अल्फ्रेड मार्शल

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
अल्फ्रेड मार्शल

स्क्रिप्ट त्रुटि: "sidebar" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। अल्फ्रेड मार्शल (Alfred Marshall ; 26 जुलाई 1842 – 13 जुलाई 1924) अपने समय के सबसे प्रभावशाली अर्थशास्त्री थे। उनकी 'प्रिंसिपल्स ऑफ इकनॉमिक्स' (१८९०) अनेकों वर्षों तक इंग्लैण्ड में अर्थशास्त्र की पाठ्यपुस्तक के रूप में पढ़ायी जाती रही। इसमें मांग और आपूर्ति, मार्जिनल युटिलिटी तथा उत्पादन लागत को व्यवस्थित रूप दिया। मार्शल की गणना अर्थशास्त्र के प्रमुख संस्थापकों में की जाती है।

परिचय

Elements of economics of industry, 1892

अर्थशास्त्र को एक स्वतंत्र बौद्धिक अनुशासन के रूप में स्थापित करने का श्रेय अल्फ़्रेड मार्शल (1842-1924) को जाता है। 1885 से पहले अर्थशास्त्र एक विषय के रूप में दर्शनशास्त्र और इतिहास के पाठ्यक्रम का अंग हुआ करता था। इतिहासकार और दार्शनिक अपनी डिग्री लेने की मजबूरी में अध्ययन थे। मार्शल ने इसे न केवल एक स्वतंत्र संस्थागत आधार दिया, बल्कि इसके वैज्ञानिक मानकों को भौतिकी और जीव वैज्ञानिक स्तरों तक उठा दिया। 1903 में मार्शल की कोशिशों को उस समय कामयाबी मिली जब केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के अलग अध्ययन और डिग्री की शुरुआत हुई। जल्दी ही विश्व भर के अन्य अकादमिक संस्थानों ने अर्थशास्त्र को एक पृथक अनुशासन के रूप में स्वीकार कर लिया। अर्थशास्त्र में बहुत से नये विचारों को स्थापित करने और संस्थागत रूप से इस अनुशासन को एक नये धरातल पर ले जाने की उपलब्धि के लिए अल्फ़्रेड मार्शल का नाम समाज-विज्ञान के इतिहास में शीर्ष स्थान का अधिकारी है। मार्शल ने आर्थिक धारणाओं को सहज ग्राफ़ों में अनूदित करके ‘डायग्रामैटिक इकॉनॉमिक्स’ का सूत्रपात किया। मार्शल की ख़ूबी यह थी कि उन्होंने अपनी धारणाओं की इन ग्राफ़ीय अभिव्यक्तियों को आर्थिक विश्लेषण का अंग बनाने में सफलता हासिल की। उन्होंने आर्थिक विज्ञान को व्यावहरिक बनाने का प्रयास किया ताकि उसकी मदद से सरकारी अधिकारी, राजनेता और व्यापारी अहम फ़ैसले ले सकें। 1890 में प्रकाशित अपनी विख्यात रचना प्रिंसिपल्स ऑफ़ इकॉनॉमिक्स में अल्फ़्रेड मार्शल ने माँग और आपूर्ति का विस्तृत विश्लेषण करके नियोक्लासिकल पद्धति का ढाँचा तैयार किया। इस लिहाज़ से उन्हें नियोक्लासिकल अर्थशास्त्र के संस्थापक की संज्ञा भी दी जा सकती है।

लंदन के एक मज़दूरवर्गीय इलाके में पैदा हुए अल्फ़्रेड मार्शल के पिता बैंक ऑफ़ इंग्लैण्ड में क्लर्क थे। साधारण परिवार के होने के बावजूद उनके पिता ने अपने बेटे को अच्छी शिक्षा दिलायी। वे चाहते थे कि मार्शल साहित्य का अध्ययन करें, परन्तु उनकी रुचि गणित में थी। अपने चाचा आर्थिक मदद से मार्शल ने केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में गणित, दर्शनशास्त्र और राजनीतिक अर्थशास्त्र की पढ़ाई की। दर्शन की सभी क्लासिकी रचनाएँ पढ़ने के बावजूद उन्होंने अर्थशास्त्र में महारत हासिल करने का फ़ैसला किया। कहा जाता है कि ग़रीब बस्तियों की बुरी हालत देख कर उन्हें लगा कि अर्थशास्त्री बन कर वे ग़रीबी की समस्या पर बेहतर विचार कर पायेँगे।

