अस्तित्ववाद

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किर्कगार्द, दास्त्रावस्की, नीत्शे तथा सार्त्र (बाएँ से दाएँ, ऊपर से नीचे)

अस्तित्ववाद (एग्जिस्टेशन्शिएलिज़्म / existentialism) अस्तित्ववाद मानव केंद्रित दृष्टिकोण हैं अर्थात् वह सम्पूर्ण जगत में मानव को सबसे अधिक प्रदान करता हैं उसकी दृष्टि में मानव एकमात्र साध्य है । प्रकृति के शेष उपादान "वस्तु" है

  • मानव का महत्व उसकी "आत्‍मनिष्‍ठता" मे हैं न कि उसकी "वस्‍तुनिष्‍ठता" में। विज्ञान,तकनीक के विकास और बुद्‍धिवादी दार्शनिकों ने मानव को एक "वस्तु" बना दिया है जबकि मानव की पहचान उसके अनूठे व्यक्तित्व के आधार पर होनी चाहिए ।
  • सार्त्र के अनुसार मनुष्य स्वतंत्र प्राणी हैं। यदि ईश्वर का अस्तित्व होता तो वह संभवतः मनुष्य को अपनी योजना के अनुसार बनाता। किंतु सार्त्र का दावा है कि ईश्वर नहीं है अतः मनुष्य स्वतंत्र है
  • स्वतंत्रता का अर्थ है- चयन की स्वतंत्रता। मनुष्य के सामने विभिन्न स्थितियों में कई विकल्प उपस्थित होते हैं। स्वतंत्र व्यक्ति वह है जो उपयुक्त विकल्प का चयन अपनी अंतरात्मा के अनुसार करता है, न कि किसी बाहरी दबाव में। कीर्केगार्द ने कहा भी है कि 'महान से महान व्यक्ति की महानता भी संदिग्ध रह जाती है, यदि वह अपने निर्णय को अपनी अंतरात्मा के सामने स्पष्ट नहीं कर लेता'।

19401950 के दशक में अस्तित्ववाद पूरे यूरोप में एक विचारक्रांति के रूप में उभरा। यूरोप भर के दार्शनिक व विचारकों ने इस आंदोलन में अपना योगदान दिया है। इनमें ज्यां-पाल सार्त्र, अल्बर्ट कामूइंगमार बर्गमन प्रमुख हैं।

कालांतर में अस्तित्ववाद की दो धाराएं हो गई।

परिचय

अस्तित्ववादी विचार या प्रत्यय की अपेक्षा व्यक्ति के अस्तित्व को अधिक महत्त्व देते हैं। इनके अनुसार सारे विचार या सिद्धांत व्यक्ति की चिंतना के ही परिणाम हैं। पहले चिंतन करने वाला मानव या व्यक्ति अस्तित्व में आया, अतः व्यक्ति अस्तित्व ही प्रमुख है, जबकि विचार या सिद्धांत गौण। उनके विचार से हर व्यक्ति को अपना सिद्धांत स्वयं खोजना या बनाना चाहिए, दूसरों के द्वारा प्रतिपादित या निर्मित सिद्धांतों को स्वीकार करना उसके लिए आवश्यक नहीं। इसी दृष्टिकोण के कारण इनके लिए सभी परंपरागत, सामाजिक, नैतिक, शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक सिद्धांत अमान्य या अव्यावहारिक सिद्ध हो जाते हैं। उनका मानना है कि यदि हम दुख एवं मृत्यु की अनिवार्यता को स्वीकार कर लें तो भय कहाँ रह जाता है।

अस्तित्वादी के अनुसार दुख और अवसाद को जीवन के अनिवार्य एवं काम्य तत्त्वों के रूप में स्वीकार करना चाहिए। परिस्थितियों को स्वीकार करना या न करना व्यक्ति की ही इच्छा पर निर्भर है। इनके अनुसार व्यक्ति को अपनी स्थिति का बोध दु:ख या त्रास की स्थिति में ही होता है, अतः उस स्थिति का स्वागत करने के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए। दास्ताएवस्की ने कहा था- ‘‘यदि ईश्वर के अस्तित्व को मिटा दें तो फिर सब कुछ (करना) संभव है।’’

