आश्रम

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

प्राचीन काल में व्यक्तिगत व्यवस्था के दो स्तंभ थे - पुरुषार्थ और आश्रम। सामाजिक प्रकृति-गुण, कर्म और स्वभाव-के आधार पर वर्गीकरण चार वर्णो में हुआ था। व्यक्तिगत संस्कार के लिए उसके जीवन का विभाजन चार आश्रमों में किया गया था। ये चार आश्रम थे- (१) ब्रह्मचर्य, (२) गार्हस्थ्य, (३) वानप्रस्थ और (४) संन्यास।

अमरकोश (७.४) पर टीका करते हुए भानु जी दीक्षित ने 'आश्रम' शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है: आश्राम्यन्त्यत्र। अनेन वा। श्रमु तपसि। घं्‌ा। यद्वा आ समंताछ्रमोऽत्र। स्वधर्मसाधनक्लेशात्‌। अर्थात्‌ जिसमें स्म्यक्‌ प्रकार से श्रम किया जाए वह आश्रम है अथवा आश्रम जीवन की वह स्थिति है जिसमें कर्तव्यपालन के लिए पूर्ण परिश्रम किया जाए। आश्रम का अर्थ 'अवस्थाविशेष' 'विश्राम का स्थान', 'ऋषिमुनियों के रहने का पवित्र स्थान' आदि भी किया गया है।

आश्रमसंस्था का प्रादुर्भाव वैदिक युग में हो चुका था, किंतु उसके विकसित और दृढ़ होने में काफी समय लगा। वैदिक साहित्य में ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य अथवा गार्हपत्य का स्वतंत्र विकास का उल्लेख नहीं मिलता। इन दोनों का संयुक्त अस्तित्व बहुत दिनों तक बना रहा और इनको वैखानस, पर्व्राािट्, यति, मुनि, श्रमण आदि से अभिहित किया जाता था। वैदिक काल में कर्म तथा कर्मकांड की प्रधानता होने के कारण निवृत्तिमार्ग अथवा संन्यास को विशेष प्रोत्साहन नहीं था। वैदिक साहित्य के अंतिम चरण उपनिषदों में निवृत्ति और संन्यास पर जोर दिया जाने लगा और यह स्वीकार कर लिया गया था कि जिस समय जीवन में उत्कट वैराग्य उत्पन्न हो उस समय से वैराग्य से प्रेरित होकर संन्यास ग्रहण किया जा सकता है। फिर भी संन्यास अथवा श्रमण धर्म के प्रति उपेक्षा और अनास्था का भाव था।

सुत्रयुग में चार आश्रमों की परिगणना होने लगी थी, यद्यपि उनके नामक्रम में अब भी मतभेद था। आपस्तंब धर्मसूत्र (२.९.२१.१) के अनुसार गार्हस्थ्य, आचार्यकुल (=ब्रह्मचर्य), मौन तथा वानप्रस्थ चार आश्रम थे। गौतमधर्मसूत्र (३.२) में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, भिक्षु और वैखानस चार आश्रम बतलाए गए हैं। वसिष्ठधर्मसूत्र (७.१.२) में गृहस्थ, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ तथा पर्व्राािजक, इन चार आश्रमों का वर्णन किया है, किंतु आश्रम की उत्त्पति के संबंध में बतलाया है कि अंतिम दो आश्रमों का भेद प्रह्लाद के पुत्र कपिल नामक असुर ने इसलिए किया था कि देवताओं को यज्ञों का प्राप्य अंश न मिले और वे दुर्बल हो जाएँ (६.२९.३१)। इसका संभवत: यह अर्थ हो सकता है कि कायक्लेशप्रधान निवृत्तिमार्ग पहले असुरों में प्रचलित था और आर्यो ने उनसे इस मार्ग को अंशत: ग्रहण किया, परंतु फिर भी ये आश्रम उनको पूरे पंसद और ग्राह्य न थे।

