आनन्द (भारतीय दर्शन)

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वेद, उपनिषद और भगवद्गीता के अनुसार आनन्द वह स्थिति है जिसकी प्राप्ति होने के बाद पुनर्जन्म का चक्र समाप्त हो जाता है।

इस विचारधारा के अनुसार संसार के नश्वर पदार्थों के उपभोग से उत्पन्न आनंद नाश्वान्‌ है। अत: प्राणी को अविनाशी आनन्द की खोज करनी चाहिए। इसके लिए हमें इस संसार का त्याग करना पड़े तो वह भी स्वीकार होगा। उपनिषदों में सर्वप्रथम इस विचारधारा का प्रतिपादन मिलता है। मनुष्य की इंद्रियों को प्रिय लगनेवाला आनंद (प्रेय) अंत में दु:ख देता है। इसलिए उस आनंद की खोज करनी चाहिए जिसका परिणाम कल्याणकारी हो (श्रेय)। आनन्द का मूल आत्मा मानी गई है और आत्मा को आनन्दरूप कहा गया है। विद्वान्‌ संसार में भटकने की अपेक्षा अपने आप में स्थित आनन्द को ढूँढ़ते हैं। आनन्दावस्था जीव की पूर्णता है। अपनी शुद्ध आत्मा को प्राप्त करने के बाद आनन्द अपने आप प्राप्त हो जाता है। उपनिषदों के दर्शन को आधार मानकर चलनेवाले सभी धार्मिक और दार्शनिक संप्रदायों में आनंद को आत्मा की चरम अभिव्यक्ति माना गया है। शंकर, रामानुज, मध्व, वल्लभ, निम्बार्क, चैतन्य और तांत्रिक संप्रदाय तथा अरविन्द दर्शन किसी न रूप में आनंद को आत्मा की पूर्णता का रूप मानते हैं।

बौद्ध दर्शन में संसार को दुःखमय माना गया है। दुःखमय संसार को त्यागकर निर्वाणपद प्राप्त करना प्रत्येक बौद्ध का लक्ष्य है। निर्वाणावस्था को आनन्दावस्था और महासुख कहा गया है। जैन संप्रदाय में भी शरीर घोर कष्ट देने के बाद नित्य 'ऊर्ध्वगमन' करता हुआ असीम आनन्दोपलब्धि करता है। पूर्वमीमांसा में सांसारिक आनन्द को 'अनर्थ' कहकर तिरस्कृत किया गया है और उस धर्म के पालन का विधान है जो वेदों द्वारा विहित है और जिसका परिणाम आनन्द है।

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें