एडम स्मिथ

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
अर्थशास्त्री एडम स्मिथ

स्क्रिप्ट त्रुटि: "sidebar" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।

एडम स्मिथ (5 जून 1723 से 17 जुलाई 1790) एक ब्रिटिश नीतिवेत्ता, दार्शनिक और राजनैतिक अर्थशास्त्री थे। उन्हें अर्थशास्त्र का पितामह भी कहा जाता है।आधुनिक अर्थशास्त्र के निर्माताओं में एडम स्मिथ (जून 5, 1723—जुलाई 17, 1790) का नाम सबसे पहले आता है. उनकी पुस्तक ‘राष्ट्रों की संपदा(The Wealth of Nations) ने अठारहवीं शताब्दी के इतिहासकारों एवं अर्थशास्त्रियों को बेहद प्रभावित किया है. कार्ल मार्क्स से लेकर डेविड रिकार्डो तक अनेक ख्यातिलब्ध अर्थशास्त्री, समाजविज्ञानी और राजनेता एडम स्मिथ से प्रेरणा लेते रहे हैं. बीसवीं शताब्दी के अर्थशास्त्रियों में, जिन्होंने एडम स्मिथ के विचारों से प्रेरणा ली है, उनमें मार्क्स, एंगेल्स, माल्थस, मिल, केंस(Keynes) तथा फ्राइडमेन(Friedman) के नाम उल्लेखनीय हैं. स्वयं एडम स्मिथ पर अरस्तु, जा॓न ला॓क, हा॓ब्स, मेंडविले, फ्रांसिस हचसन, ह्यूम आदि विद्वानों का प्रभाव था. स्मिथ ने अर्थशास्त्र, राजनीति दर्शन तथा नीतिशास्त्र के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया. किंतु उसको विशेष मान्यता अर्थशास्त्र के क्षेत्र में ही मिली. आधुनिक बाजारवाद को भी एडम स्मिथ के विचारों को मिली मान्यता के रूप में देखा जा सकता है. एडम स्मिथ के जन्म की तिथि सुनिश्चित नहीं है. कुछ विद्वान उसका जन्म पांच जून 1723 को तथा कुछ उसी वर्ष की 16 जून को मानते हैं. जो हो उसका जन्म ब्रिटेन के एक गांव किर्काल्दी(Kirkaldy, Fife, United Kingdom) में हुआ था. एडम के पिता कस्टम विभाग में इंचार्ज रह चुके थे. किंतु उनका निधन स्मिथ के जन्म से लगभग छह महीने पहले ही हो चुका था. एडम अपने माता–पिता की संभवतः अकेली संतान था. वह अभी केवल चार ही वर्ष का था कि आघात का सामना करना पड़ा. जिप्सियों के एक संगठन द्वारा एडम का अपहरण कर लिया गया. उस समय उसके चाचा ने उसकी मां की सहायता की. फलस्वरूप एडम को सुरक्षित प्राप्त कर लिया गया. पिता की मृत्यु के पश्चात स्मिथ को उसकी मां ने ग्लासगो विश्वविद्यालय में पढ़ने भेज दिया. उस समय स्मिथ की अवस्था केवल चौदह वर्ष थी. प्रखर बुद्धि होने के कारण उसने स्कूल स्तर की पढ़ाई अच्छे अंकों के साथ पूरी की, जिससे उसको छात्रवृत्ति मिलने लगी. जिससे आगे के अध्ययन के लिए आ॓क्सफोर्ड विश्वविद्यालय जाने का रास्ता खुल गया. वहां उसने प्राचीन यूरोपीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया. उस समय तक यह तय नहीं हो पाया था कि भाषा विज्ञान का वह विद्यार्थी आगे चलकर अर्थशास्त्र के क्षेत्र में न केवल नाम कमाएगा, बल्कि अपनी मौलिक स्थापनाओं के दम पर वैश्विक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में युगपरिवर्तनकारी योगदान भी देगा. सन 1738 में स्मिथ ने सुप्रसिद्ध विद्वान–दार्शनिक फ्रांसिस हचीसन के नेतृत्व में नैतिक दर्शनशास्त्र में स्नातक की परीक्षा पास की. वह फ्रांसिस की मेधा से अत्यंत प्रभावित था तथा उसको एवं उसके अध्यापन में बिताए गए दिनों को, अविस्मरणीय मानता था. अत्यंत मेधावी होने के कारण स्मिथ की प्रतिभा का॓लेज स्तर से ही पहचानी जाने लगी थी. इसलिए अध्ययन पूरा करने के पश्चात युवा स्मिथ जब वापस अपने पैत्रिक नगर ब्रिटेन पहुंचा, तब तक वह अनेक महत्त्वपूर्ण लेक्चर दे चुका था, जिससे उसकी ख्याति फैलने लगी थी. वहीं रहते हुए 1740 में उसने डेविड ह्यूम की चर्चित कृति A Treatise of Human Nature का अध्ययन किया, जिससे वह अत्यंत प्रभावित हुआ. डेविड ह्यूम उसके आदर्श व्यक्तियों में से था. दोनों में गहरी दोस्ती थी. स्वयं ह्यूम रूसो की प्रतिभा से बेहद प्रभावित थे. दोनों की दोस्ती के पीछे एक घटना का उल्लेख मिलता है. जिसके अनुसार ह्यूम ने एक बार रूसो की निजी डायरी उठाकर देखी तो उसमें धर्म, समाज, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि को लेकर गंभीर टिप्पणियां की गई थीं. उस घटना के बाद दोनों में गहरी मित्रता हो गई. ह्यूम एडम स्मिथ से लगभग दस वर्ष बड़ा था. डेविड् हयूम के अतिरिक्त एडम स्मिथ के प्रमुख दोस्तों में जा॓न होम, ह्यूज ब्लेयर, लार्ड हैलिस, तथा प्रंसिपल राबर्टसन आदि के नाम नाम उल्लेखनीय हैं.अपनी मेहनत एवं प्रतिभा का पहला प्रसाद उसको जल्दी मिल गया. सन 1751 में स्मिथ को ग्लासगा॓ विश्वविद्यालय में तर्कशास्त्र के प्रवक्ता के पद पर नौकरी मिल गई. उससे अगले ही वर्ष उसको नैतिक दर्शनशास्त्र का विभागाध्यक्ष बना दिया गया. स्मिथ का लेखन और अध्यापन का कार्य सतत रूप से चल रहा था. सन 1759 में उसने अपनी पुस्तक ‘नैतिक अनुभूतियों का सिद्धांत’ (Theory of Moral Sentiments) पूरी की. यह पुस्तक अपने प्रकाशन के साथ ही चर्चा का विषय बन गई. उसके अंग्रेजी के अलावा जर्मनी और फ्रांसिसी संस्करण हाथों–हाथ बिकने लगे. पुस्तक व्यक्ति और समाज के अंतःसंबंधों एवं नैतिक आचरण के बारे में थी. उस समय तक स्मिथ का रुझान राजनीति दर्शन एवं नीतिशास्त्र तक सीमित था. धीरे–धीरे स्मिथ विश्वविद्यालयों के नीरस और एकरस वातावरण से ऊबने लगा. उसे लगने लगा कि जो वह करना चाहता है वह का॓लेज के वातावरण में रहकर कर पाना संभव नहीं है. इस बीच उसका रुझान अर्थशास्त्र के प्रति बढ़ा था. विशेषकर राजनीतिक दर्शन पर अध्यापन के दौरान दिए गए लेक्चरर्स में आर्थिक पहलुओं पर भी विचार किया गया था. उसके विचारों को उसी के एक विद्यार्थी ने संकलित किया, जिन्हें आगे चलकर एडविन केनन ने संपादित किया. उन लेखों में ही ‘वैल्थ आ॓फ नेशनस्’ के बीजतत्व सुरक्षित थे. करीब बारह वर्ष अध्यापन के क्षेत्र में बिताने के पश्चात स्मिथ ने का॓लेज की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और जीविकोपार्जन के लिए ट्यूशन पढ़ाने लगा. इसी दौर में उसने फ्रांस तथा यूरोपीय देशों की यात्राएं कीं तथा समकालीन विद्वानों डेविड ह्यूम, वाल्तेयर, रूसो, फ्रांसिस क्वेसने (François Quesnay), एनी राबर्ट जेकुइस टुरगोट(Anne-Robert-Jacques Turgot) आदि से मिला. इस बीच उसने कई शोध निबंध भी लिखे, जिनके कारण उसकी प्रष्तिठा बढ़ी. कुछ वर्ष पश्चात वह वह किर्काल्दी वापस लौट आया. अपने पैत्रिक गांव में रहते हुए स्मिथ ने अपनी सर्वाधिक चर्चित पुस्तक The Wealth of Nations पूरी की, जो राजनीतिविज्ञान और अर्थशास्त्र पर अनूठी पुस्तक है. 1776 में पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही एडम स्मिथ की गणना अपने समय के मूर्धन्य विद्वानों में होने लगी. इस पुस्तक पर दर्शनशास्त्र का प्रभाव है. जो लोग स्मिथ के जीवन से परिचित नहीं हैं, उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य होगा कि स्मिथ ने इस पुस्तक की रचना एक दर्शनशास्त्र का प्राध्यापक होने के नाते अपने अध्यापन कार्य के संबंध में की थी. उन दिनों विश्वविद्यालयों में इतिहास और दर्शनशास्त्र की पुस्तकें ही अधिक पढ़ाई जाती थीं, उनमें एक विषय विधिवैज्ञानिक अध्ययन भी था. विधिशास्त्र के अध्ययन का सीधा सा तात्पर्य है, स्वाभाविक रूप से न्यायप्रणालियों का विस्तृत अध्ययन. प्रकारांतर में सरकार और फिर राजनीति अर्थव्यवस्था का चिंतन. इस तरह यह साफ है कि अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रों