मार्शल ने बाज़ारों के एक दूसरे पर पड़ने वाले प्रभाव को नजरअंदाज करते हुए उनका अलग-अलग अध्ययन किया और 'पार्शियल इक्विलीबिरियम ऐनालिसिस' (आंशिक संतुलन-अवस्था) का प्रतिपादन किया। उन्होने दिखाया कि जब दाम बढ़ते हैं तो फ़र्में बाज़ार में और ज़्यादा जिंसों को लाती हैं। उन्होंने इसे 'आपूर्ति का नियम' की संज्ञा दी। जब कीमतें गिरती हैं तो उपभोक्ता बड़ी मात्रा में वस्तुएँ ख़रीदते हैं। यह मार्शल की निगाह में माँग का नियम था। माँग और आपूर्ति की यह कैंची न केवल अपनी कतर-ब्योंत के ज़रिये प्रत्येक वस्तु का दाम तय करती है, बल्कि उसकी उत्पादित होने वाली मात्रा भी इसी के ज़रिये निर्धारित होती है। जेवंस के माँग-चालित रवैये और रिकार्डो के आपूर्ति-चालित रवैये के विपरीत मार्शल ने ज़ोर दिया कि माँग और आपूर्ति दोनों मिल कर कीमतों और उत्पादन का निर्धारण करते हैं। वे मानते थे कि बाज़ार की प्रतियोगिता वास्तविक कीमतों को संतुलनावस्था की तरफ़ ले जाएगी। अगर दाम संतुलनावस्था से ऊपर होंगे तो उत्पादक अपना माल नहीं बेच पायेगा और चीज़ें उसके गोदाम में जमा होने लगेंगी। तब उसे संदेश मिलेगा कि उसे दाम गिराने ही हैं। अगर कीमतें संतुलनावस्था से नीचे रखी गयीं तो चीज़ें इतनी ज़्यादा बिकेंगी कि गोदाम ख़ाली हो जाएँगे और कमी पड़ जाएगी। व्यापारी इसे दाम बढ़ाने के संदेश के रूप में ग्रहण करेंगे।

मार्शल ने माना कि माँग और आपूर्ति की यह कैंची एक पेचीदा स्थापना है। इसलिए उन्होंने इसके दोनों फ़लकों का अलग-अलग विश्लेषण भी किया। उन्होंने देखा कि माँग किसी ख़ास वस्तु की उपयोगिता और उसके उपभोग से मिलने वाले संतोष से तय होती है। उपभोक्ता लगातार सर्वाधिक उपयोगिता की खोज में रहता है। अगर किसी जिंस के दाम ऊँचे होंगे तो वह उपयोगिता की तलाश में दूसरी जिंसों की तरफ़ चला जाएगा। उन्होंने माँग में होने वाले परिवर्तनों को उपभोक्ताओं द्वारा एक सी कीमत पर किसी एक वस्तु के ज़्यादा या कम ख़रीदे जाने के रूप में परिभाषित किया। डिमांड कर्व अगर बदलता है तो उसका कारण कई अन्य परिवर्तनों में तलाशा जा सकता है : समृद्धि के स्तर में बदलाव, आबादी में परिवर्तन, लोगों की अभिरुचियों में तब्दीली, अन्य वस्तुओं के दामों में उतार-चढ़ाव या भविष्य की कीमतों के बारे में बदली हुई प्रत्याशाएँ। इस लिहाज़ से ज़्यादा समृद्धि और बढ़ी हुई आबादी माँग बढ़ायेगी और कीमतें ऊपर जाएँगी। भविष्य में दाम बढ़ने का अंदेशा भी माँग बढ़ा सकता है। दूसरी चीज़ों के दाम बढ़ने से किसी चीज़ की माँग पर पड़ने वाले असर की व्याख्या मार्शल ने पूरक वस्तुओं (उपभोक्ताओं द्वारा एक साथ इस्तेमाल की जाने वाली चीज़ें) की धारणा का इस्तेमाल करके की। मसलन, अगर गैसोलिन के दाम बढ़ते हैं तो उससे जुड़ी हुई चीज़ों की माँग भी गिर जाएगी।