विक्टर इ फ्रान्कल द्वारा अस्तित्ववाद का अनुकरण

विक्टर इ फ्रान्कल एक लेखक और मनोचिकित्सक भी हैंI वह विएन्ना चिकित्सा विद्यालय के विश्वविद्यालय में मनोरोग और न्यूरोलॉजी के प्राध्यापक रहे I उनकी मृत्यु सन १९७७ में हुई I उनकी करीब बतीस किताबे चबीस भाषाओँ में अनुवादित की जा चुकी हैंI विश्व युद्ध II के समय उन्होंने अपने तीन साल ऑस्च्वित्ज़, दचाऊ और कई अलग एकाग्रता शिविर (Concentration Camps) में बिताये I

उन्होंने अपनी पुस्तक “मैनस सर्च फॉर मीनिंग”, में लोगोथेरेपी नाम के चिकित्सा के बारें में विस्तार में बताया हैं और यही नही इसी पुस्तक में उन्होंने मृत्यु शिविर से अस्तित्ववाद तक के यात्रा के विषय में अपने अनुभव के बहुत सी झलकियाँ दी हैI लोगोथेरेपी को अपना मूल विषय समझकर ही उन्होंने अस्तित्ववाद को परिभाषित करना चाहा और वे कही हद तक इस में सफल भी रहे। लोगोस एक ग्रीक शब्द हैं जिसका शुद्ध रूप हैं ‘अर्थ। लोगोथेरेपी एक मनुष्य के अस्तित्व व मनुष्य के अर्थ की खोज पर धारित हैंI लोगोथेरेपी के आधार पर जीवन में अर्थ के खोज का प्रयास एक मनुष्य का सबसे प्रथम प्रेरक बल हैं। इसी कारण फ्रान्कल ने उच्च महत्त्व जीवन के अर्थ को दिया हैं ना कि आनंद को।

अस्तित्व कुंठा

मनुष्य के अर्थ के खोज की धारा में हताशा या निराशा का भी बहुत बड़ा भाग होता हैंI लोगोथेरेपी ने इसे अस्तित्व कुंठा का नाम दिया हैंI ‘अस्तित्व’ शब्द को तीन तरीके से उपयोग में डाला जा सकता हैंI (१) अस्तित्व जो अपने आप में अर्थ हैं यानि मनुष्य के जीवन का आधारI[१] (२) अस्तित्व का अर्थ, (३) व्यक्तिगत अस्तित्व में ठोस अर्थ के खोज का प्रयासI इस हताशा का परिणाम न्युरोसिस भी हो सकता हैंI विक्टर इ फ्रान्कल अपने मरीजों के तकलीफ द्वारा एक बहुत बड़े प्रश्न को उठाते हैं जो आज के जीवन में सबकी दुर्बलता का कारण बन चुकी हैं, वह हैं ज़िन्दगी में अर्थहीनता का प्रवासI ऐसी तकलीफ अधिकतर उन लोगो में देखी गयी जो मृत्यु शिविर से बच निकलेI इन लोगो में ज़िन्दगी को जीने कि उत्सुकता ही नहीं रहीI उनके ज़ेहन में खोखलापन ही रहा क्यूंकि वे आतंरिक अकेलेपन से गुज़रते हैंI इस खोक्लेपन याह अकेलेपन को जिससे हर इंसान झूझता हैं उसे विक्टर इ फ्रान्कल ने अस्तित्व वाक्युम का नाम दियाI

अस्तित्व शून्यता

अस्तित्व वाक्यूम[१] एक ऐसी घटना हैं जो बीसवी सदी में बहुत ही विख्यात हुई हैंI अस्तित्व वक्युम कि शुरुवात उदासी से होती हैंI इसी अवसर पर फ्रान्कल ‘रविवार न्युरोसिस’[१] के बारें में स्पष्ट करते हैंI यह एक तरीके का अवसाद हैं जिसमे व्यक्ति अपने जीवन में संतोष की कमी को महसूस करता हैं और इसका एहसास उसे तब होता हैं जब वह हफ्ते भर के भाग-दोड़ के बाद अपने जीवन के अकेलेपन को महसूस करता हैंI फ्रान्कल के हिसाब से शराबीपन और बाल अपराध के कारणों को तब तक समझा नहीं जा सकता जब तक उससे दबे हुए अस्तित्व वक्युम को मान्यता नहीं मिलतीI यही कारण वृद्ध लोगो और पेंशनर के स्तिथियों में भी लागू होती हैंI यह अस्तित्व वक्युम अलग अलग भेष धारण करते हैं और जीवन के भिन्न भिन्न पहलूओं में मनुष्य के समक्ष प्रस्तुत होती हैंI इनमें से कुछ शक्ति की इच्छा या धन की इच्छा हो सकती हैं जो अर्थ के खोज में मनुष्य के राह को धुंधला कर देती हैंI यह अस्तित्व कुंठा का ही परिणाम हैं जिससे यौन लिबिडो (Sexual libido)[१] भी अनियंत्रत हो जाती हैंI

