करुणाभरण नाटक

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करुणाभरण नाटक ब्रजभाषा का अत्यंत महत्वपूर्ण काव्यनाटक है। इसके रचयिता लछिराम हैं। कृष्णजीवन से संबंधित यह नाटक दोहा, चौपाई छंदों में लिखा गया है और विभिन्न अंगों में विभाजित है। अंगों का नामकरण राधा अवस्था, राधा मिलन आदि शीर्षकों में किया गया है। इसमें कृष्ण का, सूर्यग्रहण के अवसर पर, रुक्मिणी, सत्यभामा आदि के साथ कुरुक्षेत्र आना और वहीं नंद, यशोदा, राधा, गोपियों तथा गोपसमूह से उनका मिलन वर्णित है। करुणभरण का कथानक अत्यंत प्रौढ़ एवं नाट्यधर्मी है। पात्रों को मनोवैज्ञानिक भूमि पर प्रस्तुत किया गया है और उनका अंतर्द्वंद भी उभरकर सामने आता है। नाटक में मानसिक संघर्ष की अधिकता है। सत्यभामा की ईर्ष्या को केंद्रबिदु बनाकर कथानक का ताना बाना बुना गया है। भाषा सीधी सादी, सरस तथा सहज प्रवाहपूर्ण है। संवाद चुटीले हैं तथा वर्णन भी उबाऊ नहीं हैं।

करुणाभरण नाटक के रचनाकाल को लेकर काफी मतभेद है। बाबू ब्रजरत्नदास (हिंदी नाट्य साहित्य, च.सं. पृ. 60) तथा डॉ॰ दशरथ ओझा[१] इसका प्रणयनकाल 1772 वि. (1715 ई.) मानते हैं जिसका आधार सरस्वती भवन, उदयपुरवाली सं. 1772 वि. की हस्तलिखित प्रति है किंतु याज्ञिक संग्रह के एक हस्तलेख[२] में इसका लिपिकाल 1751 वि. (1694 ई.) मिलता है। साथ ही, उक्त नाटक के सातवें अंक में उल्लेख है कि लछिराम ने इस नाटक को बनाकर संन्यासी कवींद्र सरस्वती को दिखाया। कवींद्र सरस्वती ने 'योगवाष्ठिसार' की रचना 1657 ई. में की थी। अत: करुणाभरण नाटक का निर्माणकाल 1657 ई. के लगभग माना जा सकता है।

करुणाभरण में सात अंक हैं किंतु इसके जितने भी हस्तलेख मिले हैं उनमें से अधिकांश में छह अंक ही हैं। सातवाँ अंक अलग से मिलता है। छठे अंक के अंत में रचनाकार ने सूचना दी है कि उसने 300 छंदों (छंद तीन से करे रसाला) में उक्त ग्रंथ की रचना की है और गणना करने पर छठे अंक के अंत तक 300 छंद ही मिलते हैं। सातवें अंक में 35 छंद हैं। इस प्रकार सातवें अंक में छंदों की सम्मिलित करने पर छंदसंख्या 335 हो जाती है। इसके अतिरिक्त छठे अंक के अंत तक नाटक दु:खांत है और नाटक के 'करुणाभरण' नामकरण से ही यही प्रतीत होता है कि कवि ने मूलत: दु:खांत नाटक लिखा था। हो सकता है, दु:खांत होने पर करूणाभरण नाटक की तीव्र आलोचना हुई हो या फिर कवींद्र सरस्वती ने ही नाटक को दु:खांत के बजाय सुखांत बनाने का निर्देश दिया हो और उन्हीं के परामर्श के अनुसार कवि ने 35 छंदों का सातवाँ अंक जोड़ दिया हो। सातवें अंक के अंत में पुष्पिका है - 'इति श्री करुणा नाटक देवीदास कृत संपूर्ण।' इसी अंक के अंत में एक दूसरे हस्तलेख में की पुष्पिका में 'देवदत्त गुरु' नाम मिलता है[३]। देवीदास और देवदत्त गुरु एक ही व्यक्ति के नाम हो सकते हैं। ये लछिराम के गुरु रहे होंगे और उन्हीं के कहने से नाटक को सुखांत बनाने के लिए सातवें अंक की रचना की गई होगी।

करुणाभरण नाटक यद्यपि काव्यनाटक है और आलोचक प्रबंधशैली पर लिखे ब्रजभाषा काव्य नाटकों को नाटक नहीं मानते, तो भी इस नाटक का मंचन हुआ था, इस बात के प्रमाण मिल जाते हैं। कवि स्वयं कहता है :

लछिराम नाटक कियो, दीनों गुनिन पढ़ाय।

भेष-रेष-निर्तन निपुन लाए नट निस धाय।।

सुहृद मंडली जोरि तहाँ कीनों बड़ों समाज।

जो उनि नाच्यो सो कह्यो कविता में सुख साज।।

कवि के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट हो जाता है कि नाटक का मंचन हुआ था और रात्रि के समय हुआ था। एक साक्ष्य और भी है। इस नाटक के पहाड़ी शैली के 17 चित्र मिलते हैं (कलानिधि पत्रिका, संपादक, राय कृष्णदास, श्रावण, 2005 अंक में श्री गोपालकृष्ण का 'करुणाभरण नाटक और उसकी चित्रावली' शीर्षक लेख)। लगता है, उक्त चित्र या तो नाटक के चित्राभिनय के लिए बनाए गए थे अथवा नाटकीय दृश्यों की आयोजना के लिए। साथ ही उक्त नाटक का एक अन्य नाम 'कुरुक्षेत्रलीला' भी मिलता है- 'अथ कुरक्षेत्र लीला लीषते'। इससे सिद्ध होता है कि मंचन हेतु जननाट्य से संबंधित रासलीला शैली में इसका प्रणयन किया गया था।

सन्दर्भ

  1. (डॉ॰ दशरथ ओझा; हिंदी नाटक: उद्भव और विकास, प्र.सं., पृ. 161)
  2. (याज्ञिक संग्रह, 812। 36, आर्यभाषा पुस्तकालय, ना.प्र. सभा, काशी)
  3. (हस्तलेख 571। 20, आर्यभाषा पुस्तकालय, ना.प्र. सभा, काशी)