बौद्ध तथा जैन सुधारणा ने आश्रम का विरोध नहीं किया, किंतु प्रथम दो आश्रमों-ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य-की अनिवार्यता नहीं स्वीकार की। इसके फलस्वरूप मुनि अथवा यतिवृत्ति को बड़ा प्रोत्साहन मिला और समाज में भिक्षुओं की अगणित वृद्धि हुई। इससे समाज तो दुर्बल हुआ ही, अपरिपक्व संन्यास अथवा त्याग से भ्रष्टाचार भी बढ़ा। इसकी प्रतिक्रिया और प्रतिसुधारण ई. पू. दूसरी सदी अथवा शुंगवंश की स्थापना से हुई। मनु आदि स्मृतियों में आश्रमधर्म का पूर्ण आग्रह और संघटन दिखाई पड़ता है। पूरे आश्रमधर्म की प्रतिष्ठा और उनके क्रम की अनिवार्यता भी स्वीकार की गई। 'आश्रमात्‌ आश्रमं गच्छेत्‌' अर्थात्‌ एक आश्रम से दूसरे आश्रम को जाना चाहिए, इस सिद्धांत को मनु ने दृढ़ कर दिया।

स्मृतियों में चारों आश्रमों के कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन मिलता है। मनु ने मानव आयु सामान्यत: एक सौ वर्ष की मानकर उसको चार बराबर भागों में बांटा है। प्रथम चतुर्थांश ब्रह्मचर्य है। इस आश्रम में गुरुकुल में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करना कर्तव्य है। इसका मुख्य उद्देश्य विद्या का उपार्जन और व अनुष्ठान है। मनु ने ब्रह्मचारी के जीवन और उसके कर्तव्यों का वर्णन विस्तार के साथ किया (अध्याय २, श्लोक ४१-२४४)। ब्रह्मचर्य उपनयन संस्कार के साथ प्रारंभ और समावर्तन के साथ समाप्त होता है। इसके पश्चात्‌ विवाह करके मुनष्य दूसरे आश्रम गार्हस्थ्य में प्रवेश करता है। गार्हस्थ्य समाज का आधार स्तंभ है। जिस प्रकार वायु के आश्रम से सभी प्राणी जीते हैं उसी प्रकार गृहस्थ आश्रम के सहारे अन्य सभी आश्रम वर्तमान रहते हैं (मनु. ३७७)। इस आश्रम में मनुष्य ऋषिऋण से वेद से स्वाध्याय द्वारा, देवऋण से यज्ञ द्वारा और पितृऋण से संतानोत्पत्ति द्वारा मुक्त होता है। इसी प्रकार नित्य पंचमहायज्ञों-ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा भूतयज्ञ-के अनुष्ठान द्वारा वह समाज एवं संसार के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करता है। मनुस्मृत्ति के चतुर्थ एवं पंचम अध्याय में गृहस्थ के कर्त्तव्यों का विवेचन पाया जाता है। आयु का दूसरा चतुर्थाश गार्हस्थ्य में बिताकर मनुष्य जब देखता है कि उसके सिर के बाल सफेद हो रहे हैं और उसके शरीर पर झुर्रियाँ पड़ रही हैं तब वह जीवन के तीसरे आश्रम-वानप्रस्थ-में प्रवेश करता है। (मनु. ५, १६९)। निवृत्ति मार्ग का यह प्रथम चरण है। इसमें त्याग का आंशिक पालन होता है। मनुष्य सक्रिय जीवन से दूर हो जाता है, किंतु उसके गार्हस्थ्य का मूल पत्नी उसके साथ रहती है और वह यज्ञादि गृहस्थधर्म का अंशत: पालन भी करता है। परंतु संसार का क्रमश: त्याग और यतिधर्म का प्रारंभ हो जाता है (मनु.६)। वानप्रस्थ के अनंतर शांतचित्त, परिपक्व वयवाले मनुष्य का पार्व्राािज्य (संन्यास) प्रारंभ होता है। (मनु.६,३३)। जैसा पहले लिखा गया है, प्रथम तीन आश्रमों ओर उनके कर्त्तव्यों के पालन के पश्चात्‌ ही मनु संन्यास की व्यवस्था करते हैं: एक आश्रम से दूसरे आश्रम में जाकर, जितेंद्रिय हो, भिक्षा (ब्रह्मचर्य), बलिवैश्वदेव (गार्हस्थ्य तथा वानप्रस्थ) आदि से विश्राम पाकर जो संन्यास ग्रहण करता है वह मृत्यु के उपरांत मोक्ष प्राप्त कर अपनी (पारमार्थिक) परम उन्नति करता है (मनु.६,३४)। जो सब प्राणियों को अभय देकर घर से प्र्व्राजित होता है उस ब्रह्मवादी के तेज से सब लोक आलोकित होते हैं (मनु. ६,३९)। एकाकी पुरुष को मुक्ति मिलती है, यह समझता हुआ संन्यासी सिद्धि की प्राप्ति के लिए नित्य बिना किसी सहायक के अकेला ही बिचरे; इस प्रकार न वह किसी को छोड़ता है और न किसी से छोड़ा जाता है (मनु. ६,४२)। कपाल (भग्न मिट्टी के बर्तन के टुकड़े) खाने के लिए, वृक्षमूल रहने के लिए तथा सभी प्राणियों में समता व्यवहार के लिए मुक्त पुरुष (संन्यासी) के लक्षण हैं (मनु. ६,४४)।

