असुर (आदिवासी)
असुर भारत में रहने वाली एक प्राचीन आदिवासी समुदाय है। असुर जनसंख्या का घनत्व मुख्यतः झारखण्ड और आंशिक रूप से पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में है। झारखंड में असुर मुख्य रूप से गुमला, लोहरदगा, पलामू और लातेहार जिलों में निवास करते हैं। असुर जनजाति के तीन उपवर्ग हैं- बीर असुर, विरजिया असुर एवं अगरिया असुर. बीर उपजाति के विभिन्न नाम हैं, जैसे सोल्का, युथरा, कोल,इत्यादि. विरजिया एक अलग आदिम जनजाति के रूप में अधिसूचित है।
इतिहास
असुर हजारों सालों से झारखण्ड में रहते आए हैं। मुण्डा जनजाति समुदाय के लोकगाथा ‘सोसोबोंगा’ में असुरों का उल्लेख मिलता है जब मुण्डा 600 ई.पू. झारखण्ड आए थे। असुर जनजाति प्रोटो-आस्ट्रेलाइड समूह के अंतर्गत आती है।[१] ऋग्वेद तथा ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद्, महाभारत आदि ग्रन्थों में असुर शब्द का अनेकानेक स्थानों पर उल्लेख हुआ है। बनर्जी एवं शास्त्री (1926) ने असुरों की वीरता का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे पूर्ववैदिक काल से वैदिक काल तक अत्यन्त शक्तिशाली समुदाय के रूप में प्रतिष्ठित थे। मजुमदार (1926) का मानना है कि असुर साम्राज्य का अन्त आर्यों के साथ संघर्ष में हो गया। प्रागैतिहासिक संदर्भ में असुरों की चर्चा करते हुए बनर्जी एवं शास्त्री ने इन्हें असिरिया नगर के वैसे निवासियों के रूप में वर्णन किया है, जिन्होंने मिस्र और बेबीलोन की संस्कृति अपना ली थी और बाद में उसे भारत और इरान तक ले आये। भारत में सिन्धु सभ्यता के प्रतिष्ठापक के रूप में असुर ही जाने जाते हैं। राय (1915, 1920) ने भी मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से असुरों को संबंधित बताया है। साथ ही साथ उन्हें ताम्र, कांस्य एवं लौह युग तक का यात्री माना है। पुराने राँची जिले में भी असुरों के निवास की चर्चा करते हुए सुप्रसिद्ध नृतत्वविज्ञानी एस सी राय (1920) ने उनके किले एवं कब्रों के अवशेषों से सम्बधित लगभग एक सौ स्थानों, जिसका फैलाव इस क्षेत्र में रहा है, पर प्रकाश डाला है।
जनसंख्या
भारत में असुरों की जनसंख्या 1991 की जनगणना[२] के अनुसार केवल 10,712 ही रह गयी है वहीं झारखण्ड में असुरों की जनसंख्या 7,783 है।[३] झारखंड के नेतरहाट इलाके में बॉक्साइट खनन के लिए जमीन और उसके साथ अपनी जीविका गँवा देने के बाद असुरों के अस्तित्व पर संकट आ गया है।
व्यवसाय
असुर दुनिया के लोहा गलाने का कार्य करने वाली दुर्लभ धातुविज्ञानी आदिवासी समुदायों में से एक है। इतिहासकारों और शोधकर्ताओं का यह मानना है यह प्राचीन कला भारत में असुरों के अलावा अब केवल अफ्रीका के कुछ आदिवासी समुदायों में ही बची है। असुर मूलतः कृषिजीवी नहीं थे लेकिन कालांतर में उन्होंने कृषि को भी अपनाया है। आदिकाल से ही असुर जनजाति के लोग लौहकर्मी के रूप में विख्यात रहे हैं। इनका मुख्य पेशा लौह अयस्कों के माध्यम से लोहा गलाने का रहा है। पारंपरिक रूप से असुर जनजाति की आर्थिक व्यवस्था पूर्णतः लोहा गलाने और स्थानान्तरित कृषि पर निर्भर थी, लोहा पिघलाने की विधि पर गुप्ता (1973) ने प्रकाश डालते हुए लिखा है कि नेतरहाट पठारी क्षेत्र में असुरों द्वारा तीन तरह के लौह अयस्कों की पहचान की गयी थी। पहला पीला, (मेग्नीटाइट), दूसरा बिच्छी (हिमेटाइट), तीसरा गोवा (लैटेराइट से प्राप्त हिमेटाइट). असुर अपने अनुभवों के आधार पर केवल देखकर इन अयस्कों की पहचान कर लिया करते थे तथा उन स्थानों को चिन्हित कर लेते थे। लौह गलाने की पूरी प्रक्रिया में असुर का सम्पूर्ण परिवार लगा रहता था।
सामाजिक संगठन
