ईसाई समाजवाद
ईसाई समाजवाद (Christian socialism) मजहबी समाजवाद का एक रूप है जो ईसा मसीह की शिक्षाओं पर आधारित है।
परिचय
समाजवादियों का उद्देश्य है निजी संपत्ति पर नियंत्रण और आत्माभिव्यक्ति के अवसरों में वृद्धि। किंतु इसके साधन क्या हो, हिंसाप्रधान या अहिंसामूलक, समाजवादी व्यवस्था की रूपरेखा क्या हो, समाज परिवर्तन की प्रक्रिया और उसका तर्क क्या हो- इन और अन्य संबद्ध प्रश्नों पर समाजवादी विचारधाराओं के सामान्य उद्देश्यों की प्रतिष्ठा ईसाई मत के कुछ आधारभूत सिद्धांतों से हो सकती है। ईसा की शिक्षा है कि ईश्वर समस्त प्राणियों का स्रष्टा और परमपिता है, मनुष्यों में भाईचारे का संबंध है, गरीबी और शोषण के साथ साथ संपत्तिसंचय नैतिक पतन है, संपत्ति की और उचित प्रवृत्ति यह है - उसका त्याग और समाजकल्याण के लिए उसका अमानत की भाँति प्रयोग और हिंसाप्रमुख साधनों का निराकरण।
रोमन साम्राज्य में राजधर्म की मान्यता मिलने के बाद लगभग एक हजार वर्ष तक ईसाई नैतिकता सामाजिक संगठन और व्यवहार की आधारशिला थी। वह सघंर्ष और प्रतियोगिता के स्थान पर सहयोग और सेवा पर बल देती थी। किंतु १५वीं शताब्दी के मध्य के उपरांत वैज्ञानिक और यांत्रिक विकास के फलस्वरूप आधुनिक सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ। दृष्टिकोण गुणात्मक के स्थान पर परिमाणात्मक हो गया। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संगठन ने दीर्घकाय रूप लिया। सभी कार्य, धार्मिक हों या शैक्षिक, आर्थिक हों या राजनीतिक, नौकरशाही द्वारा संपन्न होने लगे। प्रत्यक्ष जगत् के स्थान पर आज का संसार व्यापक और निर्वैयक्तिक है। उसकी नैतिकता धार्मिक नहीं है, सुखवादी या उपयोगितावादी है। धन इस सुख का साधन है और वही आज जीवन का मानदंड है। इसीलिए जीवन और आज की विचारधाएँ संघर्षप्रमुख हैं। ईसाइयत और समाजवाद के बीच एक विशाल खाई है।
प्राचीन काल से ही अनेक संन्यासप्रमुख ईसाई संप्रदायों ने बहुत कुछ समाजवादी सिद्धांतों को अपनाया। किंतु फ्रांसीसी राजक्रांति के बाद, विशेष रूप से १९वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में, पश्चिम के अनेक देशों में ईसाई समाजवादी विचारधारा और संगठन का प्रादुर्भाव हुआ। इसका प्रमुख कारण यह था कि उद्योगीकरण के दुष्परिणाम प्रकट होने लगे थे। ईसाई नैतिकता की उपेक्षा हो रही थी और समाज सुखवाद की और अग्रसर हो रहा था। दूसरी ओर ईसाई धर्मावलंबी, विशेष रूप से संगठित चर्च, सामाजिक बुराइयों की ओर से उदासीन थे। ईसाई समाजवाद का उद्देश्य यह था कि ईसाई लोग समाजवादी दृष्टिकोण को अपनाएँ और समाजवाद ईसाई नैतिकता से अनुप्राणित हो।
ईसाई समाजवाद के नेता थे, फ्रांस में दलामने, इंग्लैंड में मारिस और किंग्सले, जर्मनी में फॉन केटलर, आस्ट्रिया में काल ल्यूगा और अमरीका में जोशिया स्ट्रांग, रिचर्ड एली, जार्ज हेरन आदि। इन आंदोलनों के द्वारा यह प्रयास हुआ कि चर्च और समाजवाद में परस्पर सहयोग हो और सामाजिक जीवन का संचालन प्रतियोगिता नहीं वरन् सहयोग के आधार पर हो। ईसाई समाजवादी इस बात के पक्ष में थे कि आर्थिक जीवन का संगठन जनतंत्रवादी हो। इनके प्रयास से समाजवादी विचारधारा जनप्रिय बनी। आदर्श समाजवाद की रूपरेखा कैसी हो, इसमें ईसाई समाजवादियों को विशेष अभिरुचि न थी। उनको विश्वास था कि मजदूरों के अतिरिक्त यदि मध्य वर्ग के मनुष्यों को भी ठीक प्रकार से सामाजिक परिस्थिति से परिचित कराया जाए तो वे वर्तमान आर्थिक व्यवस्था के सुधार में हाथ बँटाएँगे।
१९६० के दशक में यूनाइटेड किंगडम (यूके) में ईसाई समाजवाद का जोरदार आन्दोलन चला।
किंतु १९वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में ईसाई समाजवाद की जनप्रियता घटने लगी। पश्चिमी देशों के मजदूर ट्रेड यूनियन आंदोलन से अधिक प्रभावित हुए। आधुनिक सभ्यता प्रत्यक्षवाद (ऐपेरिजिसज्म़), धर्मनिरपेक्षता (सेक्युलैरिज्म़) और सुखवाद (हेडनिज्म़) पर आधारित है। ईसाई समाजवादियों में आंतरिक मतभेद भी था। कुछ की अभिरुचि प्रमुख रूप से ईसाई धर्म में थी और कुछ की समाजवाद में। रूस में साम्यवादी राज्य की स्थापना के बाद अन्य समाजवादी विचारधाराओं का प्रभाव कम हो गया। पश्चिम में आज ईसाई धर्म और प्रचलित बौद्धिक मानसिकता में अंतर बढ़ रहा है।