मार्शल ने दिखाया कि किस तरह आपूर्ति उत्पादन की लागत पर निर्भर करती है। उपभोक्ता अगर उपयोगिता और संतोष की तलाश में है तो उत्पादक मुनाफ़े को अधिकतम करने के फ़ेर में रहता है। यदि पैमाने के घटते हुए प्रतफल का नियम लागू किया जाए और कल-पुर्ज़ों और श्रम की कीमतें बढ़ रही हों तो उत्पादन की लागत भी बढ़ती है। ज़ाहिर है कि अगर व्यापारियों को बेहतर दाम नहीं मिलेंगे तो वे अधिक वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए तैयार नहीं होंगे। दूसरे, उत्पादन कितना भी ज़्यादा हो रहा हो, अगर मज़दूरी ऐसी स्थिति में उत्पादकों को कीमतें भी बढ़ानी पड़ेंगी। लेकिन अगर प्रौद्योगिकी बेहतर हो जाती है और प्रति इकाई श्रम कम ख़र्च करना पड़ता है तो आपूर्ति भी बढ़ेगी और दाम भी कम होंगे।

अधिकतर आर्थिक संबंध कार्य-कारण से बँधे होते हैं। मार्शल ने इस सिलसिले में इलास्टिसिटी या लोच की धारणा विकसित की। अगर किसी कारण या घटना का प्रभाव बहुत बड़ा पड़ता है तो वह संबंध इलास्टिक (लोचनीय) माना जाएगा और अगर कम पड़ता है तो इनइलास्टिक (अलोचनीय)। मार्शल ने लोचनीयता नापने का एक गणितीय फ़ार्मूला भी पेश किया। उनका मानना था कि अगर किसी वस्तु का विकल्प नहीं है और उपभोक्ता उसकी जगह किसी दूसरी का इस्तेमाल नहीं कर सकता तो वह वस्तु कीमतों के लिहाज़ से इनइलास्टिक रहेगी। दाम बढ़ने पर भी उसकी बिक्री कम नहीं होगी। मार्शल ने यह भी दिखाया कि माँग की इलास्टिसिटी किस तरह दामों पर निर्भर करती है। नमक के पैकेट की कीमत काफ़ी कम होती है, इसलिए अगर उसके दामों में बड़ा परिवर्तन हो जाए तो भी नमक उपभोक्ताओं को नमक के दाम इतने ज़्यादा नहीं लगेंगे कि उसकी माँग पर असर पड़े। लेकिन अगर कार के दामों में या कॉलेज की फ़ीस में वृद्धि हो जाए तो उपभोक्ताओं को दिक्कत होने लगेगी। मार्शल ने माँग की इलास्टिसिटी तय करने में समय की भूमिका पर भी ध्यान दिया। जो माँग आज इलास्टिक नहीं है यानी दाम बढ़ने पर भी कम नहीं हो रही है, वह कल इलास्टिक हो सकती है। जैसे, पेट्रोल मँहगा होने पर भी कारें कम बिकनी शुरू नहीं हुई। पर आगे चल कम ईंधन में अधिक चलने वाली कारें बनीं, लोगों ने कार-पूल करनी शुरू की। इससे पेट्रोल की माँग पर फ़र्क पड़ा।