असुर समाज 12 गोत्रों में बँटा हुआ है। असुर के गोत्र विभिन्न प्रकार के जानवर, पक्षी एवं अनाज के नाम पर है। गोत्र के बाद परिवार सबसे प्रमुख होता है। पिता परिवार का मुखिया होता है। असुर समाज असुर पंचायत से शासित होता है। असुर पंचायत के अधिकारी महतो, बैगा, पुजार होते हैं।
भाषा एवं साहित्य
आदिम जनजाति असुर की भाषा मुण्डारी वर्ग की है जो आग्नेय (आस्ट्रो एशियाटिक) भाषा परिवार से सम्बद्ध है। परन्तु असुर जनजाति ने अपनी भाषा की असुरी भाषा की संज्ञा दिया है। अपनी भाषा के अलावे ये नागपुरी भाषा तथा हिन्दी का भी प्रयोग करते हैं। असुर जनजाति में पारम्परिक शिक्षा हेतु युवागृह की परम्परा थी जिसे ‘गिति ओड़ा’ कहा जाता था। असुर बच्चे अपनी प्रथम शिक्षा परिवार से शुरू करते थे और 8 से 10 वर्ष की अवस्था में ‘गिति ओड़ा’ के सदस्य बन जाते थे। जहाँ वे अपनी मातृभाषा में जीवन की विभिन्न भूमिकाओं से सम्बन्धित शिक्षा, लोकगीतों और कहावतों के माध्यम से सीखा करते थे, विभिन्न उत्सव और त्यौहारों के अवसर पर इनकी भागीदारी भी शिक्षा का एक अंग था। इस तरह की शिक्षा उनके लिए कठिन नहीं थी फलतः वे खुशी-खुशी इसमे भाग लिया करते थे। ‘गिति ओड़ा’ की यह परम्परा असुर समुदाय में साठ के दशक तक प्रचलित थी पर उसके बाद से इसमें निरन्तर ह्रास होता गया और वर्त्तमान समय में यह पूर्णतः समाप्त हो चुका है। असुर भाषा का व्याकरण एवं शब्दकोश अभी तक नहीं है। साहित्य की एकमात्र प्रकाशित एवं सुषमा असुर और वंदना टेटे द्वारा संपादित पुस्तक ‘असुर सिरिंग’ (2010) है। इसमें असुर पारंपरिक लोकगीतों के साथ कुछ नये गीत शामिल हैं। असुर आदिवासी समुदाय पर के के ल्युबा की ‘द असुर’, वैरियर एल्विन की ‘अगरिया’ और ट्राईबल रिसर्च इंस्टीच्युट, रांची से ‘बिहार के असुर’ पुस्तक प्रकाशित है।
धर्म और पर्व-त्यौहार
असुर प्रकृति-पूजक होते हैं। ‘सिंगबोंगा’ उनके प्रमुख देवता है। ‘सड़सी कुटासी’ इनका प्रमुख पर्व है, जिसमें यह अपने औजारों और लोहे गलाने वाली भट्टियों की पूजा करते हैं। असुर महिषासुर को अपना पूर्वज मानते है। हिन्दू धर्म में महिषासुर को एक राक्षस (असुर) के रूप में दिखाया गया है जिसकी हत्या दुर्गा ने की थी। पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में दुर्गा पूजा के दौरान असुर समुदाय के लोग शोक मनाते है।[४]
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली में पिछले कुछ सालों से एक पिछड़े वर्ग के छात्र संगठन ने ‘महिषासुर शहीद दिवस’ मनाने की शुरुआत की है।[५]
चुनौतियाँ
वर्तमान समय में झारखण्ड में रह रहे असुर समुदाय के लोग काफी परेशानियों का सामना कर रहे हैं। समुचित स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, परिवहन, पीने का पानी आदि जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी इन्हें उपलब्ध नहीं है। लोहा गलाने और बनाने की परंपरागत आजीविका के खात्मे तथा खदानों के कारण तेजी से घटते कृषि आधारित अर्थव्यवस्था ने असुरों को गरीबी के कगार पर ला खड़ा किया है। नतीजतन पलायन, विस्थापन एक बड़ी समस्या बन गई है। गरीबी के कारण नाबालिग असुर लड़कियों की तस्करी अत्यंत चिंताजनक है। ईंट भट्ठों और असंगठित क्षेत्र में मिलनेवाली दिहाड़ी मजदूरी भी उनके आर्थिक-शारीरिक और सांस्कृतिक शोषण का बड़ा कारण है। नेतरहाट में बॉक्साइट खनन की वजह से असुरों की जीविका छीन गयी है और खनन से उत्पन्न प्रदूषण से इनकी कृषि भी बुरी तरह प्रभावित हुई है। पहले से ही कम जनसंख्या वाले असुर समुदाय की जनसंख्या में पिछले कुछ सालों में कमी आई है। इन दिनों असुर समुदाय से आने वाली एक युवा सुषमा असुर, जो नेतरहाट में रहती हैं, अपने समुदाय की कला-संस्कृति और अस्तित्व को बचाने के लिए प्रयासरत है।[६]