ऑस्ट्रिया का इतिहास

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ऑस्ट्रिया के इतिहास का वर्णन करते समय यूरोप के कई देशों का इतिहास सामने आ जाता है। मुख्य रूप से जिनका इस सम्बन्ध में पूर्ण वर्णन होता है वे हैं इटली, चेकोस्लोवाकिया, पोलैंड, हंगरी, रोमानिया, युगोस्लाविया और रूस आदि। कारण इसका यह है कि हैब्सबर्ग जैसे महान परिवार ने एक लंबे अरसे तक इनपर राज्य किया है।

ऑस्ट्रिया देश इतिहास के प्रारम्भकाल से ही मनुष्यों द्वारा आबाद रहा है। इसकी प्राचीन सभ्यता के चिह्न हालटाल में पाए जाते हैं। ईसा से 400 वर्ष पूर्व ऑस्ट्रिया देश में कबीलों की बस्ती रही। इन कबीलों ने बोहिमिया, हंगरी और आल्प्स की पहाड़ियों पर अपना अधिकार जमा लिया। पहली शताब्दी में रोमनों ने आल्प्स की पहाड़ी पार की और इसको अपने पैरों तले रौंद डाला।

487 ई. में हूणों ने उसपर आक्रमण किया, इसके पश्चात् स्लाव तथा जर्मन कबीलों ने अधिकार जमाया। शार्लमान ने इसको फिर अपने राज्य में सम्मिलित किया। यह काल 811 ई. का था। इस प्रकार यह एक शताब्दी तक जर्मन राज्य में रहा। 976 ई. में यहां बैबिनबर्ग परिवार का प्रभाव बढ़ा। यहीं से ऑस्ट्रिया का राजनीतिक इतिहास जन्म लेता है। इस परिवार का राज्यकाल 1246 तक रहा और छठे ल्यूपोल्ड के पुत्र द्वितीय फ्रेडरिक की मृत्यु के पश्चात् इस परिवार का अंत हो गया।

1273 से ऑस्ट्रिया देश पर हैब्सबर्ग परिवार का प्रभाव पड़ा जो 1918 तक बना रहा। इस बड़े अर्से में यह भिन्न-भिन्न रूप धारण करता रहा, जिसके कारण इसका इतिहास बड़ा ही वैचित्र्यपूर्ण एवं रोमांटिक हो गया है। ऑस्ट्रिया की महत्ता एक इसी बात से जानी जा सकती है कि जिस समय ऑस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या हुई उस समय यूरोप में तहलका मच गया और इसी कारण प्रथम महायुद्ध की नींव पड़ी।

राजगद्दी के लिए लड़ाई

1740 ई. में छठे चार्ल्स का देहांत हो गया। प्रशा के फ्रेडरिक ने अवसर पाकर उसके उत्तरीय भाग पर आक्रमण कर दिया। चार्ल्स की इस बात से सबकी आंखें खुल गईं। फ्रांस ने यह देखा तो प्रशा के साथ मिल गया। ब्रिटेन ने मेरिया थेरेसा की सहायता करने का वायदा कर लिया। इधर प्रशा और फ्रांस ने चार्ल्स के खूब कान भरे।

अंत में वही परिणाम हुआ और लड़ाई छिड़ गई। मेरिया थेरेसा के सैनिकों ने बड़ी वीरता दिखाई, मगर साइलेशिया में उनको मुंह की खानी पड़ी। हंगरी की भी सहायता उन्हें समय पर मिल गई, जिसके कारण वे ऑस्ट्रिया की ओर से लड़े। फ्रांसीसियों ने बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाई।

ऑस्ट्रिया और फ्रांस की शत्रुता यूरोप भर में प्रसिद्ध रही। फिर भी यह शत्रुता समय की कठिनाई देखकर मित्रता में बदल गई। इधर फ्रांस और ऑस्ट्रिया एक हुए और उधर ब्रिटेन और प्रशा के राजा फ्रेडरिक एक हो गए। इस प्रकार अलग-अलग दल पैदा हो गए। बड़ी-बड़ी शक्तियोंवाले इस बागी दल ने यूरोप भर में हलचल मचा दी। इसने फिर एक संकट और संघर्ष का रूप धारण कर लिया जिसने यूरोप में 30 वर्षीय युद्ध को जन्म दिया।