अस्तित्ववाद का सार

लोगोथेरेपी की कोशिश हमेशा यही रहती हैं कि मरीजों को पूरी तरह से अपने कर्तव्य के तरफ मोड़ा जाएI ताकि वह यह समझ सके कि वे किसके लिए, किस लिए और क्यों कर्तव्य से बंधे हुए हैंI फ्रान्कल का यह कहना हैं कि जीवन का वास्तविक अर्थ स्वयं के मानस में नहीं बल्कि संसार में हैंI उसी तरह मानव के अस्तित्त्व का असली उद्देश्य आत्म परिचय से नहीं होताI उसका सार आत्म श्रेष्टता से प्राप्त होती हैंI फ्रान्कल इस बात को न्याय सिद्ध करने के लिए तर्क यह लाते हैं कि आत्म परिचय कभी भी जीवन का आधार नहीं बन सकता क्यूंकि मानव जितना उसे पाने का प्रयत्न करेगा वह उतना उसको खोएगाI

संसार को स्वयं कि अभिव्यक्ति कभी नहीं समझना चाहिए, ना ही संसार को एक मात्र साधन याह आत्म परिचय को प्राप्त करने का उपायI इससे यही आशय स्पष्ट होता हैं कि जीवन का अर्थ स्थिर नहीं है, पर इसका कोई छोर भी नहीं हैंI लोगोथेरेपी के अंतर्गत हम जीवन के अर्थ तीन तरीके से ढूंढ सकते हैं: (१) कर्म के माध्यम से[१]; (२) किसी के याह किसी वास्तु के मूल्य को अनुभव करके; (३) पीड़ा सेI पहले तरीके को पूर्ण करना अत्यंत लाभदायक हैI दुसरे और तीसरे तरीको में पुनः विस्तार कि आवश्यकता हैंI दूसरा तरीका जिससे जीवन में अर्थ का प्रवेश होता हैं वो अनुभवों से ही प्राप्त होता हैं, यह शिक्षा हमें प्रकृति से हो सकती हैं या फिर संस्कृति से या फिर किसी को अनुभव करके भी यानि प्रेम के द्वाराI प्रेम ही वह एक ढाल हैं जिससे मनुष्य के अंतरात्मिक व्यक्तित्व को सींचा जा सकता हैंI कोई भी किसी मनुष्य को तब तक नहीं जान सकता या समझ सकता जब तक प्रेम भाव कि उत्पत्ति नहीं होतीI प्रेम को अध्यात्मिक रूप के अनुसार अगर डाला जाए तो उससे वह दुसरे मनुष्य के महत्वपूर्ण लक्षण को देख सकता हैं, वही मनुष्य जिससे वह प्रेम करता होI इससे भी अधिक वह अपने सामर्थ्य कि पुष्टि हो जाती है जो आत्म परिचय के राह पर बहुत बड़ा कदम हैI इससे दोनों व्यक्ति अपने सामर्थ्य को पहचान जाते हैंI

तीसरा तरीका जो मनुष्य को अपने जीवन के अर्थ को खोजने में सहायता करता हैं वह है पीढ़ाI मनुष्य जब भी असहाय या ऐसी परिस्थिति से गुज़रता है जिसका परिणाम उनके हाथ में न हो जैसे: कोई लाइलाज बीमारी[१], उसी वक्त एक इंसान को अपनी पहचान को बोध करना का भरपूर मौका मिलता है, अर्थात कष्ट को झेलकर जीवन का सबसे बड़ा अर्थ पाने का अवसर मिलता हैंI इसमें कष्ट कि तरफ व्यक्ति का नज़रिया भी पीढ़ा को झेलने कि ताकत देता हैI

सन्दर्भ

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फ्रान्कल, विक्टर इ. मैनस सर्च फॉर मीनिंग. मुंबई, भारत: बेटर योरसेल्फ बुक्स. पृष्ट. 135–141, 148–156. ISBN 978-81-7108-638-2.

बाहरी कड़ियाँ