों में रोग प्रतिरोधक क्षमता खत्म होने लगती है। दूसरा कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता को देखकर शरीर के भीतर खराब बैक्टीरिया भी प्रहार करने लगते हैं। ऐसे में मरीज विषाणु और जीवाणु दोनों की मार झेलता है। उन्होंने बताया कि खासतौर से अफ्रीका, यूरोप, रूस और पूर्वी एशिया में तीसरे स्टेज का वायरस सक्रिय है।
बचाव के लिए राईबोवेरिन एकमात्र दवा
डॉ नागेंद्र शर्मा ने बताया कि जो जानवर इस विषाणु के कारण मर गया है और यदि उसे मांस भक्षण करने वाले पक्षी खाते हैं तो यह वायरस उनसे होते हुए हमारे घरों तक भी पहुंच सकता है। ऐसे में इस वक्त संदेह वाले इलाकों में राइबोवेरिन दवाएं बचाव के तौर पर खिलाई जाती हैं। इस वक्त यह खिलाई जा रही है। हालांकि, समय रहते यदि इलाज नहीं हुआ तो पूरी तरह मरीज को ठीक नहीं किया जा सकता। मरीज को अकेले रखकर पूरी सुरक्षा के साथ इलाज करना ही अभी इसका उपाय है। मरीज के संपर्क में आने से बचने के लिए पूरी सुरक्षा जरूरी है। वहीं, मृतकों के शवदाह में भी संक्रमण न फैलने पाए इसका पूरा ख्याल रखना पड़ता है।