एस.आर. बोम्मई बनाम भारत गणराज्य

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एस.आर. बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1994 AIR 1918 SC: (1994) SCC1 3) के ऐतिहासिक फैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 356 और इससे जुड़े विभिन्न प्रावधानों पर विस्तार से चर्चा की थी। अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को इस फैसले के द्वारा रोक दिया गया। इस मामले के कारण केन्द्र-राज्य संबंधों पर भारी प्रभाव पड़ा।

मामला

सितम्बर 1988 में कर्नाटक में जनता पार्टी और लोक दल पार्टी ने मिलकर एक नई पार्टी जनता दल बनाकर सरकार बनाने का दावा किया था। जनता दल एसआर बोम्मई के नेतृत्व में राज्य की बहुमत वाली पार्टी बनी थी। मंत्रालय में 13 सदस्यों को रखा गया। लेकिन इसके दो दिन बाद ही जनता दल विधायक के आर मोलाकेरी ने राज्यपाल के समक्ष एक पत्र पेश किया जिसमें उन्होंने बोम्मई के खिलाफ अर्जी दी थी। उन्होंने अपने पत्र के साथ 19 अन्य विधायकों की सहमती पत्र भी जारी किया था।

इसके बाद राज्यपाल पी वेंकटसुबैया ने राष्ट्रपति को एक रिपोर्ट भेजी जिसमें कहा गया था कि सत्ताधारी पार्टी के कई विधायक उनसे खफा हैं। राज्यपाल ने आगे लिखा था कि विधायकों द्वारा समर्थन वापस लेने के के बाद मुख्यमंत्री बोम्मई के पास बहुमत नहीं बचता है जिससे उन्हें सरकार बनाने नहीं दिया जा सकता। यह संविधान के खिलाफ था और उन्होंने राष्ट्रपति से भी सिफारिश की थी कि वह उन्हें अनुच्छेद 356 (1) के तहत शक्ति का प्रयोग करें। राज्यपाल की इस रिपोर्ट के आधार पर केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति से घोषणा करवा कर बोम्मई की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया।

हालांकि कुछ दिन बाद ही उन्नीस विधायक जिनके हस्ताक्षर के बल पर असंतोष प्रस्ताव पेश किया गया था, उन्होंने यह दावा किया कि पहले पत्र में उनके हस्ताक्षर जाली थे और उन्होंने फिर से अपने गठबंधन को समर्थन देने की पुष्टि की। इसके बाद मामले को लेकर कोर्ट में याचिका दाखिल की गई।

इस मुकदमे के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य की सरकारों को बर्खास्त करने संबंधी अनुच्छेद की व्याख्या की और कहा कि अनुच्छेद 356 के तहत यदि केन्द्र सरकार राज्य में चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करती है तो सर्वोच्च न्यायालय सरकार बर्खास्त करने के कारणों की समीक्षा कर सकता है और न्यायालय केंद्र से उस सामग्री को कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए कह सकता जिसके आधार पर राज्य की सरकार को बर्खास्त किया गया है।

इस निर्णय में राज्यपालों को यह हिदायत भी दी गईं की 'किसी भी राज्य सरकार को बहुमत हैं या नहीं हैं,इसका निर्णय राजभवन में नहीं होना चाहिए इसका निर्णय विधानसभा में होना चाहिए'