दिलचस्प बात यह है कि अर्थशास्त्र को नीतिशास्त्र और इतिहास से अलग करने वाले इस विद्वान को आय के वितरण और ग़रीबी की समस्या में काफ़ी रुचि थी। उन्होंने श्रम-बाज़ार का भी अध्ययन किया जिसमें व्यापारी उपभोक्ता होता है, माँग करता है और समाज व परिवार आपूर्ति करता है। मार्शल ने देखा कि अगर मज़दूरी बढ़ जाए तो अकुशल मज़दूरों की सप्लाई बढ़ जाती है, पर प्रौद्योगिकी बेहतर होने से अकुशल श्रम की माँग लगातार गिरती है। इससे अकुशल मज़दूर कम तनख्वाह प्राप्त होने के कारण ग़रीबी में रहने के लिए अभिशप्त हैं। ख़ास बात यह है कि इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बावजूद मार्शल ने न तो न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाने की सिफ़ारिश की और न ही ग़रीबी कम करने के लिए कोई सुझाव दिया। उन्होंने केवल इतना सुझाव दिया कि अकुशल मज़दूरों को अपने परिवार का आकार सीमित रखना चाहिए।

मार्शल ज़्यादातर योगदान माइक्रोइकॉनॉमिक (व्यष्टिगत) किस्म का है, पर उन्होंने कुछ मैक्रोइकॉनॉमिक (समष्टिगत) योगदान भी किया है। क्रयशक्ति समता एक ऐसा ही सिद्धांत है जिसके तहत दो देशों के बीच मुद्रा की विनिमय दर बाज़ार के धरातल पर तय होती है। मसलन, अगर एक बर्गर अमेरिका में एक डॉलर में बिकता है और जापान में सौ येन में तो बाज़ार में एक डॉलर और सौ येन की क्रयशक्ति बराबर हुई, भले ही मुद्रा बाज़ार में एक डॉलर दस येन के बराबर माना जाता रहे।

मार्शल द्वारा किये गये बाज़ारों के अध्ययन की पहली आलोचना तो यह की जाती है कि उन्होंने एक बाज़ार के एक-दूसरे पर पड़ने वाले असर को नज़रअंदाज़ किया, इसलिए वे केवल आंशिक संतुलनावस्था के सिद्धान्त तक पहुँच पाये। जबकि लियोन वालरस ने बाज़ारों के अंतर्संबंधों का अध्ययन किया और सामान्य संतुलनावस्था का सिद्धांत प्रतिपादित करने में सफल रहे। मार्शल द्वारा किये गये ग़रीबी के कारणों के अध्ययन को भी आलोचनात्मक दृष्टि से देखा जाता है, क्योंकि वे अकुशल श्रमिकों की न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाने की कोई सिफ़ारिश नहीं करते। अर्थशास्त्र को स्वतंत्र संस्थागत आधार देने के लिए उनकी प्रशंसा तो की जाती है, पर साथ ही यह भी कहा जाता है कि दर्शन, नैतिकता और सामाजिक सरोकारों से आर्थिक विज्ञान को अलग करने के परिणाम थॉमस कार्लाइल की भाषा में उसे उत्तरोत्तर एक ‘मनहूस विज्ञान’ बनाने की तरफ़ ले गये।

सन्दर्भ

1. पीटर ग्रोइनवेगन (1995), अ सोरिंग ईगल : अल्फ़्रेड मार्शल 1842- 1924, एडवर्ड एल्गर, ब्रुकफ़ील्ड, वरमोंट.

2. मेनार्ड (1924), मार्शल 1842-1924’, इकॉनॉमिक जर्नल, 34, सितम्बर.

3. डेविड रीज़मेन (1990), द इकॉनॉमिक्स ऑफ़ अल्फ़्रेड मार्शल, सेंट मार्टिंस प्रेस, न्यूयॉर्क.

4. डेविड रीज़मेन (1990), अल्फ़्रेड मार्शल्स मिशन, सेंट मार्टिंस प्रेस, न्यूयॉर्क.