आंत्रावरोध

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इस एक्स-रे में छोटा सा आन्त्रावरोध दिख रहा है।

अन्नमार्ग लगभग २५ फुट लंबी एक नली है जिसका कार्य खाद्यपदार्थ को इकट्ठा करना, पचाना, सूक्ष्म रूपों में विभाजित कर रक्त तक पहुँचा देना एवं निरर्थक अंश को निष्कासित करना है। आंत्रावरोध या बद्धांत्र (Bowel obstruction या Intestinal obstructions) वह दशा है जब किसी कारणवश आंत्रमार्ग में रुकावट आ जाती है। इससे उदर शूल (पेटदर्द), वमन तथा कब्ज आदि लक्षण प्रकट होते हैं। उचित चिकित्सा के अभाव में यह रोग घातक सिद्ध हो सकता है। आंत्रावरोध एक चिकिसीय आपातस्थिति (मेडिकल इमर्जेन्सी) है।

लक्षण तथा चिह्न

आंत्रावरोध के लक्षण एवं चिह्न रुकावट के कारणों, स्थान और समय पर निर्भर करते हैं। यदि इस रुकावट के साथ ही रक्तसंचार भी रुक गया है, तो उसे स्ट्रैंगुलेटेड या रक्तावरोध बद्धांत्र कहते हैं।

सर्वप्रथम पेट में रुक रुक कर शूल होता है। पेट में गुड़गुड़ाहट सुनाई पड़ सकती है। आंत्र ध्वनि तीव्र हो जाती है। ऊपरी आंत्र की रुकावट में वमन जल्दी प्रारंभ होता है, निचले भाग की रुकावट में बाद में। अधिक वमन होने से रक्त से जल तथा लवण निकल जाते हैं जिससे जिह्वा सूखती है, आँखें धँस जाती हैं, नाड़ी की गति तीव्र हो जाती है, तथा स्पर्श मुश्किल से महसूस होता है, त्वचा की संकुचनशीलता कम हो जाती है।

निचली आंत्र की रुकावट में पेट का फूलना अधिक होता है, क्योंकि वायु तथा जल वमन द्वारा नहीं निकल पाते। पेट पर अँगुली रखकर दूसरे हाथ की अँगुली से ठोकने से वायु का पता लगता है। ऐक्स-रे द्वारा भी आंत्र की रुकावट का पता लग सकता है।

कब्जियत, आंत्रावरोध का विशेष लक्षण है, ऐसी कब्जियत जिसमें अपान वायु तक न निकले।

रक्तावरोध होने पर ठंडी चिपचिपी त्वचा, तीव्र किंतु हल्की नाड़ी, सूखी गंदी जिह्वा, रक्ताभार में कमी, लगातार दर्द आदि लक्षण भी मिलते हैं। अधिक देर तक रक्तावरोध होने से आंत्र का उतना हिस्सा निर्जीव हो जाता है। उदर के स्पर्श से अत्यंत पीड़ा होती है।

कारण

(१) सिकुड़न (stricture) - दो प्रकार का होता है : जन्मजात और अर्जित। जन्मजात - गर्भावस्था में ही जब आंत्र का कुछ हिस्सा बंद रह जाए या अंतिम भाग में छिद्र का अभाव हो। अर्जित - चोट, शोथ, अर्बुद, अम्ल अथवा क्षय रोग के कारण जब आंत्र मार्ग में सिकुड़न हो जाए।

(२) बाह्य पदार्थ - आंत्रमार्ग में जब मल जम जाने या पित्त की थैली की अष्टि (stone) के कारण रुकावट हो।

(३) बाहरी दबाव - उदर के भीतर जब किसी अर्बुद के दबाव के कारण आंत्रमार्ग के कारण आंत्रमार्ग अवरुद्ध हो जाए।

(४) आसंजक बंध - इसमें बंध, शल्यक्रिया अथवा उंडुक, पित्ताशय आदि के प्रदाह के कारण उत्पन्न होते हैं।

(५) हर्निया या आँत उतरना - इसमें आंत्र का कुछ हिस्सा वंक्षण, आंत्र योजनी, मध्यच्छद या किसी अन्य छिद्र द्वारा बाहर आ जाता है तथा छिद्र की कसावट के कारण वापस नहीं जा पाता।

(६) ऐंठन - आंत्र का कुछ हिस्सा जब अपनी आंत्रयोजनी पर ही ऐंठ जाए तथा आंत्रमार्ग अवरुद्ध हो जाए। इसे बालवुलस (volvulus) कहते हैं।

(७) अंतराधान (Intussusception) - जब छोटी आंत्र का एक हिस्सा किसी कारणवश अपने पास के हिस्से के भीतर घुस जाए।

(८) अन्य कारण - उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त भी कुछ जन्मजात या अर्जित कारण बद्धांत्र उत्पन्न कर सकते हैं।

(९) इलियस (Ileus) - इस दशा में किसी स्नायुरोग अथवा लवण असंतुलन, जैसे पोटैशियम क्लोराइड या सोडियम की कमी के कारण आंत्र की गति रुक जाती है।

(१०) रक्तसंचार में रुकावट - आंत्रशिरा अथवा धमनी में रक्त जम जाने से आंत्र कार्य करना बंद कर देता है।

चिकित्सा

चिकित्सा प्रारंभ करने के पूर्व तीन बातों का उत्तर पा लेना आवश्यक है :

(१) क्या आंत्रावरोध है?
(२) क्या रक्तावरोध भी है?, तथा
(३) रुकावट किस स्थान पर है?

चिकित्सा का उद्देश्य रुकावट दूर कर आंत्रमार्ग को बनाए रखना है। इसके लिए शल्यक्रिया की आवश्यकता पड़ती है किंतु जब अत्यधिक वमन के कारण शरीर से जल तथा लवण निकल जाते हैं तब पहले शिरा में नमकयुक्त जल पर्याप्त मात्रा में इंजेक्शन द्वारा पहुँचाना आवश्यक है।

वमन तथा पेट फूलना रोकने के लिए रबर की लंबी नली, जैसे राइल्स ट्यूब, नाक या मुँह द्वारा आमाशय के भीतर पहुंचा दी जाती है तथा इसमें से पिचकारी द्वारा द्रव खींचकर बाहर निकालते हैं।

पहले बद्धांत्र की चिकित्सा के लिए लंबी रबर की नली मुँह द्वारा आमाशय तथा उसके आगे क्षुद्रांत्र में डाली जाती थी और उसमें से वायु तथा द्रव पदार्थ बाहर निकाले जाते थे। किंतु इसमें कई घंटे लग जाते हैं तथा सफलता निश्चित नहीं होती।

शल्यक्रिया द्वारा रोगी को बेहोश करने के बाद उदर खोला जाता है तथा वहाँ रुकावट का जो कारण मिलता है, उसे दूर किया जाता है। ऐंठन ठीक की जाती है, आसंजक बंध काटा जाता है। यदि रक्तावरोध के कारण आंत्र का कुछ हिस्सा निर्जीव हो जाता है, तो उसे भी काटकर बाहर निकालना पड़ता है तथा दोनों सिरों को जोड़ दिया जाता है। शिरा में आवश्यकता पड़ने पर अतिरिक्त रक्त भी दूसरे स्वस्थ-व्यक्ति से लेकर पहुँचाया जाता है।