की संपदा’ में स्मिथ ने आर्थिक सिद्धांतों की दार्शनिक विवेचनाएं की हैं. विषय की नवीनता एवं प्रस्तुतीकरण का मौलिक अंदाज उस पुस्तक की मुख्य विशेषताएं हैं. स्मिथ पढ़ाकू किस्म का इंसान था. उसके पास एक समृद्ध पुस्तकालय था, जिसमें सैंकड़ों दुर्लभ ग्रंथ मौजूद थे. रहने के लिए उसको शांत एवं एकांत वातावरण पसंद था, जहां कोई उसके जीवन में बाधा न डाले. स्मिथ आजीवन कुंवारा ही रहा. जीवन में सुख का अभाव एवं अशांति की मौजूदगी से कार्य आहत न हों, इसलिए उसका कहना था कि समाज का गठन मनुष्यों की उपयोगिता के आधार पर होना चाहिए, जैसे कि व्यापारी समूह गठित किए जाते हैं; ना कि आपसी लगाव या किसी और भावनात्मक आधार पर. अर्थशास्त्र के क्षेत्र में एडम स्मिथ की ख्याति उसके सुप्रसिद्ध सिद्धांत ‘लेजे फेयर (laissez-faire) के कारण है, जो आगे चलकर उदार आर्थिक नीतियों का प्रवर्तक सिद्धांत बना. लेजे फेयर का अभिप्राय था, ‘कार्य करने की स्वतंत्रता’ अर्थात आर्थिक गतिविधियों के क्षेत्र में सरकार का न्यूनतम हस्तक्षेप. आधुनिक औद्योगिक पूंजीवाद के समर्थक और उत्पादन व्यवस्था में क्रांति ला देने वाले इस नारे के वास्तविक उदगम के बारे में सही–सही जानकारी का दावा तो नहीं किया जाता. किंतु इस संबंध में एक बहुप्रचलित कथा है, जिसके अनुसार इस उक्ति का जन्म 1680 में, तत्कालीन प्रभावशाली फ्रांसिसी वित्त मंत्री जीन–बेपटिस्ट कोलबार्ट की अपने ही देश के व्यापरियों के साथ बैठक के दौरान हुआ था. व्यापारियों के दल का नेतृत्व एम. ली. जेंड्री कर रहे थे. व्यापारियों का दल कोलबार्ट के पास अपनी समस्याएं लेकर पहुंचा था. उन दिनों व्यापारीगण एक ओर तो उत्पादन–व्यवस्था में निरंतर बढ़ती स्पर्धा का सामना कर रहे थे, दूसरी ओर सरकारी कानून उन्हें बाध्यकारी लगते थे. उनकी बात सुनने के बाद कोलबार्ट ने किंचित नाराजगी दर्शाते हुए कहा— ‘इसमें सरकार व्यापारियों की भला क्या मदद कर सकती है?’ इसपर ली. जेंड्री ने सादगी–भरे स्वर में तत्काल उत्तर दिया—‘लीजेज–नाउज फेयर [Laissez-nous faire (Leave us be, Let us do)].’ उनका आशय था, ‘आप हमें हमारे हमारे हाल पर छोड़ दें, हमें सिर्फ अपना काम करने दें.’ इस सिद्धांत की लोकप्रियता बढ़ने के साथ–साथ, एडम स्मिथ को एक अर्थशास्त्री के रूप में पहचान मिलती चली गई. उस समय एडम स्मिथ ने नहीं जानता था कि वह ऐसे अर्थशास्त्रीय सिद्धांत का निरूपण कर रहा है, जो एक दिन वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए क्रांतिकारी सिद्ध होगा. ‘राष्ट्रों की संपदा’ नामक पुस्तक के प्रकाशन के दो वर्ष बाद ही स्मिथ को कस्टम विभाग में आयुक्त की नौकरी मिल गई. उसी साल उसे धक्का लगा जब उसके घनिष्ट मित्र और अपने समय के जानेमाने दार्शनिक डेविड ह्यूम की मृत्यु का समाचार उसको मिला. कस्टम आयुक्त का पद स्मिथ के लिए चुनौती–भरा सिद्ध हुआ. उस पद पर रहते हुए उसे तस्करी की समस्या से निपटना था; जिसे उसने अपने ग्रंथ राष्ट्रों की संपदा में ‘अप्राकृतिक विधान के चेहरे के पीछे सर्वमान्य कर्म’ (Legitimate activity in the face of ‘unnatural’ legislation) के रूप में स्थापित किया था. 1783 में एडिनवर्ग रा॓यल सोसाइटी की स्थापना हुई तो स्मिथ को उसका संस्थापक सदस्य मनोनीत किया गया. अर्थशास्त्र एवं राजनीति के क्षेत्र में स्मिथ की विशेष सेवाओं के लिए उसको ग्ला॓स्ग विश्वविद्यालय का मानद रेक्टर मनोनीत किया गया. वह आजीवन अविवाहित रहा. रात–दिन अध्ययन–अध्यापन में व्यस्त रहने के कारण उसका स्वास्थ्य गड़बड़ाने लगा था. अंततः 19 जुलाई 1790 को, मात्र सढ़सठ वर्ष की अवस्था में एडिनबर्ग में उसकी मृत्यु हो गई.

वैचारिकी

एडम स्मिथ को आधुनिक अर्थव्यवस्था के निर्माताओं में से माना जाता है. उसके विचारों से प्रेरणा लेकर जहां कार्ल मार्क्स, एंगेल्स, मिल, रिकार्डो जैसे समाजवादी चिंतकों ने अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाया, वहीं अत्याधुनिक वैश्विक अर्थव्यवस्था के बीजतत्व भी स्मिथ के विचारों में निहित हैं. स्मिथ का आर्थिक सामाजिक चिंतन उसकी दो पुस्तकों में निहित है. पहली पुस्तक का शीर्षक है— नैतिक अनुभूतियों के सिद्धांत’ जिसमें उसने मानवीय व्यवहार की समीक्षा करने का प्रयास किया है. पुस्तक पर स्मिथ के अध्यापक फ्रांसिस हचसन का प्रभाव है. पुस्तक में नैतिक दर्शन को चार वर्गों—नैतिकता, सदगुण, व्यक्तिगत अधिकार की भावना एवं स्वाधीनता में बांटते हुए उनकी विवेचना की गई है. इस पुस्तक में स्मिथ ने मनुष्य के संपूर्ण नैतिक आचरण को निम्नलिखित दो हिस्सों में वर्गीकृत किया है— 1. नैतिकता की प्रकृति (Nature of morality) २. नैतिकता का लक्ष्य (Motive of morality) नैतिकता की प्रकृति में स्मिथ ने संपत्ति, कामनाओं आदि को सम्मिलित किया है. जबकि दूसरे वर्ग में स्मिथ ने मानवीय संवेदनाओं, स्वार्थ, लालसा आदि की समीक्षा की है. स्मिथ की दूसरी महत्त्वपूर्ण पुस्तक है—‘राष्ट्रों की संपदा की प्रकृति एवं उसके कारणों की विवेचना’ यह अद्वितीय ग्रंथ पांच खंडों में है. पुस्तक में राजनीतिविज्ञान, अर्थशास्त्र, मानव व्यवहार आदि विविध विषयों पर विचार किया गया है, किंतु उसमें मुख्य रूप से स्मिथ के आर्थिक विचारों का विश्लेषण है. स्मिथ ने मुक्त अर्थव्यवस्था का समर्थन करते हुए दर्शाया है कि ऐसे दौर में अपने हितों की रक्षा कैसे की जा सकती है, किस तरह तकनीक का अधिकतम लाभ कमाया जा सकता है, किस प्रकार एक कल्याणकारी राज्य को धर्मिकता की कसौटी पर कसा जा सकता है और कैसे व्यावसायिक स्पर्धा से समाज को विकास के रास्ते पर ले जाया जा सकाता है. स्मिथ की विचारधारा इसी का विश्लेषण बड़े वस्तुनिष्ठ ढंग से प्रस्तुत करती है. इस पुस्तक के कारण स्मिथ पर व्यक्तिवादी होने के आरोप भी लगते रहे हैं. लेकिन जो विद्वान स्मिथ को निरा व्यक्तिवादी मानते हैं, उन्हें यह तथ्य चौंका सकता है कि उसका अधिकांश कार्य मानवीय नैतिकता को प्रोत्साहित करने वाला तथा जनकल्याण पर केंद्रित है. अपनी दूसरी पुस्तक ‘नैतिक अनुभूतियों का सिद्धांत’ में स्मिथ लिखता है— ‘पूर्णतः स्वार्थी व्यक्ति की संकल्पना भला कैसे की जा सकती है. प्रकृति के निश्चित ही कुछ ऐसे सिद्धांत हैं, जो उसको दूसरों के हितों से जोड़कर उनकी खुशियों को उसके लिए अनिवार्य बना देते हैं, जिससे उसे उन्हें सुखी–संपन्न देखने के अतिरिक्त और कुछ भी प्राप्त नहीं होता.’ स्मिथ के अनुसार स्वार्थी और अनिश्चितता का शिकार व्यक्ति सोच सकता है कि प्रकृति के सचमुच कुछ ऐसे नियम हैं जो दूसरे के भाग्य में भी उसके लिए लाभकारी सिद्ध हो सकते हैं तथा उसके लिए खुशी का कारण बन सकते हैं. जबकि यह उसका सरासर भ्रम ही है. उसको सिवाय ऐसा सोचने के कुछ और हाथ नहीं लग पाता. मानव व्यवहार की एकांगिकता और सीमाओं का उल्लेख करते हुए एक स्थान पर स्मिथ ने लिखा है कि— ‘हमें इस बात का प्रामाणिक अनुभव नहीं है कि दूसरा व्यक्ति क्या सोचता है. ना ही हमें इस बात का कोई ज्ञान है कि वह वास्तव में किन बातों से प्रभावित होता है. सिवाय इसके कि हम स्वयं को उन परिस्थितियों में होने की कल्पना कर कुछ अनुमान लगा सकें. छज्जे पर खडे़ अपने भाई को देखकर हम निश्चिंत भी रह सकते हैं, बिना इस बात की परवाह किए कि उसपर क्या बीत रही है. हमारी अनुभूतियां उसकी स्थिति के बारे में प्रसुप्त बनी रहती हैं. वे हमारे ‘हम’ से परे न तो जाती हैं, न ही जा सकती हैं; अर्थात उसकी वास्तविक स्थिति के बारे में हम केवल अनुमान ही लगा पाते हैं. न उसकी चेतना में ही वह शक्ति है जो हमें उसकी परेशानी और मनःस्थिति का वास्तविक बोध करा सके, उस समय तक जब तक कि हम स्वयं को उसकी परिस्थितियों में रखकर नहीं सोचते. मगर हमारा अपना सोच केवल हमारा सोच और संकल्पना है, न कि उसका. कल्पना के माध्यम से हम उसकी स्थिति का केवल अनुमान लगाने में कामयाब हो पाते हैं.’ उपर्युक्त उद्धरण द्वारा स्मिथ ने यथार्थ स्थिति बयान की है. हमारा रोजमर्रा का बहुत–सा व्यवहार केवल अनुमान और कल्पना के सहारे ही संपन्न होता है. भावुकता एवं नैतिकता के अनपेक्षित दबावों से बचते हुए स्मिथ ने व्यक्तिगत सुख–लाभ का पक्ष भी बिना किसी झिझक के लिया है. उसके अनुसार खुद से प्यार करना, अपनी सुख–सुविधाओं का खयाल रखना तथा उनके लिए आवश्यक प्रयास करना किसी भी दृष्टि से अकल्याणकारी अथवा अनैतिक नहीं है. उसका कहना था कि जीवन बहुत कठिन हो जाएगा यदि हमारी कोमल संवेदनाएं और प्यार, जो हमारी मूल भावना है, हर समय हमारे व्यवहार को नियंत्रित करने लगे, और उसमें दूसरों के कल्याण की कोई कामना ही न हो; या वह अपने अहं की रक्षा को ही सर्वस्व मानने लगे, और दूसरों की उपेक्षा ही उसका धर्म बन जाए. सहानुभूति तथा व्यक्तिगत लाभ एक दूसरे के विरोधी न होकर परस्पर पूरक होते हैं. दूसरों की मदद के सतत अवसर मनुष्य को मिलते ही रहते हैं. स्मिथ ‘राष्ट्रों की संपदा’ नामक ग्रंथ में परोपकार और कल्याण की व्याख्या बड़े ही वस्तुनिष्ट ढंग से करता है. स्मिथ के अनुसार अभ्यास की कमी के कारण हमारा मानस एकाएक ऐसी मान्यताओं को स्वीकारने को तैयार नहीं होता, हालांकि हमारा आचरण निरंतर उसी ओर इंगित करता रहता है. हमारे अंतर्मन में मौजूद द्वंद्व हमें निरंतर मथते रहते हैं. एक स्थान पर वह लिखता है कि केवल धर्म अथवा परोपकार के बल पर आवश्यकताओं की पूर्ति असंभव है. उसके लिए व्यक्तिगत हितों की उपस्थिति भी अनिवार्य है. वह लिखता है— ‘हमारा भोजन किसी कसाई, शराब खींचनेवाले या तंदूरवाले की दयालुता की सौगात नहीं है. यह उनके निहित लाभ के लिए, स्वयं के लिए किए गए कार्य का प्रतिफल है.’ स्मिथ के अनुसार यदि कोई आदमी धनार्जन के लिए परिश्रम करता है तो यह उसका अपने सुख के लिए किया गया कार्य है. लेकिन उसका प्रभाव स्वयं उस तक ही सीमित नहीं रहता. धनार्जन की प्रक्रिया में वह किसी ने किसी प्रकार दूसरों से जुड़ता है. उनका सहयोग लेता है तथा अपने उत्पाद के माध्यम से अपने साथ–साथ अपने समाज की आवश्यकताएं पूरी करता है. स्पर्धा के बीच कुछ कमाने के लिए उसे दूसरों से अलग, कुछ न कुछ उत्पादन करना ही पड़ता है. उत्पादन तथा उत्पादन के लिए प्रयुक्त तकनीक की विशिष्टता का अनुपात ही उसकी सफलता तय करता है. ‘राष्ट्रों की संपदा’ नामक ग्रंथ में स्मिथ लिखता है कि— ‘प्रत्येक उद्यमी निरंतर इस प्रयास में रहता है कि वह अपनी निवेश राशि पर अधिक से अधिक लाभ अर्जित कर सके. यह कार्य वह अपने लिए, केवल अपने भले की कामना के साथ करता है, न कि समाज के कल्याण की खातिर. यह भी सच है कि अपने भले के लिए ही वह अपने व्यवसाय को अधिक से अधिक आगे ले जाने, उत्पादन और रोजगार के अवसरों को ज्यादा से ज्यादा विस्तार देने का प्रयास करता है. किंतु इस प्रक्रिया में देर–सवेर समाज का भी हित–साधन होता है.’ पांच खंडों में लिखी गई पुस्तक ‘राष्ट्रों की संपदा’ में स्मिथ किसी राष्ट्र की समृद्धि के कारणों और उनकी प्रकृति को स्पष्ट करने का प्रयास भी किया है. किंतु उसका आग्रह अर्थव्यवस्था पर कम से कम नियंत्रण के प्रति रहा है. स्मिथ के अनुसार समृद्धि का पहला कारण श्रम का अनुकूल विभाजन है. यहां अनुकूलता का आशय किसी भी व्यक्ति की कार्यकुशलता का सदुपयोग करते हुए उसे अधिकतम उत्पादक बनाने से है. इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए स्मिथ का एक उदाहरण बहुत ही चर्चित रहा है— ‘कल्पना करें कि दस कारीगर मिलकर एक दिन में अड़तालीस हजार पिन बना सकते हैं, बशर्ते उनकी उत्पादन प्रक्रिया को अलग–अलग हिस्सों में बांटकर उनमें से हर एक को उत्पादन प्रक्रिया का कोई खास कार्य सौंप दिया जाए. किसी दिन उनमें से एक भी कारीगर यदि अनुपस्थित रहता है तो; उनमें से एक कारीगर दिन–भर में एक पिन बनाने में भी शायद ही कामयाब हो सके. इसलिए कि किसी कारीगर विशेष की कार्यकुशलता उत्पादन प्रक्रिया के किसी एक चरण को पूरा कर पाने की कुशलता है.’ स्मिथ मुक्त व्यापार के पक्ष में था. उसका कहना था कि सरकारों को वे सभी कानून उठा लेने चाहिए जो उत्पादकता के विकास के आड़े आकर उत्पादकों को हताश करने का कार्य करते हैं. उसने परंपरा से चले आ रहे व्यापार–संबंधी कानूनों का विरोध करते हुए कहा कि इस तरह के कानून उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं. उसने आयात के नाम पर लगाए जाने वाले करों एवं उसका समर्थन करने वाले कानूनों का भी विरोध किया है. अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उसका सिद्धांत ‘लैसे फेयर’ के नाम से जाना जाता है. जिसका अभिप्रायः है—उन्हें स्वेच्छापूर्वक कार्य करने दो (let them do). दूसरे शब्दों में स्मिथ उत्पादन की प्रक्रिया की निर्बाधता के लिए उसकी नियंत्रणमुक्ति चाहता था. वह उत्पादन–क्षेत्र के विस्तार के स्थान पर उत्पादन के विशिष्टीकरण के पक्ष में था, ताकि मशीनी कौशल एवं मानवीय श्रम का अधिक से अधिक लाभ उठाया जाए. उत्पादन सस्ता हो और वह अधिकतम तक पहुंच सके. उसका कहना था कि— ‘किसी वस्तु को यदि कोई देश हमारे देश में आई उत्पादन लागत से सस्ती देने को तैयार है तो यह हमारा कर्तव्य है कि उसको वहीं से खरीदें. तथा अपने देश के श्रम एवं संसाधनों का नियोजन इस प्रकार करें कि वह अधिकाधिक कारगर हो सकें तथा हम उसका उपयुक्त लाभ उठा सकें.’ स्मिथ का कहना था कि समाज का गठन विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों, अनेक सौदागरों के बीच से होना चाहिए. बगैर किसी पारस्पिरिक लाभ अथवा कामना के होना चाहिए. उत्पादन की इच्छा ही उद्यमिता की मूल प्रेरणाशक्ति है. लेकिन उत्पादन के साथ लाभ की संभावना न हो, यदि कानून मदद करने के बजाय उसके रास्ते में अवरोधक बनकर खड़ा हो जाए, तो उसकी इच्छा मर भी सकती है. उस स्थिति में उस व्यक्ति और राष्ट्र दोनों का ही नुकसान है. स्मिथ के अनुसार— ‘उपभोग का प्रत्यक्ष संबंध उत्पादन से है. कोई भी व्यक्ति इसलिए उत्पादन करता करता है, क्योंकि वह उत्पादन की इच्छा रखता है. इच्छा पूरी होने पर वह उत्पादन की प्रक्रिया से किनारा कर सकता है अथवा कुछ समय के लिए उत्पादन की प्रक्रिया को स्थगित भी कर सकता है. जिस समय कोई व्यक्ति अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर लेता है, उस समय अतिरिक्त उत्पादन को लेकर उसकी यही कामना होती है कि उसके द्वारा वह किसी अन्य व्यक्ति से, किसी और वस्तु की फेरबदल कर सके. यदि कोई व्यक्ति कामना तो किसी वस्तु की करता है तथा बनाता कुछ और है, तब उत्पादन को लेकर उसकी यही इच्छा हो सकती है कि वह उसका उन वस्तुओं के साथ विनिमय कर सके, जिनकी वह कामना करता है और उन्हें उससे भी अच्छी प्रकार से प्राप्त कर सके, जैसा वह उन्हें स्वयं बना सकता था.’ स्मिथ ने कार्य–विभाजन को पूर्णतः प्राकृतिक मानते हुआ उसका मुक्त स्वर में समर्थन किया है. यह उसकी वैज्ञानिक दृष्टि एवं दूरदर्शिता को दर्शाता है. उसके विचारों के आधार पर अमेरिका और यूरोपीय देशों ने मुक्त अर्थव्यवस्था को अपनाया. शताब्दियों बाद भी उसके विचारों की प्रासंगिकता यथावत बनी हुई है. औद्योगिक स्पर्धा में बने रहने के लिए चीन और रूस जैसे कट्टर साम्यवादी देश भी मुक्त अर्थव्यवस्था के समर्थक बने हुए हैं. उत्पादन के भिन्न–भिन्न पहलुओं का विश्लेषण करते हुए स्मिथ ने कहा कि उद्योगों की सफलता में मजदूर और कारीगर का योगदान भी कम नहीं होता. वे अपना श्रम–कौशल निवेश करके उत्पादन में सहायक बनते हैं. स्मिथ का यह भी लिखा है ऐसे स्थान पर जहां उत्पादन की प्रवृत्ति को समझना कठिन हो, वहां पर मजदूरी की दरें सामान्य से अधिक हो सकती हैं. इसलिए कि लोग, जब तक कि उन्हें अतिरिक्त रूप से कोई लाभ न हो, सीखना पसंद ही नहीं करेंगे. अतिरिक्त मजदूरी अथवा सामान्य से अधिक अर्जन की संभावना उन्हें नई प्रविधि अपनाने के लिए प्रेरित करती हैं. इस प्रकार स्मिथ ने सहज मानववृत्ति के विशिष्ट लक्षणों की ओर संकेत किया है. इसी प्रकार ऐसे कार्य जहां व्यक्ति को स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रतिकूल स्थितियों में कार्य करना पड़े अथवा असुरक्षित स्थानों पर चल रहे कारखानों में मजदूरी की दरें सामान्य से अधिक रखनी पड़ेंगी. नहीं तो लोग सुरक्षित और पसंदीदा ठिकानों की ओर मजदूरी के लिए भागते रहेंगे और वैसे कारखानों में प्रशिक्षित कर्मियों का अभाव बना रहेगा. स्मिथ ने तथ्यों का प्रत्येक स्थान पर बहुत ही संतुलित तथा तर्कसंगत ढंग से उपयोग किया है. अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रों की संपदा’ में वह स्पष्ट करता है कि कार्य की प्रवृत्ति के अंतर को वेतन के अंतर से संतुलित किया जा सकता है. उसके लेखन की एक विशेषता यह भी है कि वह बात को समझाने के लिए लंबे–लंबे वर्णन के बजाए तथ्यों एवं तर्कों का सहारा लेता है. उत्पादन–व्यवस्था के अंतरराष्ट्रीयकरण को लेकर भी स्मिथ के विचार आधुनिक अर्थचिंतन की कसौटी पर खरे उतरते हैं. इस संबंध में उसका मत था कि— ‘यदि कोई विदेशी मुल्क हमें किसी उपभोक्ता सामग्री को अपेक्षाकृत सस्ता उपलब्ध कराने को तैयार है तो उसे वहीं से मंगवाना उचित होगा. क्योंकि उसी के माध्यम से हमारे देश की कुछ उत्पादक शक्ति ऐसे कार्यों को संपन्न करने के काम आएगी जो कतिपय अधिक महत्त्वपूर्ण एवं लाभकारी हैं. इस व्यवस्था से अंततोगत्वा हमें लाभ ही होगा.’ विश्लेषण के दौरान स्मिथ की स्थापनाएं केवल पिनों की उत्पादन तकनीक के वर्णन अथवा एक कसाई तथा रिक्शाचालक के वेतन के अंतर को दर्शाने मात्र तक सीमित नहीं रहतीं. बल्कि उसके बहाने से वह राष्ट्रों के जटिल राजनीतिक मुद्दों को सुलझाने का भी काम करता है. अर्थ–संबंधों के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय रणनीति बनाने का चलन आजकल आम हो चला है. संपन्न औद्योगिक देश यह कार्य बड़ी कुशलता के साथ करते हैं. मगर उसके बीजतत्व स्मिथ के चिंतन में अठारहवीं शताब्दी से ही मौजूद हैं. ‘राष्ट्रों की संपदा’ शृंखला की चैथी पुस्तक में सन 1776 में स्मिथ ने ब्रिटिश सरकार से साफ–साफ कह दिया था कि उसकी अमेरिकन कालोनियों पर किया जाने व्यय, उनके अपने मूल्य से अधिक है. इसका कारण स्पष्ट करते हुए उसने कहा था कि ब्रिटिश राजशाही बहुत खर्चीली व्यवस्था है. उसने आंकड़ों के आधार पर यह सिद्ध किया था कि राजनीतिक नियंत्रण के स्थान पर एक साफ–सुथरी अर्थनीति, नियंत्रण के लिए अधिक कारगर व्यवस्था हो सकती है. वह आर्थिक मसलों से सरकार को दूर रखने का पक्षधर था. इस मामले में स्मिथ कतिपय आधुनिक अर्थनीतिकारों से कहीं आगे था. लेकिन यदि सबकुछ अर्थिक नीतियों के माध्यम से पूंजीपतियों अथवा उनके सहयोग से बनाई गई व्यवस्था द्वारा ही संपन्न होना है तब सरकार का क्या दायित्व है? अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए वह क्या कर सकती है? इस संबंध में स्मिथ का एकदम स्पष्ट मत था कि सरकार पेटेंट कानून, कांट्रेक्ट, लाइसेंस एवं का॓पीराइट जैसी व्यवस्थाओं के माध्यम से अपना नियंत्रण बनाए रख सकती है. यही नहीं सरकार सार्वजनिक महत्त्व के कार्यों जैसे कि पुल, सड़क, विश्रामालय आदि बनाने का कार्य अपने नियंत्रण में रखकर जहां राष्ट्र की समृद्धि का लाभ जन–जन पहुंचा सकती है. प्राथमिकता के क्षेत्रों में, ऐसे क्षेत्रों में जहां उद्यमियों की काम करने की रुचि कम हो, विकास की गति बनाए रखकर सरकार अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकती है. पूंजीगत व्यवस्था के समर्थन में स्मिथ के विचार कई स्थान पर व्यावहारिक हैं तो कई बार वे अतिरेक की सीमाओं को पार करते हुए नजर आते हैं. वह सरकार को एक स्वयंभू सत्ता के बजाय एक पूरक व्यवस्था में बदल देने का समर्थक था. जिसका कार्य उत्पादकता में यथासंभव मदद करना है. उसका यह भी विचार था कि नागरिकों को सुविधाओं के उपयोग के अनुपात में निर्धारित शुल्क का भुगतान भी करना चाहिए. लेकिन इसका अभिप्राय यह नहीं है कि स्मिथ सरकारों को अपने नागरिकों के कल्याण की जिम्मेदारी से पूर्णतः मुक्त कर देना चाहता था. उसका मानना था कि— ‘कोई भी समाज उस समय तक सुखी एवं समृद्ध नहीं माना जा सकता, जब तक कि उसके सदस्यों का अधिकांश, गरीब, दुखी एवं अवसादग्रस्त हो.’ व्यापार और उत्पादन तकनीक के मामले में स्मिथ मुक्त स्पर्धा का समर्थक था. उसका मानना था कि अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में स्पर्धा का आगमन ‘प्राकृतिक नियम’ के अनुरूप होगा. स्मिथ का प्राकृतिक नियम निश्चित रूप से जंगल के उस कानून का ही विस्तार है, जिसमें जीवन की जिजीविषा संघर्ष को अनिवार्य बना देती है. स्मिथ के समय में सहकारिता की अवधारणा का जन्म नहीं हुआ था, समाजवाद का विचार भी लोकचेतना के विकास के गर्भ में ही था. उसने एक ओर तो उत्पादन को स्पर्धा से जोड़कर उसको अधिक से अधिक लाभकारी बनाने पर जोर दिया. दूसरी ओर उत्पादन और नैतिकता को परस्पर संबद्ध कर उत्पादन–व्यवस्था के चेहरे को मानवीय बनाए रखने का रास्ता दिखाया. हालांकि अधिकतम मुनाफे को ही अपना अभीष्ठ मानने वाला पूंजीपति बिना किसी स्वार्थ के नैतिकता का पालन क्यों करे, उसकी ऐसी बाध्यता क्योंकर हो? इस ओर उसने कोई संकेत नहीं किया है. तो भी स्मिथ के विचार अपने समय में सर्वाधिक मौलिक और प्रभावशाली रहे हैं. स्मिथ ने आग्रहपूर्वक कहा था कि— ‘किसी भी सभ्य समाज में मनुष्य को दूसरों के समर्थन एवं सहयोग की आवश्यकता प्रतिक्षण पड़ती है. जबकि चंद मित्र बनाने के लिए मनुष्य को एक जीवन भी अपर्याप्त रह जाता है. प्राणियों में वयस्कता की ओर बढ़ता हुआ कोई जीव आमतौर पर अकेला और स्वतंत्र रहने का अभ्यस्त हो चुका होता है. दूसरों की मदद करना उसके स्वभाव का हिस्सा नहीं होता. किंतु मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है. उसको अपने स्वार्थ के लिए हर समय अपने भाइयों एवं सगे–संबंधियों के कल्याण की चिंता लगी रहती है. जाहिर है मनुष्य अपने लिए भी यही अपेक्षा रखता है. क्योंकि उसके लिए केवर्ल शुभकामनाओं से काम चलाना असंभव ही है. वह अपने संबंधों को और भी प्रगाढ़ बनाने का कार्य करेगा, यदि वह उनकी सुख–लालसाओं में अपने लिए स्थान बना सके. वह यह भी जताने का प्रयास करेगा कि यह उनके अपने भी हित में है कि वे उन सभी कार्यों को अच्छी तरह अंजाम दें, जिनकी वह उनसे अपेक्षा रखता है. मनुष्य दूसरों के प्रति जो भी कर्तव्य निष्पादित करता है, वह एक तरह की सौदेबाजी ही है– यानी तुम मुझको वह दो जिसको मैं चाहता हूं, बदले में तुम्हें वह सब मिलेगा जिसकी तुम कामना करते हो. किसी को कुछ देने का यही सिद्धांत है, यही एक रास्ता है, जिससे हमारे सामाजिक संबंध विस्तार पाते हैं और जिनके सहारे यह संसार चलता है. हमारा भोजन किसी कसाई, शराब खींचनेवाले या तंदूरवाले की दयालुता की सौगात नहीं है. यह उनके निहित लाभ के लिए, स्वयं के लिए किए गए कार्य का प्रतिफल है.’ इस प्रकार हम देखते हैं कि एडम स्मिथ के अर्थनीति संबंधी विचार न केवल व्यावहारिक, मौलिक और दूरदर्शितापूर्ण हैं; बल्कि आज भी अपनी प्रासंकगिता को पूर्ववत बनाए हुए हैं. शायद यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि वे पहले की अपेक्षा आज कहीं अधिक प्रासंगिक हैं. उसकी विचारधारा में हमें कहीं भी विचारों के भटकाव अथवा असंमजस के भाव नहीं दिखते. स्मिथ को भी मान्यताओं पर पूरा विश्वास था, यही कारण है कि वह अपने तर्क के समर्थन में अनेक तथ्य जुटा सका. यही कारण है कि आगे आने वाले अर्थशास्त्रियों को जितना प्रभावित स्मिथ ने किया; उस दौर का कोई अन्य अर्थशास्त्री वैसा नहीं कर पाया. हालांकि अपने विचारों के लिए एडम स्मिथ को लोगों की आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा. कुछ विद्वानों का विचार है कि उसके विचार एंडरर्स चांडिनिअस(Anders Chydenius) की पुस्तक ‘दि नेशनल गेन (The National Gain, 1765) तथा डेविड ह्यूम आदि से प्रभावित हैं. कुछ विद्वानों ने उसपर अराजक पूंजीवाद को बढ़ावा देने के आरोप भी लगाए हैं. मगर किसी भी विद्वान के विचारों का आकलन उसकी समग्रता में करना ही न्यायसंगत होता है. स्मिथ के विचारों का आकलन करने वाले विद्वान अकसर औद्योगिक उत्पादन संबंधी विचारों तक ही सिमटकर रह जाते हैं, वे भूल जाते हैं कि स्मिथ की उत्पादन संबंधी विचारों में सरकार और नागरिकों के कर्तव्य भी सम्मिलित हैं. जो भी हो, उसकी वैचारिक प्रखरता का प्रशंसा उसके तीव्र विरोधियों ने भी की है. दुनिया के अनेक विद्वान, शोधार्थी आज भी उसके आर्थिक सिद्धांतों का विश्लेषण करने में लगे हैं. एक विद्वान के विचारों की प्रासंगिकता यदि शताब्दियों बाद भी बनी रहे तो यह निश्चय ही उसकी महानता का प्रतीक है. जबकि स्मिथ ने तो विद्वानों की पीढ़ियों को न केवल प्रभावित किया, बल्कि अर्थशास्त्रियों की कई पीढ़ियां तैयार भी की हैं.

कार्य एवं महत्व

Inquiry into the nature and causes of the wealth of nations, 1922

आडम स्मिथ मुख्यतः अपनी दो रचनाओं के लिये जाने जाते हैं-

वाह्य सूत्र