कांधार

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The final phase of the battle of Kandahar on the side of the Murghan mountain

कांधार या कंदहार अफ़ग़ानिस्तान का एक शहर है।[१] यह अफगानिस्तान का तीसरा प्रमुख ऐतिहासिक नगर एवं कंदहार प्रान्त की राजधानी भी है। इसकी स्थिति 31 डिग्री 27मि उ.अ. से 64 डिग्री 43मि पू.दे. पर, काबुल से लगभग 280 मील दक्षिण-पश्चिम और 3,462 फुट की ऊँचाई पर है। यह नगर टरनाक एवं अर्ग़ंदाब नदियों के उपजाऊ मैदान के मध्य में स्थित है जहाँ नहरों द्वारा सिंचाई होती है, परंतु इसके उत्तर का भाग उजाड़ है। समीप के नए ढंग से सिंचित मैदानों में फल, गेहूँ, जौ, दालें, मजीठ, हींग, तंबाकू आदि लगाई जाती हैं। कंदहार से नए चमन तक रेलमार्ग है और वहाँ तक पाकिस्तान की रेल जाती है। प्राचीन कंदहार नगर तीन मील में बसा है जिसके चारों तरफ 24 फुट चौड़ी, 10 फुट गहरी खाई एवं 27 फुट ऊँची दीवार है। इस शहर के छह दरवाजे हैं जिनमें से दो पूरब, दो पश्चिम, एक उत्तर तथा एक दक्षिण में है। मुख्य सड़कें 40 फुट से अधिक चौड़ी हैं। कंदहार चार स्पष्ट भागों में विभक्त है जिनमें अलग-अलग जाति (कबीले) के लोग रहते हैं। इनमें चार-दुर्रानी, घिलज़ाई, पार्सिवन और काकार-प्रसिद्ध हैं।

यहाँ वर्षा केवल जाड़े में बहुत कम मात्रा में होती है। गर्मी अधिक पड़ती है। यह स्थान फलों के लिए प्रसिद्ध है। अफगानिस्तान का यह एक प्रधान व्यापारिक केंद्र है। यहाँ से भारत को फल निर्यात होते हैं। यहाँ के धनी व्यापारी हिंदू हैं। नगर में लगभग 200 मस्जिदें हैं। दर्शनीय स्थल हैं अहमदशाह का मकबरा और एक मस्जिद जिसमें मुहम्मद साहब का कुर्ता रखा है।

इतिहास

कंधार का इतिहास उथल-पुथल से भरा हुआ है। पाँचवीं शताब्दी ई. पू. में यह फ़ारस के साम्राज्य का भाग था। लगभग 326 ई. पू. में मकदूनिया के राजा सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण करते समय इसे जीता और उसके मरने पर यह उसके सेनापति सेल्यूकस के अधिकार में आया। कुछ वर्ष के बाद सेल्यूकस ने इसे चन्द्रगुप्त मौर्य को सौंप दिया। यह अशोक के साम्राज्य का एक भाग था। उसका एक शिलालेख हाल में इस नगर के निकट से मिला है। मौर्य वंश के पतन पर यह बैक्ट्रिया, पार्थिया, कुषाण तथा शक राजाओं के अंतर्गत रहा। दशवी शताब्दी में यह अफ़ग़ानों के क़ब्ज़े में आ गया और मुस्लिम राज्य बन गया। ग्यारहवीं शताब्दी में सुल्तान महमूद, तेरहवीं शताब्दी में चंगेज़ ख़ाँ तथा चौदहवीं शताब्दी में तैमूर ने इस पर अधिकार कर लिया।

1507 ई. में इसे बाबर ने जीत लिया और 1625 ई. तक दिल्ली के मुग़ल बादशाह के क़ब्ज़े में रहा। 1625 ई. में फ़ारस के शाह अब्बास ने इस पर दख़ल कर लिया। शाहजहाँ और औरंगज़ेब द्वारा इस पर दुबारा अधिकार करने के सारे प्रयास विफल हुए। कंधार थोड़े समय (1708-37 ई.) को छोड़कर 1747 ई. में नादिरशाह की मृत्यु के समय तक फ़ारस के क़ब्ज़े में रहा। 1747 ई. में अहमदशाह अब्दाली ने अफ़ग़ानिस्तान के साथ इस पर भी अधिकार कर लिया। किन्तु उसके पौत्र जमानशाह की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए कंधार काबुल से अलग हो गया। 1839 ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार ने शाहशुजा की ओर से युद्ध करते हुए इस पर दख़ल कर लिया और 1842 ई. तक अपने क़ब्ज़े में रखा। ब्रिटिश सेना ने 1879 ई. में इस पर फिर से दख़ल कर लिया, किन्तु 1881 ई. में ख़ाली कर देना पड़ा। तब से यह अफ़ग़ानिस्तान राज्य का एक भाग है।

कंदहार प्रदेश

अफगानिस्तान का एक प्रांत है। इसके उत्तर में ताइमानी तथा काबुल, पूर्व तथा दक्षिण में बलूचिस्तान और पश्चिम में फराह है। यदि काबुल से फराह तक एक सीधी रेखा मिला दी जाए तो यह प्रदेश दो स्पष्ट भागों में विभक्त हो जाता है। इस रेखा के उत्तर का भाग पहाड़ी है। धरातलीय ऊँचाई 4,000 फुट से 10,000 फुट तक है। दक्षिणी भाग नीचा है। अफगानिस्तान का एकमात्र मैदान हरौत, फराह एवं हेलमंद नदी द्वारा निर्मित है। कंदहार नगर के दक्षिण तथा पश्चिम में क्रमश: रेगिस्तान एवं अफगान-सीस्तान की मरुभूमि है। हेलमंद रेगिस्तानी नदी है जो उत्तर के ऊँचे पहाड़ों से निकलकर सीस्तान की मरुभूमि में समाप्त हो जाती है। प्राचीन काल में काबुल के नीचे के देश एवं कंदहार को गांधार देश कहते थे। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी यहीं की थीं। यह सम्राट अशोक के सीमांत राज्यों में था। 11वीं सदी में महमूद गज़नवी ने कंदहार को अफगानों से छीन लिया था और 200 वर्षों तक उसके वंशजों का यहाँ साम्राज्य रहा। तदनंतर यह चंगेख खाँ, तैमूर लंग, बाबर और उसके परवर्ती मुगल सम्राटों (1625 ई. तक), ईरान के शाह अब्बास प्रथम, नादिर शाह, अहमदशाह दुर्रानी तथा अंग्रेजी साम्राज्य का अंग बना रहा। सन् 1747 ई. में अहमदशाह दुर्रानी ने अफगान साम्राज्य की नींव रखी और आधुनिक स्थल पर कंदहार नगर की, राजधानी के रूप में, स्थापना की।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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