आश्रमव्यवस्था का जहाँ शारीरिक और सामाजिक आधार है, वहाँ उसका आध्यात्मिक अथवा दार्शनिक आधार भी है। भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन को केवल प्रवाह न मानकर उसको सोद्देश्य माना था और उसका ध्येय तथा गंतव्य निश्चित किया था। जीवन को सार्थक बनाने के लिए उन्होंने चार पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष-की कल्पना की थी। प्रथम तीन पुरुषार्थ साधनरूप से तथा अंतिम साध्यरूप से व्यवस्थित था। मोक्ष परम पुरुषार्थ, अर्थात्‌ जीवन का अंतिम लक्ष्य था, किंतु वह अकस्मात्‌ अथवा कल्पनामात्र से नहीं प्राप्त हो सकता है। उसके लिए साधना द्वारा क्रमश: जीवन का विकास और परिपक्वता आवश्यक है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारतीय समाजशास्त्रियों ने आश्रम संस्था की व्यवस्था की। आश्रम वास्तव में जीव का शिक्षणालय अथवा विद्यालय है। ब्रह्मचर्य आश्रम में धर्म का एकांत पालन होता है। ब्रह्मचारी पुष्टशरीर, बलिष्ठबुद्धि, शांतमन, शील, श्रद्धा और विनय के साथ युगों से उपार्जित ज्ञान, शास्त्र, विद्या तथा अनुभव को प्राप्त करता है। सुविनीत और पवित्रात्मा ही मोक्षमार्ग का पथिक्‌ हो सकता है। गार्हस्थ्य में धर्म पूर्वक अर्थ का उपार्जन तथा काम का सेवन होता है। संसार में अर्थ तथा काम के अर्जन और उपभोग के अनुभव के पश्चात्‌ ही त्याग और संन्यास की भूमिका प्रस्तुत होती है। संयमपूर्वक ग्रहण के बिना त्याग का प्रश्न उठता ही नहीं। वानप्रस्थ तैयार होती है। संन्यास के सभी बंधनों का त्याग कर पूर्णत: मोक्षधर्म का पालन होता है। इस प्रकार आश्रम संस्था में जीवन का पूर्ण उदार, किंतु संयमित नियोजन था।