ऑस्ट्रिया और पुरुषा

ऑस्ट्रिया और पुरषा का संयुक्त मोर्चा भी यूरोप के इतिहास में बड़ी महत्ता रखता है। इसने मिलकर फ्रांस पर आक्रमण किया। इनकी सेना की बागडोर ड्यूक आव ब्रंज़विक के हाथों में थी। फ्रांस ने मार खाई और सरहदी इलाके इनके कब्जे में आ गए, मगर विशेष रूप से कोई सफलता नहीं हुई। अभी वे आरगोंस की पहाड़ियों के करीब ही थे कि ड्यूक मोरीज़ जिस सेना का नायकत्व कर रहे थे उससे वाल्मी के स्थान पर लड़ाई हुई। इस बीच ब्रंज़विक की सेना बीमार पड़ गई, उसने सुलह की बातचीत की और जर्मनी की सरहद से गुजरकर राइन पार कर ली। इस लड़ाई का कोई विशेष परिणाम नहीं हुआ, फिर भी नैपोलियन के लिए उसने रास्ते खोल दिए।

ऑस्ट्रिया और फ्रांस

धीरे-धीरे ऐसा मालूम हुआ कि फ्रांस के विरोध में जो संयुक्त मोर्चा बना है, वह टूट गया। 1794 ई. की फ्रांसीसी सफलता ने पुरुषा की आंखें खोल दीं और 1775 में बैसेल की संधि हुई जिसमें पुरुषा की शक्ति उत्तरीय जर्मनी में मान ली गई। स्पेन भी अलग हो गया और अब केवल ब्रिटेन और ऑस्ट्रिया रह गए। अब फ्रांसीसियों ने अपनी सारी शक्ति ऑस्ट्रिया की ओर लगा दी।

एक सेना वियना की ओर दानूब होती हुई बढ़ी और दूसरी ऑस्ट्रिया के इटलीवाले हिस्से की तरफ चली। नैपोलियन ने अपनी सारी शक्ति खर्च कर दी। उसने सारदीनिया के राजा को मजबूर कर दिया कि वह ऑस्ट्रिया के दल से निकल आए। उसके पश्चात् उसने मिलान पर कब्जा कर लिया। इटली के लोगों ने उसका अभिनंदन किया और ऑस्ट्रिया राज्य विरोधी हो गए। इसके पश्चात् नैपोलियन ने मैंटुआ नगर पर भी कब्जा कर लिया जहां ऑस्ट्रिया का दुर्ग था। पांच भिन्न-भिन्न सेनाएं दुर्ग को बचाने के लिए भेजी गईं, परंतु सबकी हार हुई। इस महीने फ्रांसीसियों का अधिकार मैंटुआ पर भी हो गया। लेकिन नैपोलियन ने अपनी स्थिति सुरक्षित न देखकर एक संधि की जो अक्टूबर, 1787 के ट्रीट्री ऑव कैंप फारमिस के नाम से विख्यात है। इसमें ऑस्ट्रिया को वीनिस का राज्य दे दिया गया। फिर भी यह मित्रता बहुत दिनों तक न चली क्योंकि आस्ट्रियन और उनके साथी इटली के उत्तरी भाग पर अपना कब्जा किए हुए थे। नैपोलियन ने 1796 में इटली पर आक्रमण करने की सोची जिसमें जेनरल मोरिए दानूब की ओर से ऑस्ट्रिया पर आक्रमण करनेवाला था। अंत में नैपोलियन विजयी हुआ। उसने मिलान पर अधिकार जमा लिया और जेनोवा की ओर बढ़ा। जून में मेरेज नामक स्थान पर लड़ाई छिड़ी। यह देखकर ऑस्ट्रिया ने संधि का संदेश भेजा। फरवरी, 1801 में ल्यूनेवाइक की संधि हुई और उसकी शर्त के अनुसर ऑस्ट्रिया अपने इटलीवाले इलाकों से हाथ धो बैठा।

इसके पश्चात् 2 दिसम्बर 1805 को नैपोलियन ने फिर आस्ट्रेलिट्ज़ की लड़ाई में ऑस्ट्रिया को हराया और वियना उसके अधिकार में आ गया। ऑस्ट्रिया दिसंबर, 1905 में प्रेसबर्ग की संधि करने पर विवश हो गया। इस प्रकार ऑस्ट्रिया की लगातार हार से पवित्र रोम साम्राज्य का भी अंत हो गया जो ओटो के काल, अर्थात, 10वीं शताब्दी से चला आ रहा था। इसके बाद सारदीनिया के राजा चार्ल्स अल्बर्ट की लड़ाई आस्ट्रियन जेनेरल रोदेज़की से हुई। अंत में वह हार गया। जुलाई 1818 में उसकी हार कस्टोजा नामक स्थान पर हुई। इसीलिए ऑस्ट्रिया को अपने इटली के इलाके वापस मिल गए।

ऑस्ट्रिया और हंगरी

ऑस्ट्रिया और हंगरी की समस्या भी बड़ी महत्ता रखती है। इन दोनों के बीच यह बात हमेशा रही कि दोनों के बीच मतदान किस प्रकार हो। बहुत सोचने के बाद 1907 में एक बिल पास हुआ जिससे ऑस्ट्रिया के रहनेवालों का, जिनकी आयु 24 वर्ष से अधिक थी, मताधिकार दिया गया। फलस्वरूप जर्मनों को अधिक सीटें मिलीं और चेक बहुत थोड़ी संख्या में आए। इसीलिए चेकों को बोहीमिया में और पोलों को गैलोसिया में यह अधिकार दिया गया। परंतु राष्ट्रीय समस्या अपने स्थान पर न रही। हंगरी की यही इच्छा थी कि मगयार राष्ट्र की महत्ता छोटी कौम पर बनी रहे, परंतु यह भी न हो पाया।

ऑस्ट्रिया और तुर्की

ऑस्ट्रिया का संबंध तुर्क राष्ट्र के साथ भी रहा है। राजनीतिज्ञों की दृष्टि से बलकान की बड़ी महत्ता है। रूस और ऑस्ट्रिया इसके पड़ोसी होने के नाते इसमें दिलचस्पी रखते थे और ब्रिटेन अपने व्यापार के कारण रूम के महासागर में दिलचस्पी रखता था। ये देश आपस में मिले और 1877 में रूस ने तुक╘ को चेतावनी दे दी। अंत में लड़ाई हुई और तुर्की अपनी वीरता के बावजूद हार गया। फलस्वरूप सैंटिफनों की संधि हुई और रोमानिया, मांटीनीग्रो तथा सर्विया स्वतंत्र देश हो गए और बास्नियां, हर्जीगाविना आदि ऑस्ट्रिया के अधीन हो गए।

प्रथम महायुद्ध की नींव ऑस्ट्रिया ने ही डाली। 28 जून 1914 को ऑस्ट्रिया की राजगद्दी पर बैठनेवाला राजकुमार सेराजेवो में मार डाला गया। रूस स्लोवानिक देशों का बलकान में निरीक्षक था। इसीलिए वह ऑस्ट्रिया को रोकने के लिए तैयार बैठा था। जर्मनी ऑस्ट्रिया की सहायता करने लगा। फ्रांस रूस से मुलाहिजे में बंधा था, इसीलिए अलग भी नहीं हो सकता था। यही कारण प्रथम महान युद्ध का बना।

ऑस्ट्रिया और इटली

ऑस्ट्रिया का इतिहास इटली के इतिहास से भी संबंधित है। 1916 का काल इटली के इतिहास में उसकी हार जीत की कहानी है। ऑस्ट्रिया ने पहले इटलीवालों को ट्रेनटीनें तक ढकेल दिया, परंतु बाद में स्वयं ही पीछे हट गए। इसी वर्ष अगस्त में जेनरल कोडर्ना ने बैनिसेज़ के एक भाग पर अधिकार जमा लिया और बहुत से लोगों को बंदी बना लिया। परंतु इनका नुकसान अधिक हुआ। ऑस्ट्रिया ने यह कमजोरी देखते हुए जनरल कोडर्ना पर सेपारेट नामक स्थान पर हमला किया। इटली की हार हुई। ऑस्ट्रिया ने लड़ाई में 2,50,000 आदमी बंदी बनाए और वेनिस तक चढ़ आया। ब्रिटेन और फ्रांस की समय पर सहायता पहुँच जाने से वेनिस हाथ से नहीं जाने पाया।

ऑस्ट्रिया का पतन

1866 से जर्मनी की जो महत्ता बनी चली आ रही थी, उसका पतन हो गया। जो नई सरकार बनी उसने 11 नवम्बर 1918 को सुलह के पैगाम भेजे। ऑस्ट्रिया की शक्ति उस समय तक खत्म हो गई थी। इटली अब फिर विजयी हो चुका था। अक्टूबर में जेनरल डेज़ ने इस पर आक्रमण किया और आस्ट्रियन भाग खड़े हुए। हजारों की संख्या में बंदी इटली के हाथ पड़े। इस प्रकार इनका पतन हो गया।

ऑस्ट्रिया के महान राष्ट्र का अंत

1918 के बाद इस बड़े राज्य का बिलकुल ही अंत हो गया। इतना बड़ा राज्य संसार के नक्शे पर देखते-देखते उड़ गया। हैप्सबर्ग परिवार, जो ऑस्ट्रिया, हंगरी, यूगोस्लाविया, रोमानिया, पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया जैसे बड़े राज्यों पर हुकूमत करता चला आ रहा था, समाप्त हो गया।

जर्मन ऑस्ट्रिया तथा प्रथम रिपब्लिक (1918–1934)

ऑस्ट्रियायी फासीवाद (Austrofascism 1934–1938)

नाजी जर्मनी के भाग के रूप में (1938–1945)

द्वितीय रिपब्लिक (1945 के पश्चात्)

बाहरी कड़ियाँ