शास्त्रों में आश्रम के संबंध में कई दृष्टिकोण पाए जाते हैं जिनको तीन वर्गो में विभक्त किया जा सकता है। (१) समुच्चय, (२) विकल्प और बाध। समुच्चय का अर्थ है सभी आश्रमों का समुचित समाहार, अर्थात्‌ चारों आश्रमों का क्रमश: और समुचित पालन होना चाहिए। इसके अनुसार गृहस्थाश्रम में अर्थ और काम संबंधी नियमों का पालन उतना ही आवश्यक है जितना ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास में धर्म और मोक्षसंबंधी धर्मो का पालन। इस सिद्धांत के सबसे बड़े प्रवर्तक और समर्थक मनु (अ.४ तथा६) हैं। दूसरे सिद्धांत विकल्प का अर्थ यह है कि ब्रह्मचर्य आश्रम के पश्चात्‌ व्यक्ति को यह विकल्प करने की स्वतंत्रता है कि वह गार्हस्थ्य आश्रम में प्रवेश करे अथवा सीधे संन्यास ग्रहण करे। समावर्तन से संदर्भ में ब्रह्मचारी दो प्रकार के बताए गए हैं। (१) उपकुर्वाण, जो ब्रह्मचर्य समाप्त कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहता था और (२) नैष्ठिक, जो आजीवन गुरुकुल में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता था। इसी प्रकार स्त्रियों में ब्रह्मचर्य के पश्चात सद्योद्वाहा (तुरंत विवाहयोग्य) और ब्रह्मवादिनी (आजीवन ब्रह्मोपासना में लीन) होती थीं। यह सिद्धांत जाबालोपनिषद् तथा कई धर्मसूत्रों (वसिष्ठ तथा आपस्तंब) और कतिपय स्मृतियों (याज्ञ., लघु, हारीत) में प्रतिपादित किया गया है। बाध का अर्थ है सभी आश्रमों के स्वतंत्र अस्तित्व अथवा क्रम को न मानना अथवा आश्रम संस्था को ही न स्वीकार करना। गौतम तथा बौधायनधर्मसूत्रों में यह कहा गया है कि वास्तव में एक ही आश्रम गार्हस्थ्य है। ब्रहाचर्य उसकी भूमिका है:श्वानप्रस्थ और संन्यास महत्व में गौण (और प्राय: वैकल्पिक) हैं। मनु ने भी सबसे अधिक महत्व गार्हस्थ्य का ही स्वीकार किया गया है, जो सभी कर्मो और आश्रमों का उद्गम है। इस मत के समर्थक अपने पक्ष में शतपथ ब्राह्मण का वाक्य (एतद्वै जरामर्थसत्रं यदग्निहोत्रम = जीवनपर्यत अग्निहोत्र आदि यज्ञ करना चहिए। शत. १२, ४, १, १), ईशोपनिषद् का वाक्य (कुर्वत्रेवेहि कर्माणि जिजीविषेच्छंत समा:।-ईश-२) आदि उधृत करते हैं। गीता का कर्मयोग भी कर्म का संन्यास नहीं अपितु कर्म में संन्यास को ही श्रेष्ठ समझता है। आश्रम संस्था को सबसे बड़ी बाधा परंपराविरोधी बौद्ध एवं जैन मतों से हुई जो आश्रमव्यवस्था के समुच्चय और संतुलन को ही नहीं मानते और जीवन का अनुभव प्राप्त किए बिना अपरिपक्व संन्यास या यतिधर्त को अत्यधिक प्रश्रय देते हैं। मनु. (६, ३५) पर भाष्य करते हुए सर्वज्ञनारायण ने उपर्युक्त तीनों मतों में समन्वय करने की चेष्टा की है। सामान्यत: तो उनको समुच्चय का सिद्धांत मान्य है। विकल्प में वे अधिकारभेद मानते हैं। उनके विचार में बाध का सिद्धांत उन व्यक्तियों के लिए ही है जो अपने पूर्वसंस्कारों के कारण सांसारिक कर्मों में आजीवन आसक्त रहते हैं और जिनमें विवेक और वैराग्य का यथासमय उदय नहीं होता।

सुसंघटित आश्रम संस्था भारतवर्ष की अपनी विशेषता है। किंतु इसका एक बहुत बड़ा सार्वभौम और शास्त्रीय महत्व है। यद्यपि ऐतिहासिक कारणों से इसके आदर्श और व्यवहार में अंतर रहा है, जो मानव स्वभाव को देखते हुए स्वाभाविक है, तथापि इसकी कल्पना और आंशिक व्यवहार अपने आप में गुरुत्व रखते हैं। इस विषय पर डॉयसन (एनसाइक्लोपीडिया ऑव रेलिजन ऐंड एथिक्स-'आश्रम' शब्द) का निम्नांकित मत उल्लेखनीय है: मनु तथा अन्य धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित आश्रम की प्रस्थापना से व्यवहार का कितना मेल था, यह कहना कठिन है; किंतु यह स्वीकार करने में हम स्वतंत्र हैं कि हमारे विचार में संसार के मानव इतिहास में अन्यत्र कोई ऐसा (तत्व या संस्था) नहीं है जो इस सिद्धांत की गरिमा की तुलना कर सके।.

संदर्भ ग्रंथ

  • मनुस्मृति (अध्याय ३, ४, ५, तथा);
  • पी.वी.काणे: हिस्ट्री ऑव धर्मशास्त्र, भाग२, खंड १, पृ. ४१६-२६;
  • भगवानदास: सायंस ऑव सोशल आर्गेनाइज़ेशन, भाग१;
  • राजबली पांडेय: हिंदू संस्कार, धार्मिक तथा सामाजिक अध्ययन, चौखंभा भारती भवन, वाराणसी;
  • हेस्टिंग्ज़: एनसाइक्लोपिडिया ऑव रेलिजन ऐंड एथिक्‌स, 'आश्रम' शब्द।